رضوی

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खोजा शिया अशना अशरी जामा मस्जिद पाला गली में मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने जुमआ के खुतबे में बयान करते हुए कहा कि ईमान और अमल के लिहाज़ से जो मज़बूत होगा, वही क़यामत के दिन आगे होगा। उन्होंने कहा कि क़यामत के दिन जनाब सैय्यदा स.ल. की अज़मत और शान बेमिसाल होगी।

खोजा शिया अशना अशरी जामा मस्जिद पाला गली में नमाज़-ए-जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी की इक़्तिदा में अदा की गई। उन्होंने खुत्बे नें कहा, ईमान और अमल के आधार पर जो इंसान मज़बूत होगा, वही क़ियामत के दिन आगे रहेगा।उन्होंने कहा कि क़ियामत के दिन जनाब सैय्यदा फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की महानता और शान बेमिसाल होगी।

मौलाना आबिदी ने कहा कि अल्लाह के यहाँ न तो कोई पक्षपात है और न ही कोई पार्टीबाज़ी वहाँ केवल ईमान और अमल की क़ीमत है। इसलिए जो अपने ईमान और अमल में मज़बूत होगा, वही अल्लाह के दरबार में ऊँचा दर्जा पाएगा।

उन्होंने जनाब फ़ातिमा ज़हेरा (स.अ.) की अज़ादारी की अहमियत और ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए कहा कि अज़ादारी करने वालों की कद्र करनी चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा अज़ादारी में हिस्सा लेना चाहिए।

मौलाना ने कहा कि क़ियामत के दिन जो मक़ाम और इज़्ज़त अल्लाह तआला ने जनाब फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) को अता की है, वह किसी और को नहीं दी गई, क्योंकि ईमान और अमल के लिहाज़ से कोई भी उनके बराबर नहीं है।

उन्होंने लोगों से अपील की कि आने वाले दिनों में जनाब फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की मजलिसों में उनकी सीरत को ज़्यादा से ज़्यादा बयान किया जाए और इस तरह बयान किया जाए कि वह बातें हमारे घरों में अमल के क़ाबिल बनें।

मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने आज के दौर में तलाक़ की बढ़ती दर और घरेलू झगड़ों का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम सैय्यदा ज़हेरा (स.अ.) का ज़िक्र तो करते हैं, लेकिन फ़ातिमी तहज़ीब पर अमल नहीं करते, बल्कि पश्चिमी संस्कृति को अपनाए हुए हैं, इसी वजह से हमारे घरों में मतभेद और समस्याएँ बढ़ रही हैं।

उन्होंने स्पष्ट किया कि हमारा मतलब यह नहीं है कि आप उनसे बिल्कुल दूर रहें आप विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उनसे क़दम से क़दम मिलाकर चलें, लेकिन अख़लाक़  और तहज़ीब के मामलों में इस्लाम के साथ रहें।

 

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने अय्याम ए फ़ातिमा के अवसर पर हज़रत ज़हरा द्वारा दिए गए खुत्बा ए फ़दाकिया के हवाले से विशेष इंटरव्यू किया। जिसमे मौलाना ने खुत्बा ए फ़दकिया के असली मक़सद को बयान किया। 

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने अय्याम ए फ़ातिमा के अवसर पर हज़रत ज़हरा द्वारा दिए गए खुत्बा ए फदाकिया के हवाले से विशेष इंटरव्यू किया। जिसे हम अपने प्रिय पाठको के लिए सवाल व जवाब के रुप मे प्रस्तुत कर रहे है।

बीबी ज़हरा (स.अ.) ने ख़ुतबा-ए-फ़दाक़िया पृष्ठभूमि क्या थी और इस खुत्बे का बुनयादी मक़सद क्या था
मौलाना साजिद रज़वीः रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद जब हुकूमत और ख़िलाफ़त का मामला उलझा और फ़दक़ की ज़मीन जो नबी (स) ने बीबी ज़हरा (स) को दी थी, उनसे उनका हक़ छीना गया, तब आपने मस्जिद-ए-नबवी में यह ख़ुतबा दिया। यह वक्त ऐसा था जब मुसलमान सियासी और रूहानी इम्तहान में थे। इस ख़ुतबे का असल मकसद इस्लाम की हक़ीक़त को याद दिलाना, अहले-बैत के हुक़ूक़ को लोगों पर ज़ाहिर करना  और उम्मत को इन्साफ़, अद्ल और अमानतदारी की तरफ़ बुलाना था।

हज़रत ज़हरा (स) ने इस खुत्बे मे तौहीद, नुबूवत और इमामत को किस अंदाज़ में बयान किया उनके अहम प्वाइंट क्या है?
मौलाना साजिद रज़वीः आपने तौहीद को फ़लसफ़ी और रूहानी दोनों रंग में पेश किया। फ़रमाया कि अल्लाह बेनियाज़ है, उसकी कोई मिसाल नहीं, हर चीज़ उसी पर क़ायम है और उसकी इबादत इंसान की रूह का सुकून है। आपने नुबूवत को इंसानियत की हिदायत का ज़रिया बताया। कहा कि रसूल (स) वह नूर हैं जिनसे जेहालत मिटती है और अल्लाह का पेग़ाम बंदों तक पहुंचता है। और आपने इमामत को दीन की हिफ़ाज़त और उम्मत की रहनुमाई का मरकज़ बताया। 

फ़दक की ज़मीन का रूहानी या दीनी पहलू क्या था? और आपने फ़दक के हक़ मे कौन कौन सी दलीली पेश की
मौलाना साजिद रज़वीः फ़दक़ सिर्फ़ ज़मीन नहीं थी बल्कि इस्लामी इन्साफ़ की निशानी थी। इसका छीना जाना दरअसल अहले-बैत के हक़ और नबूवत के वारिसों की तौहीन थी। आपने क़ुरआन की आयतें पेश कीं कि पैग़म्बर अपने रिश्तेदारों को मीरास देते हैं। गवाहों का ज़िक्र किया और साफ़ कहा कि फ़दक़ नबी (स) ने हिबा (तोहफ़े) के तौर पर दिया था।

आप (स) ने ख़ुतबे में औरत के किरदार को किस तरह उजागर किया और उम्मत को किस चीज़ से खरदार किया
मौलाना साजिद रज़वीः बीबी ज़हरा (स) ने साबित किया कि औरत इस्लाम में सच्चाई, इन्साफ़ और दीनी हिम्मत की आवाज़ बन सकती है। आप एक माँ, बेटी और अल्लाह की बंदी के तौर पर समाज की रहनुमा थीं। आपने चेतावनी दी कि अगर उम्मत हक़ से मुँह मोड़ेगी, अहले-बैत की रहनुमाई को छोड़ेगी तो ज़ुल्म, फितना और गुमराही उसका अंजाम होगा।

जब बीबी (स) ने मस्जिद में कलाम किया तो मदीना का माहौल और वहा पर मौजूद सहाबा का रद्दे अमल क्या था
मौलाना साजिद रज़वीः मदीना में सन्नाटा था। लोग रसूल की जुदाई से ग़मज़दा थे लेकिन सियासी हवाएं बदल चुकी थीं। बीबी का कलाम सुनते ही सारा माहौल रूहानी और पुरअसर हो गया। कुछ सहाबा रो पड़े, कुछ ख़ामोश रहे और कुछ हैरान। बहुतों के दिलों में पछतावा और कुछ के दिलों में डर था कि उन्होंने अहले-बैत का हक़ न पहचाना।

बीबी (स) ने विरासत-ए-रसूल (स) के बारे में कौन सी आयतें बयान कीं?
मौलाना साजिद रज़वीः आपने सूरह नमल की आयत का हवाला दिया: "और सुलेमान ने दाऊद का वारिस हुआ"  ताकि साबित करें कि नबी की विरासत दीनी भी होती है और माली भी।

इस ख़ुतबे से बीबी (स.अ.) के इल्मी और फ़िक्री मक़ाम का क्या अंदाज़ा होता है?
मौलाना साजिद रज़वीः आपका कलाम इल्म, तर्क और वाकपटुता का शाहकार है। इससे मालूम होता है कि आप इल्म-ए-रसालत की वारिस थीं और तौहीद, नुबूवत, इमामत की गहराई को बयान करने वाली आलिम-ए-बे-मिसाल थीं।

ख़ुतबे में अद्ल और ज़ुल्म के हवाले से अख़लाक़ी पैग़ाम बयान करते हुए उम्मत की रुहानी गिरावट की तरफ़ कैसे तव्ज्जो दिलाई?
मौलाना साजिद रज़वीः आपने कहा कि अद्ल अल्लाह की सुन्नत है और ज़ुल्म उसकी नाफ़रमानी। जो इन्साफ़ करेगा, वह अल्लाह के करीब होगा; जो ज़ुल्म करेगा, वह गुमराह होगा। आपने कहा कि लोग अब दुनियावी लालच में पड़ गए हैं, अल्लाह के हुक्मों को भूल गए हैं और अहले-बैत की मोहब्बत से दूर हो गए हैं,  यही गिरावट की शुरुआत है।

आज के समाज को ख़ुतबा ए फदकिया किन पहलुओं से रहनुमाई देता है?
मौलाना साजिद रज़वीः यह ख़ुतबा हमें याद दिलाता है कि हक़ के लिए आवाज़ उठाना ईमान का हिस्सा है, और इस्लामी समाज की इस्लाह के लिए औरत व मर्द दोनों बराबर ज़िम्मेदार हैं ।

अगर इस ख़ुतबे का ख़ुलासा एक जुमले में किया जाए तो वह क्या होगा?

मौलाना साजिद रज़वीः  यह ख़ुतबा इंसाफ़, तौहीद और अहले-बैत के हक़ की आवाज़ है  जो हर दौर में उम्मत को याद दिलाता है कि दीन की बुनियाद हक़, इन्साफ़ और इल्म पर है।

 

मरहूम हाज इस्माईल दुलाबी (र) ने एक प्रतीकात्मक उदाहरण के ज़रिए आख़िर-उज़-ज़मां के लोगों को चार समूहों में बाँटा है: पहलाः जो दुनिया में फ़साद और अव्यवस्था फैलाते हैं। दूसराः जो सिर्फ दुआ और फ़रियाद (मांगने) में लगे रहते हैं। तीसराः जो ग़फ़लत यानी लापरवाही और बेख़बरी में डूबे हुए हैं और चौथाः जो उद्देश्यपूर्ण और कर्मशील इंतज़ार के साथ जीवन जी रहे हैं।

मरहूम हाजी इस्माईल दुलाबी (र) अक्सर कहते थे कि किसी ने उनसे पूछा “आख़िर उज़ ज़मां में लोगों की हालत कैसी होगी?”

उन्होंने जवाब दिया: “उनकी मिसाल उस बाप जैसी है जिसके चार बेटे हों।”

वह बाप अपने बेटों को एक कमरे में बंद करके कहता है: “तुम लोग यहीं रहो, मैं थोड़ा बाहर जा रहा हूँ, जल्द वापस आऊँगा।” लेकिन असल में वह पीछे के परदे से अपने बच्चों के व्यवहार को देखता रहता है।

पहला बेटा – बाप की गैरहाजिरी का फ़ायदा उठाता है, शरारत करता है, कमरे को बिगाड़ देता है और हंगामा मचाता है।

दूसरा बेटा – जब अपने भाई की हरकतें देखता है तो बैठकर रोने लगता है और पुकारता है: “बाबा आओ! बाबा आओ!”

तीसरा बेटा – अपने बाप को बिल्कुल भूल जाता है और खेल-कूद में, अपनी दुनिया में मस्त हो जाता है।

चौथा बेटा – समझ लेता है कि भले ही बाप दिखाई नहीं दे रहा, लेकिन वह परदे के पीछे से देख रहा है।

इसलिए वह कमरे को साफ़-सुथरा रखता है, सब चीज़ों को ठीक से जमाए रखता है, और बाप के देर आने से परेशान नहीं होता।

बल्कि वह सोचता है: “जितना समय बाबा देर करेंगे, मुझे उतना ज़्यादा मौक़ा मिलेगा कि कमरा और अच्छे से सजाऊँ और उन्हें खुश करूँ।”

वह काम भी करता रहता है और इंतज़ार भी।

यह उदाहरण हम सबका है  आख़िर-उज़-ज़मां के इंसानों का।

कुछ लोग हैं जो दुनिया का निज़ाम बिगाड़ देते हैं;

कुछ लोग हैं जो केवल रोते हैं और पुकारते हैं: “आका आजाइए! मौला आजाइए!”

कुछ ऐसे हैं जो अपने इमाम को भूल चुके हैं और अपनी दुनिया में मस्त हैं; और कुछ ऐसे भी हैं जो अपने इमाम की ख़ुशी के लिए लगातार अच्छे कर्म करते रहते हैं चाहे इमाम के आगमन में देर ही क्यों न हो।

स्रोत: शाख़े तूबा – बयानात मरहूम हाजी इस्माईल दुलाबी (र)

 

पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय ने कुछ विदेशी मीडिया संस्थानों के पाकिस्तान-विरोधी प्रोपेगैंडे पर प्रतिक्रिया देते हुए स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान का इज़राइल के बारे में रुख़ बिल्कुल साफ़ और दो-टूक है; पाकिस्तान ने कभी भी इज़राइल को मान्यता नहीं दी है और ना कभी मान्यता देगा।

पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय ने कुछ विदेशी मीडिया संस्थानों के पाकिस्तान-विरोधी प्रोपेगैंडे पर प्रतिक्रिया देते हुए स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान का इज़राइल के बारे में रुख़ बिल्कुल साफ़ और दो-टूक है; पाकिस्तान ने कभी भी इज़राइल को मान्यता नहीं दी है और ना कभी मान्यता देगा।

पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय ने कहा है कि फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार के समर्थन में पाकिस्तान का रुख़ बिल्कुल स्पष्ट और सिद्धांतों पर आधारित है। झूठी और मनगढ़ंत कहानियाँ बनाकर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ज़हरीला प्रोपेगैंडा करना दुश्मन मीडिया की पुरानी आदत है। पाकिस्तान के बारे में कुछ विदेशी मीडिया का एक और झूठा दावा अब बेनकाब हो गया है।

पाकिस्तान के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कुछ विदेशी चैनलों के भ्रामक दावों का खंडन करते हुए कहा है कि पाकिस्तान ने न तो इज़राइल को मान्यता दी है और न ही किसी सैन्य सहयोग पर विचार किया जा रहा है।

कुछ विदेशी टीवी चैनलों ने यह झूठा दावा किया था कि पाकिस्तान पश्चिमी देशों और इज़राइल की निगरानी में 20,000 सैनिकों को ग़ाज़ा भेजने की तैयारी कर रहा है।

कुछ मीडिया संस्थानों ने यह हास्यास्पद दावा भी किया कि पाकिस्तान ने अपने पासपोर्ट से “इज़राइल के लिए अप्रयुक्त” (Not valid for Israel) वाला खंड हटा दिया है।

पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में स्पष्ट कहा गया है कि पासपोर्ट में इज़राइल के लिए “अमान्य” (Not valid for Israel) की शर्त अब भी मौजूद है और इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है।

विदेशी चैनलों के प्रोपेगैंडे को बेनकाब करते हुए मंत्रालय ने दोहराया कि पाकिस्तान का इज़राइल के प्रति रुख बिल्कुल साफ़ और दृढ़ है पाकिस्तान ने कभी इज़राइल को मान्यता नहीं दी है।

सूचना मंत्रालय ने आगे कहा कि फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की पाकिस्तान स्पष्ट और सैद्धांतिक रूप से समर्थन करता है। कुछ विदेशी मीडिया संस्थान झूठी और मनगढ़ंत कहानियाँ बनाकर पाकिस्तान के खिलाफ़ ज़हरीला प्रोपेगैंडा फैला रहे हैं।

 

हरम ए हज़रत मासूमा स.अ.में आयोजित मजलिस ए अज़ा को संबोधित करते हुए हुज्जतुल इस्लाम मोहम्मद हादी हिदायत ने कहा,जहाँ अल्लाह तआला ने तौहीद का हुक्म दिया है, वहीं माता-पिता के साथ नेकी और भलाई करने को भी अनिवार्य ठहराया है। यह बात इस्लामी तालीमात के उस प्रणाली की ओर इशारा करती है, जो माता-पिता के उच्च और सम्मानित दर्जे को स्पष्ट करती है।

हुज्जतुल इस्लाम मोहम्मद हादी हिदायत ने कहा कि हज़रत फातिमा ज़हरा (स.ल) सिर्फ उम्मे अबीहा (अपने पिता की माँ) या "उम्मुल आम्मा" (इमामों की माँ) ही नहीं हैं, बल्कि वह सभी शियाओं की आध्यात्मिक माँ का दर्जा रखती हैं और ईमान वालों की परवरिश उन्हीं के हाथों होती है।

हुज्जतुल इस्लाम हिदायत ने इमाम सादिक (अ) के एक कथन का हवाला देते हुए कहा कि आयत "الذین آمنوا و اتبعتهم ذریتهم بإیمان" के अनुसार हज़रत ज़हेरा (स.ल.) शिया बच्चों की परवरिश करती हैं, जो उनके अद्वितीय आध्यात्मिक दर्जे को दर्शाता है।

उन्होंने आगे कहा कि हज़रत ज़हेरा (स.व.) को "ज़हरा" इसलिए कहा गया क्योंकि अल्लाह ने उन्हें अपने महान नूर से पैदा किया, और यही नूर ईमान वालों के लिए हिदायत और पवित्रता का स्रोत है।

हदीस-ए किसा की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह हदीस ईमान वालों के लिए एक खजाना और बच्चों की परवरिश के लिए एक व्यावहारिक दिशानिर्देश है। इसमें इमाम हसन (अ.स.) का अपनी माँ को अदब और इज्जत के साथ सलाम करना और हज़रत ज़हरा (स) का मोहब्बत भरा जवाब देना, इस्लामी परवरिश की एक उत्कृष्ट मिसाल है।

उन्होंने कहा कि पवित्र कुरआन में अल्लाह ने तौहीद के साथ ही माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया है, जो इस बात का प्रमाण है कि माँ-बाप का सम्मान ईमान और परवरिश के बुनियादी सिद्धांतों में से है।

हुज्जतुल इस्लाम हिदायत ने आगे कहा कि यहाँ तक कि हज़रत ईसा (अ.स.) के धर्म में भी माता-पिता की सेवा एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जैसा कि कुरआन में उनके कथन के हवाले से आया है,وَبَرًّا بِوَالِدَتِی وَلَمْ یَجْعَلْنِی جَبَّارًا شَقِیًّا है।

उन्होंने बताया कि इमाम सादिक (अ) की एक रिवायत के अनुसार, माता-पिता की सेवा सिर्फ इस्लाम में ही नहीं, बल्कि सभी आसमानी धर्मों में हैं। जबकि उनकी नाफरमानी इंसान को अल्लाह की रहमत से महरूम कर देती है।

वक्ता ने आयतुल्लाह मरअशी नजफी, आयतुल्लाह मक़ारिम शीराजी और दूसरे बड़े उलमा की जिंदगियों से उदाहरण देते हुए कहा कि उनकी इल्मी और रूहनी कामयाबियाँ माता-पिता की सेवा और उनके सम्मान की बरकत से थीं।

अंत में उन्होंने कहा कि अपने परिवार की दीनी परवरिश में आपसी सम्मान बुनियादी महत्व रखता है। हज़रत ज़हेरा (स.ल.) अपने बेटे को "आँखों का नूर" और "दिल का फल" कहकर बुलाती थीं, जो माता-पिता के लिए बेहतरीन नमूना है। उनके अनुसार, बच्चों का अपमान और सख्त रवैया, ईमान की कमजोरी और विचार में भटकाव का कारण बनता है।

 

आयतुन मिन आयातिल्लाह, हबीबतुल मुस्तफ़ा, क़ुर्रतु ऐनिल मुर्तज़ा, नाइबतुज़ ज़हरा, शफ़ीक़तुल हसन, शरीकतुल हुसैन, कफ़ीलतुल इमामैन, अक़ीलतुन नुबूवह, सिर्रु अबीहा, सुलालतुल विलायह, क़िबलतुल बराया, आबिदा, फसीहा, बलीग़ा, मुअस्सिक़ा, कामिला, फ़ाज़िला, मुहद्दिसा, आलिमा, फ़हीमा, अक़ीला-ए-बनी हाशिम हज़रत ज़ैनब-ए-कुबरा सलामुल्लाह अलैहा 5 जमादीउल-अव्वल सन 5 (या 6) हिजरी को सरज़मीन-ए-वह'ई, हरम-ए-नबवी, क़ुब्बतुल इस्लाम, क़रियतुल अंसार यानी मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुईं।

आयतुन मिन आयातिल्लाह, हबीबतुल मुस्तफ़ा, क़ुर्रतु ऐनिल मुर्तज़ा, नाइबतुज़ ज़हरा, शफ़ीक़तुल हसन, शरीकतुल हुसैन, कफ़ीलतुल इमामैन, अक़ीलतुन नुबूवह, सिर्रु अबीहा, सुलालतुल विलायह, क़िबलतुल बराया, आबिदा, फसीहा, बलीग़ा, मुअस्सिक़ा, कामिला, फ़ाज़िला, मुहद्दिसा, आलिमा, फ़हीमा, अक़ीला-ए-बनी हाशिम हज़रत ज़ैनब-ए-कुबरा सलामुल्लाह अलैहा 5 जमादीउल-अव्वल सन 5 (या 6) हिजरी को सरज़मीन-ए-वह'ई, हरम-ए-नबवी, क़ुब्बतुल इस्लाम, क़रियतुल अंसार यानी मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुईं।

आपके नाना हज़रत रसूल-ए-अकरम स०अ० ने खुदा के हुक्म से आपका नाम “ज़ैनब” रखा और आपकी इज़्ज़त व एहतेराम की ताकीद फ़रमाई। आप ने “उम्म-ए-अबीहा” हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स०अ.०) की गोद में परवरिश पाई।

लेकिन अफ़सोस! 5 साल की उम्र में पहले नाना “रहमतुल-लिल-आलमीन” (स०अ०) और उसके 75 या 95 दिन बाद अपनी माँ हजरत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की रहमत भरे साये से महरूम हो गईं — यानी बचपन ही से आप ग़म और मुसीबतों को पहचान गईं।

अपनी बा बरकत ज़िंदगी में आप ने अनगिनत मुश्किलें, ग़म और दर्द झेले — अपने वालिद, भाइयों और बेटों की शहादतें देखीं और क़ैद जैसी तल्ख़ (कड़वी) हक़ीक़तों को सब्र से सहा। इन्हीं सब्र और इस्तिक़ामत की पराकाष्ठा ने आपको “सब्र की तसवीर” बना दिया।

आपकी शादी आपके चचा के बेटे जनाब अब्दुल्लाह बिन जाफ़र से हुई। अल्लाह ने आपको बेटे दिये जो करबला में राह-ए-ख़ुदा में शहीद हो गए।आख़िरकार 15 रजब सन 62 हिजरी को शाम में आपकी शहादत हुई, और वहीं आपका रोज़ा-ए-मुबारक आज भी अहले ईमान की ज़ियारतगाह है।

ज़ैल में आपके फ़ज़ाइल और करामात के समुंदर से कुछ अनमोल मोती बयान किए जा रहे हैं।

  1. ज़ीनते पिदर (बाप की ज़ीनत)

आम तौर पर बच्चे का नाम उसके मां-बाप रखते हैं, मगर हज़रत ज़ैनब (स०अ०) का नाम ख़ुद रसूल-ए-अकरम स०अ० ने ख़ुदा के हुक्म से रखा। कि जनाब जिब्रईल नाज़िल हुए और दुरुद ओ सलाम के बाद कहा कि “अल्लाह ने लौहे महफूज़ पर इस बच्ची का नाम ‘ज़ैनब’ लिखा है” — यह अपने बाप की “ज़ीनत” है। यानी उस बाप की ज़ीनत है जिसकी कदमबोसी को हर फ़ज़ीलत ने अपने लिए फज़ीलत समझा।

  1. इल्म-ए-इलाही

इंसान को दूसरी मख़लूक़ात पर जो बरतरी और फज़ीलत मिली, वह उसके इल्म (ज्ञान) और मा’रिफ़त की वजह से मिली है।
जैसा कि क़ुरआन में है: “अल्लाह ने आदम को सब नामों का इल्म दिया” ( सुरह बक़रा, आयत 31)

सबसे आला इल्म वह है जो सीधे ख़ुदा की तरफ़ से मिले — यानी “इल्म-ए-लद्दुनी”। जैसे हज़रत ख़िज़्र (अ.) के बारे में आया: “और हमने उन्हें अपने पास से ख़ास इल्म दिया”  (सुरह क़हफ़, आयत 65)

हज़रत ज़ैनब (स०अ०) को भी यही ख़ास इल्म हासिल था।जैसा कि इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ०स०) ने फ़रमाया: “ऐ मेरी फ़ूफी! आप ऐसी आलिमा हैं जिन्हें किसी ने नहीं पढ़ाया और ऐसी फ़हीमा हैं जिन्हें किसी ने नहीं समझाया।
(मुन्तहल-आमाल, ज. 1, स. 298)

  1. इबादत और बंदगी

हज़रत ज़ैनब (स०अ०) को इबादत से गहरा लगाव था।
इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ०स०) ने फ़रमाया: “मेरी फ़ूफी ज़ैनब (स०अ०) ने कूफ़ा से शाम तक के सफ़र में कोई वाजिब या मुस्तहब नमाज़ नहीं छोड़ी — अगर भूख या कमज़ोरी ज़्यादा होती तो बैठकर नमाज़ अदा करती थीं।”
(रियाहैनीश-शरीअह, ज. 3, स. 62)

शबे आशूर और शामें ग़रीबां में भी आपकी नमाज़े शब क़ज़ा नहीं हुई, बल्कि पूरी रात इबादत में गुज़ारी। इमाम हुसैन (अ०स०) ने आखरी रुख़्सत होते वक्त फ़रमाया: “ऐ बहन! मुझे नमाज़-ए-शब में याद रखना।”
(रियाहीन-उश-शरीअह, ज. 3, स. 61–62)

यह जुमला इस बात की दलील है कि हज़रत ज़ैनब (स०अ०) इबादत और बंदगी की बुलंद मंज़िल पर फ़ाएज़ थीं।

  1. इफ़्फ़त और पाकदामनी

इफ़्फ़त (पवित्रता) और पाकदामनी औरत का सबसे बड़ा गहना है। अमीरुल मोमिनीन इमाम अली (अ०स०) ने फ़रमाया: “अल्लाह की राह में जिहाद करने वाले शहीद का सवाब उस शख्स से ज़्यादा नहीं है जो ताकत रखने के बावजूद इफ्फत और पाक दामिनी (पवित्रता) अख्तियार करता है, बहुत करीब है कि अफीफ और पाक दामन (पवित्र) इंसान फरिश्तों में से एक फरिश्ता हो"
(नहजुल बलाग़ह, हिकमत 466)

इस्मते कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की सानी और नाइबा हज़रत ज़ैनब (स०अ०) की इफ़्फ़त बयान करना सूरज को दिया दिखाने जैसा है।क़ैद और असीरी के दिनों  के बारे में लिखा गया है: “आप अपने चेहरे को हाथ से ढाँपती थीं क्योंकि आपकी चादर छीनी जा चुकी थी।”
(अल-ख़साइ़स-उज़-ज़ैनबिया, स. 345)

और उसी इफ्फत और ग़ैरत की हालत में यज़ीद के दरबार में गरज कर फरमाया: “ऐ आज़ादशुदा ग़ुलामों के बेटे! क्या यह इंसाफ़ है कि तू अपनी औरतों को पर्दे में रखे और रसूल-ए-ख़ुदा स०अ० की बेटियों को बिना पर्दा घुमाए? तू ने उनकी चादरें छीनीं और उनके चेहरे लोगों के सामने ज़ाहिर कर दिए।”

बेशक हजरत जैनब सलामुल्लाह अलैहा सब्र, इफ्फत, इबादत, इल्म और ग़ैरत का वह रोशन नमूना हैं जो कयामत तक तमाम इंसानों खासतौर से मुसलमान के लिए मार्गदर्शक दीप है!

  1. मौला की इताअत-ए-महज़

क़ुरआन करीम में है: “ऐ ईमान वालों! अल्लाह की इताअत करो, रसूल की इताअत करो और साहिबाने अम्र की इताअत करो जो तुम ही में से हैं।” — सुरह निसा, आयत 59)

हज़रत ज़ैनब (स०अ०) ने 7 मासूमीन (अ०स०) के साथ ज़िंदगी गुज़ारी लेकिन जिस बात ने आपकी शख्सियत को उजागर किया वह मासूम की इताअत ए महेज़ यानी बगैर किसी चूं व चरा के पैरवी थी, ज़ाहिर है आप ने बचपन में ही अपनी मां को अपने इमाम ए वक्त की इताअत और हिफ़ाज़त में कोशिश करने वाला पाया था, जिन्होंने इस राह में अपनी जान कुर्बान कर दी थी, हजरत जै़नब सलामुल्लाह अलैहा उसी शहीदा सिद्दीक़ा मां की गोद में पली थीं और उनकी नाइबा थीं, इसलिए आप ने भी जिंदगी के हर पल अपने इमामे वक्त की इताअत को हर चीज पर मुक़द्दम रखा, 

हजरत जैनब सलामुल्लाह अलैहा ने जहां एक तरफ अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के हक़ का ऐलान किया और उनका दिफा किया चाहे वह कूफे का बाज़ार हो या इब्ने ज़ियाद का दरबार हो, इसी तरह शाम के बाजार, दरबार और कैद खाने में अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के हक़ का ऐलान किया कि ज़ुल्म करने वाले हार गए मज़लूम जीत गए, कत्ल करने वाले शिकस्त खा गए और कत्ल होने वाले कामयाब हो गए, वहीं दूसरी तरफ हर पल इमामे वक्त की इताअत ए महेज़ की — चाहे वह इमाम हुसैन (अ.) हों या उनकी शहादत के बाद इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ०स०) हों, आप ने उनकी इताअत की!

हजरत जैनब सलामुल्लाह अलैहा जहां अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के हक़ का दिफा कर रही थीं, जहां इमाम ए वक्त की इताअत कर रही थीं वहीं दूसरे मजलूमों यानी दूसरे कैदियों की दिलजोई, उन्हें हौसला दे रही थी और उनकी हिफ़ाज़त कर रही थीं कि अगर हजरत जैनब सलामुल्लाह अलैहा न होतीं, तो शायद ज़ालिम इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ०स०) और इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ०स०) को शहीद कर देते, और सिलसिला-ए-इमामत ख़त्म हो जाता। मगर यह आपकी हिकमत, शुजाअत (बहादुरी), फ़साहत, बलाग़त और ख़ेताबत थी कि ज़ालिम आपके सामने गूंगे रह गए और इमामत का सिलसिला बाक़ी रहा।

इसलिए यह कहना बिल्कुल हक़ है कि अगर हज़रत ज़ैनब (स०अ०) न होतीं तो न इस्लाम होता, न इंसानियत होती।

ऐ रसूल-ए-ख़ुदा (स०अ०) और ख़दीजतुल कुबरा (स०अ०) की नवासी, ऐ अली ओ फ़ातिमा (अ०स०) की बेटी, ऐ हसनैन करीमैन (अ०स०) की बहन, ऐ औलिया-ए-ख़ुदा की फ़ूफी आप पर सलाम हो।
ऐ इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ०स०) की हिफ़ाज़त करने वाली, ऐ अली (अ०स०) के लहजे में बोलने वाली ख़तीबा आप पर सलाम हो।ऐ कर्बला की मुबलिग़ा और मुहाफ़िज़ा आप पर अल्लाह और उसके बंदों का सलाम हो।

 

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025 15:43

हम अपना माल बा बरकत कैसे बनाएँ?

इनफ़ाक करो और लोगों के बोझ हल्के करो; सदक़ा रिज़्क़ में इज़ाफ़ा करता है और नेक अमल ज़िन्दगी में बरकत लाता है। जैसा कि इमाम सादिक़ (अ) के फ़रज़ंद की रिवायत में है कि उन्होंने चालिस दीनार सदक़ा दिया तो सिर्फ़ दस दिन में उनकी हालत बदल गयी। मुश्किलात का हक़ीकी हल दरुस्त और इलाही आमाल में है, न कि बातिल रास्तों या जादू टोनों में।

हुज्जतुल इसलाम नासिर रफ़ीई ने अपनी एक तक़रीर में "सदक़ा, रोज़ी में कुशादगी और बरकत की कुंजी" के विषय पर गुफ़्तगू की है जो प्रिय पाठको की नज़र की जा रही है।

खर्च करो और लोगों के बोझ हल्के करो, तबक़ाती फ़र्क़ को कम करो। अल्लाह तआला ने लोगों को खर्च करने की तरगीब देने के लिए कई मिसालें दी हैं:

कभी आप एक दाना बोते हैं और वह दाना सात बालियों में बदल जाता है, हर बाली में सौ दाने होते हैं।

कुछ रिवायतों में आया है कि कुछ हालात में एक दाना सात सौ दानों तक फल देता है।

मुराद यह नहीं कि हम सिर्फ़ लफ़्ज़ी मिसाल पर भरोसा करें, बल्कि हक़ीक़त में नेक अमल बरकत और वृद्धि का करण बन सकता है।

अगर आप एक दिरहम भी सदक़ा दें या एक रुपया, तो यह अमल उस दाने की मानिंद है जिसकी पैदावार कई गुना बढ़ जाती है।

फिर क्यों नहीं खर्च करते?

खर्च करना तुम्हारे माल को कम नहीं बल्कि बढ़ाता है।

इस सिलसिले में एक मशहूर रिवायत यह है कि इमाम सादिक़ (अ) के एक बेटे मुहम्मद बिन जाफ़र आपके पास आये और कहा कि मेरी माली हालत खराब है, मेरे पास सिर्फ़ चालिस दीनार हैं।

इमाम (अ) ने फ़रमाया: उन्हें सदक़ा दे दो। बेटे ने कहा: अगर मैं यह भी दे दूँ तो मेरी जेब खाली हो जाएगी, मेरी हालत और बिगड़ जाएगी।

इमाम (अ) ने फ़रमाया: "हर चीज़ की एक कुंजी होती है... और तुम्हारी रोज़ी की कुंजी सदक़ा है।"

हमारी एक ग़लती यह है कि हम मुश्किल के दरवाज़े की कुंजी को नहीं पहचानते या क़ुफ़्ल में ग़लत चाबी लगा देते हैं, जिससे न सिर्फ़ दरवाज़ा नहीं खुलता बल्कि चाबी टूट भी सकती है और मामला और बिगड़ सकता है। अगर हम सही चाबी ढूँढ लें तो दरवाज़ा खुल जाता है।

यह मिसालें आम की जा सकती हैं: अगर इंसान अपनी शहवत पर क़ाबू पाना चाहता है तो उसकी कुंजी निकाह है, न कि ग़ैर-शरई ताल्लुक़ात जो इज़्ज़त और मौक़ों दोनों को तबाह कर देते हैं।

अगर तुम ताक़त चाहते हो तो रास्ता दूसरों को क़त्ल करना नहीं है। सुलेमान (अ) के पास भी ताक़त थी मगर इस तरीक़े से नहीं। अगर तुम माल चाहते हो तो रास्ता बदअमनी या बदउनवानी नहीं है। सही कुंजी हलाल कोशिश और अल्लाह पर भरोसा है।

बहुत से ख़ानदान जब उनके बच्चों की शादी में ताख़ीर होती है या कोई मसअला पेश आता है तो फ़ौरन "जादू" और "टोनों" के पीछे भागते हैं और कहते हैं कि हम पर जादू कर दिया गया है।

दीन ऐसे अकीदे की तसदीक़ नहीं करता। दीन बताता है कि दुआ करो, सदक़ा दो, क़ुर्बानी करो और शरई व रूहानी ज़राए इस्तेमाल करो।

बहुत से मआमलात में सही हल को न जानने की वजह से इंसान ग़लत रास्ते पर चल पड़ता है। ग़लत रास्ता कभी वापस लौटने के क़ाबिल होता है और कभी पुराना, ख़तरनाक और नाक़ाबिल-ए-तलाफ़ी हो जाता है।

अगर आप क़ुफ़्ल में ग़लत चाबी लगाएँ और ज़ोर से दबाएँ तो चाबी टूट जाएगी और दरवाज़ा फिर कभी नहीं खुलेगा, यानी एक ग़लती मौक़ों को हमेशा के लिए तबाह कर सकती है।

मज़कूरा रिवायत में उस नौजवान ने चालिस दीनार सदक़ा में दे दिये। दस दिन के अंदर ही उसकी हालत बदल गयी और उसे तक़रीबन चार हज़ार दीनार जैसी रक़म मिल गयी।

यह वाक़ेअ इस बात पर ज़ोर देता है कि "रोज़ी की कुंजी सदक़ा है"। सदक़ा रोज़ी में वुसअत और कुशादगी का रास्ता है।

 

 

क्या वास्तव मे हम हज़रत ज़ैनब (स) से सच्ची मोहब्बत करते है?

अगर हम सच मे हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत करते हैं तो हमें अपनी इफ़्फ़त, हया, शुजाअत और हक़ की रक्षा में उन जैसा होना चाहिए। इंसान की तरक्की के लिए रोल मॉडल ज़रूरी है, और क़ुरआन ने अंबिया को बेहतरीन रोल मॉडल क़रार दिया है। हमें चाहिए कि हज़रत ज़ैनब (स) जैसी हक़ीकी शख्सियात को नौजवान नस्ल और पूरी दुनिया के सामने मतआरिफ़ कराएँ।

मरहूम अल्लामा मिस्बाह यज़दी ने अपनी एक तक़रीर में "हज़रत ज़ैनब (स) जैसा बनें" विषय पर रौशनी डाली है जो हम आपकी ख़िदमत में पेश कर रहे हैं।

अगर हम सच्चे हैं तो ये कैसे मुमकिन है कि हम हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत का दावा करें मगर हमें इफ़्फ़त व हया का गिला तक न हो?

ये किस तरह मुमकिन है कि हम हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत रखते हों मगर हक़ की दिफ़ाअ में अपनी हर चीज़ क़ुर्बान करने से गुरेज़ करें और हम में जुरअत ही न हो?

अगर हम वाक़ई उन से मोहब्बत करते हैं तो हमें उन जैसा बनना होगा।

इंसान के किरदार और रास्ता चुनने में नमूना की एहमियत को देखते हुए, यह मौज़ू इतना एहम है कि कुछ माहिरीन-ए-नफ़सियात इंसान की तरक्की को नमूना की मौजूदगी में ही मुमकिन समझते हैं।

क़ुरआन करीम ने बहुत से नमूने पेश किए हैं जिनमें पैग़म्बर इस्लाम (स), हज़रत इबराहीम (अ) और दूसरे अंबिया शामिल हैं और उन की पैरवी की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है।

हमें नौजवान नस्ल तक क़दरों को नमूनों के ज़रिए पहुँचना चाहिए।

हमें फन के मुख़्तलिफ़ ज़राए जैसे ताज़िया, थिएटर, कहानी वग़ैरह के ज़रिए इन नमूनों को नौजवानों के सामने पेश करना चाहिए।

क़ुरआन करीम ने अच्छे और बुरे दोनों किस्म के नमूने परिचित कराए हैं, जो ज़ाहिर करता है कि नमूना की कितनी एहमियत है और दूसरों का उस की त़क़लीद करना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि निश्चित रुप से इंसान के चरित्र की तश्कील के लिए नमूना की ज़रूरत होती है।

हमारे बहुत से ज़ाहिरी आमाल उन नमूनों से लिए गए हैं जो फिल्मों में दिखाए जाते हैं, लिहाज़ा हमें भी चाहिए कि अपने इच्छित नमूनों को फन के ज़रिए अवाम के सामने पेश करें।

अगर इस्लाम में दो शख्सियात को नमूना के तौर पर पेश करना हो तो पहली हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) और दूसरी हज़रत ज़ैनब (स) हैं।

इस्लाम के 1400 साला दौर और इस्लामी इंकलाब के तीन अशरों तीस वर्षों में इन दो अज़ीम महिलाओं का हक़ अदा नहीं हो सका है और इस्लामी समाज इन बुज़ुर्गवार शख्सियात की अज़मत को पूरी तरह नहीं समझ सका है।

हमें न सिर्फ़ हज़रत ज़ैनब (स) और हज़रत फ़ातिमा (स) से नमूना लेना चाहिए, बल्कि इन दो शख्सियात को पूरी दुनिया में नमूना के तौर पर मतआरिफ़ कराना चाहिए।

स्रोत: 2 मई 1999 की तक़रीर

 

 

ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि, ईरान को परमाणु समृद्धिकरण का अधिकार है और उनका परमाणु बम देश को शक्तिशाली देशों के सामने “ना” कहने की क्षमता देता है। अराक़ची ने बताया कि युद्ध को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण कारक तैयारी है, जो केवल सशस्त्र बलों में नहीं बल्कि जनता और सरकार में भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह तैयारी 12-दिन के युद्ध से पहले से भी अधिक है। उन्होंने विश्वास जताया कि कोई पुरानी गलती दोहराई नहीं जाएगी, और अगर दोहराई गई तो उसका करारा जवाब मिलेगा।

ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि, ईरान को परमाणु समृद्धिकरण का अधिकार है और उनका परमाणु बम देश को शक्तिशाली देशों के सामने “ना” कहने की क्षमता देता है। अराक़ची ने बताया कि युद्ध को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण कारक तैयारी है, जो केवल सशस्त्र बलों में नहीं बल्कि जनता और सरकार में भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह तैयारी 12-दिन के युद्ध से पहले से भी अधिक है। उन्होंने विश्वास जताया कि कोई पुरानी गलती दोहराई नहीं जाएगी, और अगर दोहराई गई तो उसका करारा जवाब मिलेगा।

अराक़ची  ने कहा कि हमेशा यह सवाल पूछा जाता रहा कि ईरान समृद्धिकरण क्यों चाहता है। उनका जवाब था,हमारा लक्ष्य बम या हथियार नहीं है। हम समृद्धिकरण चाहते हैं क्योंकि यह हमारा अधिकार है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि इसे नहीं होना चाहिए।उन्होंने यह भी जोड़ा कि परमाणु बम देश को दूसरों के सामने ना कहने की शक्ति देता है और यही हमारी ताक़त है।

अराक़ची ने पश्चिमी देशों को स्पष्ट संदेश दिया, हमने परमाणु समझौते से बाहर खुद को निकाला। आप चाहते हैं कि हमें यह अधिकार न हो, लेकिन हम वैधता साबित करने के लिए बातचीत के लिए तैयार हैं। ईरानी परमाणु बम ताक़तवर देशों के सामने ना कहने की क्षमता है। यह क्षमता इस्लामी क्रांति से शुरू हुई और आज भी जारी है।

उन्होंने कहा कि ऐसे लोग हैं जो भारी कीमत चुकाने को तैयार हैं, लेकिन उनकी स्वतंत्रता, सम्मान और गरिमा कभी प्रभावित नहीं होती।

लगभग सभी देशों की नब्ज़ पर हाथ
अराक़ची  ने न्यूयॉर्क में हुई हाल की वार्ताओं का हवाला देते हुए कहा,हम किसी की हुकूमत में नहीं हैं। यह ईरानियों की खासियत रही है और अब भी है। हमारी मुख्य ताक़त यही है। जब हम अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों में इज़रायल, अमेरिका और हेज़ेमनी जैसी समस्याओं को उठाते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह कई देशों की नब्ज़ पर हाथ रख देता है। ईरानी कूटनीतिज्ञ हिम्मत करके मुद्दे उठाते हैं, यह हमारी विशेषता है और इसका हमें गर्व है।

अराक़ची ने कहा,जब तक अमेरिका में प्रभुत्व की प्रवृत्ति है और ईरान में इसके सामने न झुकने की प्रवृत्ति है, तब तक हमारी समस्या बनी रहेगी। शहीद रईसी की सरकार के समय, हमने बातचीत की, समझौता हुआ, बंधकों को मुक्त किया गया और हमारा पैसा कोरिया से मुक्त हुआ, लेकिन क़तर में यह फंसा रहा और इस्तेमाल नहीं हुआ।

उन्होंने आगे कहा,इस साल भी हमने बातचीत शुरू की, बीच में हम पर हमला हुआ और अमेरिका ने इसका समर्थन किया, फिर वह खुद भी इसमें शामिल हो गया। न्यूयॉर्क में बातचीत का एक अवसर था, लेकिन मांगे पूरी तरह गैर-तर्कसंगत और अव्यवहारिक थीं, जैसे सभी शर्तें मान लेना और छह महीने के लिए ‘स्नैप-बैक’ लागू करना। कौन सा समझदार इंसान इसे स्वीकार करेगा?

उन्होंने जोर देकर कहा,हम कभी भी कूटनीति को नहीं छोड़ेंगे विदेश मामलों के प्रमुख ने कहा,हम और अमेरिका के बीच कभी कोई सकारात्मक अनुभव नहीं हुआ। हम ईमानदारी से आगे बढ़े और रास्ता खोलने की कोशिश की। हमारे पास भरोसा नहीं है और हम भरोसा भी नहीं करेंगे, लेकिन बिना भरोसे के भी समझदारी से बातचीत में प्रवेश किया जा सकता है। हमने यह किया, लेकिन कभी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली।

अराक़ची ने कहा,यह अमेरिका का स्वभाव है और फिलहाल कोई सकारात्मक संकेत नहीं दिखता जिससे बातचीत संभव हो। उन्होंने आगे कहा,अगर अमेरिका समान स्तर पर, ईमानदार रवैये के साथ, परस्पर लाभ वाले समझौते के लिए, और सम्मानजनक ढंग से, वास्तविक और गंभीर बातचीत करने के लिए तैयार है, तो हम कभी भी कूटनीति को नहीं छोड़ेंगे और उसे खारिज नहीं करेंगे।

उन्होंने कहा,यह बहुत जटिल है। हम कभी भी अपने लोगों के अधिकारों से समझौता नहीं करेंगे, और न ही उनके खिलाफ दबदबे और अत्याचार सहेंगे, लेकिन किसी भी समझदार समाधान के लिए हम तैयार हैं।

 

पाकिस्तान के शहर कराची में "नहजुल बलाग़ा" के पैग़ाम को आम करने और समाज में फ़िक्री (विचारात्मक) व अख़लाक़ी (नैतिक) जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से "मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी" की जानिब से और "अबूतालिब ट्रस्ट कराची" के तहत एक शानदार "नहजुल बलाग़ा कॉन्फ़्रेंस" का आयोजित किया गया।

यह कॉन्फ़्रेंस "मस्जिद‑ओ‑इमामबाड़ा अबूतालिब (अ)" और "पयग़ंबर‑ए‑आज़म ऑडिटोरियम" (डीएचए  कराची) में हुई जिसमें बड़ी संख्या में उलमा‑ए‑किराम, दानिशवरान (विद्वान) और मुहिब्बाने अहलेबैत (अ) ने शिरकत की।

कॉन्फ़्रेंस को सरपरस्त मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी हुज्जतुल इस्लाम वल  मुस्लेमीन मक़बूल  हुसैन अलवी,  आयतुल्लाह सय्यद अक़ील अल‑ग़रवी (ऑनलाइन ख़िताब),  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद अली  मुर्तज़ा  ज़ैदी,  प्रोफेसर आबिद  हुसैन,  डॉ. इजाज़  हुसैन और  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  शहनशाह  हुसैन  नकवी  ने  ख़िताब  किया।

मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी  पाकिस्तान  के  मुदीर (डायरेक्टर) हुज्जतुल  इस्लाम  वल  मुस्लेमीन  लियाक़त अली अवान  ने  कॉन्फ़्रेंस  की  निज़ामत (संचालन) की और  शुरुआत  में  प्रतिभागियों  का  स्वागत  करते  हुए  मरकज़  की  इल्मी  और  धार्मिक  गतिविधियों  पर  रौशनी  डाली।

कॉन्फ़्रेंस  के  पहले वक्ता  अहलेबैत (अ) के  शायर  जनाब  क़मर  हैदर  क़मर  थे। उन्होंने  नहजुल  बलाग़ा  पर  लिखी  एक  कविता  सुनाई  और  बीबी  ज़हरा (स) की  शान  में  यह अशआर  पेश  किये:

"फ़क़त  एक  लफ़्ज़  में  सारा  क़सीदा  लिख  दिया  मैं ने,

मुहम्मद  की  सना  पूछी  तो  ज़हरा  लिख  दिया  मैं ने,

किसी  ने  फिर  कहा  मुझ से  के अब  ज़हरा  की  मदह  लिख,

क़मर  बे‑साख़्ता 'उम्मे अबीहा'  लिख  दिया  मैं ने।"

हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  अली  मुर्तज़ा  ज़ैदी  ने अपने  ख़िताब  में  मुख़ातिबिन  को  धन्यवाद  देते  हुए  "मकतूब  नंबर 69"  का  ज़िक्र  किया और  बताया  कि  यह  मकतूब  अमीर‑अल‑मोमिनीन अली (अ) ने  हारिस  हमदानी  को  लिखा  था।

उन्होंने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) ने  उन्हें  हुक्म  दिया  था  कि "हमेशा  क़लम और  काग़ज़  हमेशा अपने  साथ  रखो  और  जो  मैं  इल्म  सिखाऊँ, उसे  लिख  लिया  करो।"

अहले‑सुन्नत  के  मशहूर  आलिम  मुफ़्ती  फ़ज़ल  हमदर्द  ने  अपनी  तक़रीर  में  कहा: "नहजुल  बलाग़ा  किताब‑ए‑वहदत  है, जो उम्मत‑ए‑मुसलिमा  को  मुत्तहिद (एक जुट) करने  वाली  किताब  है।"

उन्होंने  कहा  कि अहले‑सुन्नत  के  उलमा  ने  हमेशा  नहजुल  बलाग़ा  पर  काम  किया  है; अबुल  हुसैन  बैयहकी, फ़खरुद्दीन  राज़ी  और  मुफ़्ती  मुहम्मद  अब्दुह  जैसे  उलमा  ने  इसके  शरहें  लिखी  हैं।

आयतुल्लाह  सय्यद  अक़ील  अल‑ग़रवी  ने  अपने ऑनलाइन  ख़िताब  में  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन  के  कलाम  व  ख़ुत्बे  अपनी  ख़ास  शान  रखते हैं। 

उन्होंने  नहजुल  बलाग़ा  के  मौज़ू  पर  कवियों  के  कलाम  के  प्रकाशन  को बेहद  सराहनीय  कहा  और  इस  जैसे  कामों  को  आगे  बढ़ाने  पर  ज़ोर  दिया।

सरपरस्त  मरकज़‑ए‑अफ़कार  हुज्जतुल  इस्लाम  मक़बूल  हुसैन अलवी  ने अपने  ख़िताब  में  ख़ुत्बा  नंबर 180  का  ज़िक्र  किया  जिसे  अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) ने  कूफ़ा  में  बयान फ़रमाया  था। उन्होंने  बताया  कि  इमाम  ने  वह  ख़ुत्बा  ऊन के  जुब्बे  में  और  ख़जूर  की  छाल  से  बनी  तलवार  और  जूते  पहने  हुए  दिया  था  और दाढ़ी  पर  हाथ  रखकर  देर  तक  रोये।

उन्होंने  कहा  कि  इमाम  के  कलाम  की  तरह  यह  किताब  भी  मज़लूम  है। अब  हमारा  फ़र्ज़  है  कि  नहजुल  बलाग़ा  को दुनिया  के  हर  कोने  तक  पहुँचाएँ  और  नौजवानों  के  दिलों  में  अली (अ) के  कलाम  को  बसाएँ  ताकि  हमारा अली  ख़ुश  हो।

पाकिस्तान  के मशहूर  ख़तीब  प्रोफेसर  आबिद  हुसैन  ने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) का  यह  कलाम  हर  उस शख्स  के  लिए  है  जिस तक  यह  पहुँचे। उन्होंने  कहा कि  इमाम (अ) ने  फ़रमाया  था  कि  अगर  मैं  सिर्फ़  सूरह‑ए‑फ़ातिहा  की  तफ़सीर  लिखूँ, तो  उसका  वज़न  सत्तर  ऊँट  न  उठा  सकें।

यूके  से  आये  डॉ. इजाज़  हुसैन  ने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ)  ने  "अदल"  से  सिर्फ़  "जस्टिस" (न्याय) का  मतलब  नहीं  लिया  बल्कि "ट्रांसपेरेंट डिलिवरी ऑफ जस्टिस", यानि  ऐसा  निज़ाम  जहाँ  इंसाफ़  नज़र  भी  आए, वह  असल  अदल  है। कॉन्फ़्रेंस  के  अंत  में  पाकिस्तान  के  मशहूर  ख़तीब  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  शहनशाह  हुसैन  नकवी  ने  धन्यवाद  प्रस्तुत  किया  और  कहा: "मौला अली (अ)  हर  मैदान  में  'अली'  हैं। " उन्होंने  कहा  कि  अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ)  को  सबसे  अज़ीज़  मैदान  इल्म  का  मैदान  है। 'सलूनी सलूनी' का  मतलब  सिर्फ़  यह  नहीं  कि 'मुझसे पूछो इससे  पहले  कि  मैं  मर  जाऊँ' बल्कि  सही  मतलब  है 'मुझ से  पूछो  इससे  पहले  कि  तुम  मर  जाओ।'

कार्यक्रम  का  समापन  हुज्जतुल  इस्लाम  डॉ. दावूदानी  की  दुआ  से  हुआ।

ग़ौर तलब  है  कि  कॉन्फ़्रेंस  में  जामेआ‑तुल‑मुसतफ़ा  के  नुमाइंदे  हुज्जतुल  इस्लाम  हाजी  सय्यद  शम्सी पूर  ने  भी  शिरकत  की। बर‑ए‑सगीर  के  शायरों  के  कलाम  पर  मबनी  किताब  की  रिलीज़  भी  की  गई  जो  मुफ़्ती  फ़ज़ल  हमदर्द  को  मरकज़  की  जानिब  से  पेश  की  गई। अबूतालिब  ट्रस्ट  के  चेयरमैन  सय्यद  इक़बाल  शाह  ने  मेहमान‑ए‑ख़ुसूसी  को  एहतेरामी  शील्ड्स  भेंट कीं। इसके अलावा  मारकज़  की  ओर  से  आलिम  शहनशाह  हुसैन  नकवी  को  नहजुल  बलाग़ा  की  तौसीअ  में  उनकी  ख़िदमतों  के  लिए  एहतेरामी  शील्ड  भी  दी  गई।