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इराकी राष्ट्रपति अब्दुल लतीफ जमाल राशिद ने शुक्रवार को एक पत्र में शिया नेता और सद्र आंदोलन के प्रमुख सैयद मुक्तदा अल-सद्र से आगामी आम चुनावों में भाग लेने की अपील की।

इराकी राष्ट्रपति अब्दुल लतीफ़ जमाल रशीद ने शुक्रवार को एक पत्र में शिया नेता और सद्र आंदोलन के प्रमुख सैयद मुक्तदा अल-सदर से आगामी आम चुनावों में भाग लेने की अपील की।

अपने संदेश में राष्ट्रपति ने मुक्तदा अल-सदर से अनुरोध किया कि वे चुनावों का बहिष्कार करने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें तथा राष्ट्रीय राजनीतिक प्रक्रिया में पुनः शामिल हों।

याद रहे कि मुक्तदा अल-सद्र ने पिछले महीने घोषणा की थी कि वह आगामी चुनावों में भाग नहीं लेंगे। उन्होंने इस निर्णय के लिए देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और भ्रष्ट तत्वों की मौजूदगी को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि इराक इस समय सबसे गंभीर स्थिति से गुजर रहा है और "अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।"

यह ध्यान देने योग्य है कि मुक्तदा अल-सदर ने भी जून 2022 में राजनीति से खुद को अलग कर लिया और अपने संसदीय गठबंधन के सभी 73 सदस्यों के इस्तीफे प्राप्त कर लिए, ताकि वे उन राजनेताओं से खुद को दूर कर सकें जिन्हें वे भ्रष्ट मानते हैं।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में वक्फ अधिनियम में संशोधन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान 110 से अधिक भारतीय मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में वक्फ अधिनियम में संशोधन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान 110 से अधिक मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया।

इस संबंध में एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि हिंसा के सिलसिले में सोती से करीब 70 और संसार गैंग से 41 लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

भारतीय अधिकारियों ने जोर देकर कहा कि हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है, लेकिन किसी अप्रिय घटना की खबर नहीं है।जंगपुर के सोती और संसारगंग इलाकों में स्थिति अब नियंत्रण में है और दंगा रोधी बलों ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया है।

हालिया विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस की गाड़ियों सहित कई वाहनों में आग लगा दी गई, सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंके गए और सड़कें अवरूद्ध कर दी गईं।

पूर्वी रेलवे द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, लगभग 5,000 लोग एकत्र हुए और धूलियानगंगा और निमटीटा स्टेशनों के बीच रेलवे ट्रैक पर धरना दिया, जिससे ट्रेन सेवाएं बाधित हुईं।

पाकिस्तान ने फ़िलिस्तीन के उद्देश्य के प्रति अपने अडिग और ऐतिहासिक प्रतिबद्धता को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कोशिशों पर चेतावनी दी है और साफ़ कहा है कि इस्लामाबाद इस्राईल विरोधी अपने रुख पर कायम है और इस्राईल को मान्यता नहीं देता।

बुधवार को पाकिस्तान विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता कार्यालय से जारी बयान के अनुसार, इस देश ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में पारित फ़िलिस्तीन से संबंधित प्रस्ताव को लेकर मीडिया में आ रही कुछ अटकलों को खारिज किया और उन रिपोर्टों को गलत बताया।

बयान में कहा गया है कि यह प्रस्ताव ओआईसी (इस्लामी सहयोग संगठन) के प्रतिनिधियों के सालाना संयुक्त प्रयास का हिस्सा है, जो फ़िलिस्तीन के कब्जे वाले इलाकों में इस्राईली कार्यवाहियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।

निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार, यह प्रस्ताव तब तक प्रस्तुत नहीं किया जाता जब तक फ़िलिस्तीनी प्रतिनिधिमंडल उसके मसौदे से पूर्ण रूप से सहमत न हो जाए और पूरे ओआईसी समूह की अंतिम स्वीकृति प्राप्त न हो जाए। फ़िलिस्तीन के कब्जे वाले क्षेत्रों से जुड़े प्रस्ताव फ़िलिस्तीनी प्राथमिकताओं के आधार पर तय होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से ओआईसी द्वारा अनुमोदित किया जाता है।किसी भी चरण में प्रस्ताव के मसौदे में एकतरफा संशोधन नहीं किया जाता। हाल ही में मानवाधिकार परिषद में पारित प्रस्ताव भी इसी प्रक्रिया के अनुरूप था।

पाकिस्तान विदेश मंत्रालय ने दोहराया कि पाकिस्तान इस्राईल को एक देश के रूप में मान्यता नहीं देता और बहुपक्षीय मंचों पर उससे कोई संपर्क नहीं रखता। इसलिए, किसी भी ऐसे सुझाव या अटकलें कि प्रस्ताव को इस्राईल की प्राथमिकताओं के अनुरूप ढालने की कोशिश की गई पूरी तरह निराधार हैं।

न्यूयॉर्क और जिनेवा में पाकिस्तान के प्रतिनिधि ओआईसी के निर्णयों के अनुसार फ़िलिस्तीनी रुख के साथ पूरी तरह समन्वित हैं। इस्लामाबाद ने चेतावनी दी है कि पाकिस्तान की फ़िलिस्तीन के उद्देश्य के प्रति अडिग और ऐतिहासिक प्रतिबद्धता को तोड़ने की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

पाकिस्तान की नेशनल असेंबली (संसद) के सदस्यों ने एक संयुक्त प्रस्ताव पारित कर ग़ज़ा में इस्राईली अपराधों की निंदा की और फ़िलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता दिखाई।

पाकिस्तान के कानून मंत्री, सिनेटर आज़म नज़ीर तारड़, ने संसद में कहा कि पाकिस्तान की सरकार और जनता, देश के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की फ़िलिस्तीन की स्वतंत्रता के समर्थन वाली सोच के प्रति प्रतिबद्ध है और इस्राईल को एक जाली और अवैध शासन मानती है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि इस्राईली शासन ने ग़ाज़ा के 70% क्षेत्र को जबरदस्ती खाली करवाने का आदेश दिया है या उसे निषिद्ध इलाका घोषित कर दिया गया है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि इस्राईली शासन ने ग़ाज़ा के 70% क्षेत्र को जबरदस्ती खाली करवाने का आदेश दिया है या उसे निषिद्ध इलाका घोषित कर दिया गया है।

अल जज़ीरा के हवाले से बताया कि गुटेरेस ने अपने एक्स (Twitter) पेज पर लिखा है,हमें गहरी चिंता है क्योंकि राहत सामग्री पहुँचाने की प्रक्रिया लगातार बाधित है और इसके परिणाम बहुत ही विनाशकारी हो सकते हैं।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि,आम नागरिकों की सुरक्षा, उनका सम्मान और उन्हें ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी बुनियादी चीज़ें हर हाल में मुहैया कराना अनिवार्य है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने यह भी कहा कि,गाज़ा में रखे गए इस्राईली युद्ध बंदियों को तुरंत और बिना किसी शर्त के रिहा किया जाए और ग़ज़ा में तत्काल युद्धविराम लागू किया जाए।ये बयान ऐसे समय आया है जब ग़ज़ा में मानवीय संकट अपने चरम पर है और लाखों लोग बेघर और भूख-प्यास का सामना कर रहे हैं।

हौज़ा हाए इल्मिया के निदेशक ने कहा: क़ुम न केवल ईरान में सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और धार्मिक केंद्रों में से एक है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसका प्रभाव है, और इसका प्रभाव बुनियादी बौद्धिक विचारों से शुरू होता है जो अन्य क्षेत्रों में भी प्रभावी हैं।

हौज़ा हाेए इल्मिया के निदेशक आयतुल्लाह अली रजा आराफी ने ईरान दूरसंचार कंपनी के उपाध्यक्ष और क़ुम प्रांत में इसके नए प्रमुख के साथ बैठक के दौरान कहा: "दूरसंचार संस्थान अक्सर देशों की प्रगति और विकास में एक मौलिक और आवश्यक भूमिका निभाती हैं।"

उन्होंने कहा: क़ुम न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी एक विशिष्ट स्थान रखता है, और हमारी राय में, कुछ पहलुओं में, इस शहर को देश में प्राथमिकता प्राप्त है क्योंकि यह विचार और ज्ञान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण केंद्र है जिसका पिछली शताब्दी में ईरान, क्षेत्र और दुनिया पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

हौज़ा हाए इल्मिया के निदेशक ने कहा: क़ुम न केवल ईरान में सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और धार्मिक केंद्रों में से एक है, बल्कि इसका वैश्विक स्तर पर भी प्रभाव है, और इसका प्रभाव बुनियादी बौद्धिक विचारों से शुरू होता है जो अन्य क्षेत्रों में भी प्रभावी हैं।

उन्होंने आगे कहा: इस्लामी क्रांति के बाद हौज़ा ए इल्मिया के पुनरुद्धार से उल्लेखनीय प्रगति और विकास हुआ है, और आज हौज़ा से संबद्ध 300 से अधिक शैक्षिक और अनुसंधान केंद्र क़ुम में सक्रिय हैं, जिनमें छात्रों, शोधकर्ताओं और शिक्षकों सहित एक व्यापक शैक्षणिक और अनुसंधान समुदाय है।

आयतुल्लाह आराफ़ी ने कहा: क़ुम न केवल ईरान में बल्कि पूरे विश्व में इस्लामी विज्ञान के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में जाना जाता है, और यह शहर दुनिया भर के एक हजार से अधिक वैज्ञानिक और धार्मिक केंद्रों के साथ निरंतर संपर्क में है।

ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माईल बकाई ने फ़िलिस्तीन के कब्ज़े वाले इलाकों, खासकर ग़ाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में इस्राईली शासन के हमलों, आम नागरिकों, महिलाओं और बच्चों की बेरहमी से हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की है।

बकाई ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार प्रतिनिधि, अंतरराष्ट्रीय जांच आयोग, डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स, FAO, UNICEF और UNRWA जैसी कई संस्थाओं की रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा कि,इस्राईली शासन द्वारा फ़िलिस्तीनियों की हत्या, स्वास्थ्य केंद्रों और बुनियादी ढांचे पर हमले, मानवीय सहायता और ज़रूरी वस्तुओं की रोकथाम, ग़ाज़ा की पूरी नाकाबंदी, पानी, बिजली और ईंधन की कटौती और फ़िलिस्तीनियों की सामूहिक हत्या न केवल युद्ध अपराध हैं, बल्कि मानवता के खिलाफ किए गए स्पष्ट अपराध हैं। इस्राईली अधिकारियों और नेताओं को इन अपराधों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के हालिया बयानों का हवाला देते हुए कहा कि ग़ाज़ा की तबाह होती स्थिति में सबसे ज़्यादा प्रभावित बच्चे और महिलाएं हैं, जिन्हें लगातार बमबारी, महामारी और मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन का सामना करना पड़ रहा है।यह सब एक संगठित योजना के तहत हो रहा है जिसका मक़सद फ़िलिस्तीनी लोगों की आवाज़ को दबाना और उनकी पहचान को मिटाना है।

प्रवक्ता ने कहा,इस्राईली शासन जानबूझकर राहतकर्मियों और पत्रकारों को निशाना बना रहा है ताकि ग़ाज़ा के पीड़ित लोगों की आवाज़ को दुनिया तक पहुंचने से रोका जा सके। लेकिन फ़िलिस्तीनी पत्रकारों की बहादुरी, ‘नरसंहार बंद करो’ जैसे वैश्विक अभियानों, स्वतंत्र मीडिया और विश्वभर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों ने इन अपराधों को उजागर करने का एक नया मंच प्रदान किया है।

अंत में बकाई ने उन संस्थाओं, मीडिया संगठनों और प्रदर्शनकारियों का शुक्रिया अदा किया जो फ़िलिस्तीन के पीड़ितों की आवाज़ बन रहे हैं। उन्होंने सभी सरकारों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों, मानवाधिकार निकायों और खासकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से अपील की है वो तुरंत और निर्णायक क़दम उठाएं ताकि इन भयावह अपराधों को रोका जा सके और ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा दिलाई जा सके।

मालदीव ने इसराइली पासपोर्ट पर देश में एंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया है. ये प्रतिबंध मालदीव इमिग्रेशन एक्ट में तीसरे संशोधन के तहत लगाया गया है।

मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने मंगलवार 15 अप्रैल, 2025 को मालदीव इमिग्रेशन एक्ट में तीसरे संशोधन को मंज़ूरी दी है।

इस संशोधन के ज़रिए इमिग्रेशन एक्ट में एक नया प्रावधान लाया गया है. इसके तहत मालदीव गणराज्य में इसराइली पासपोर्ट रखने वाले व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया है।

ये जानकारी मालदीव के राष्ट्रपति कार्यालय की ओर से जारी प्रेस रिलीज में दी गई है. इसमें कहा गया है कि ये प्रतिबंध फ़िलस्तीनी लोगों पर इसराइल के अत्याचार और नरसंहार के जवाब में मालदीव सरकार की प्रतिबद्धता को दिखाता है।

बता दें कि ग़ाज़ा में इसराइली सेना के हमलों के विरोध में बांग्लादेश ने अपने नागरिकों के इसराइल जाने पर रोक लगाई है।बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने पासपोर्ट और इमिग्रेशन डिपार्टमेंट को ये निर्देश दिया है कि पासपोर्ट पर फिर से ‘इसराइल के लिए मान्य नहीं’ लिखना शुरू किया जाए।

2021 में शेख़ हसीना सरकार ने पासपोर्ट्स से ये लाइन हटाने का निर्देश दिया था. उस समय अधिकारियों ने कहा था कि ऐसा दस्तावेज़ के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को बनाए रखने के लिए किया गया है।

ज़ाहेदान में "मुंजी और नेजात बख्श" शीर्षक से आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय कांफ़्रेंस में बोलते हुए ईरानी ईसाई नेता आर्कबिशप वान्या सर्गेज़ ने कहा कि अदयाने इलाही मुंजी ए आलम के तसव्वुर में एकजुट हैं, वो मुंजी जो ज़ुल्म और अन्याय के सामने आशा की किरण है।

ज़ाहेदान में सिस्तान और बलूचिस्तान विश्वविद्यालय में "अदयाने तौहीदी मे मुंजी ए मौऊद का तसव्वुर" शीर्षक से एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें विभिन्न धर्मों के धर्मगुरूओ और बुद्धिजीवियों ने भाग लिया। इस अवसर पर, ईसाई नेता और आर्कबिशप खलीफा गुरी के उत्तराधिकारी बिशप वान्या सर्गेज़ ने मुंजी के तसव्वुर को अदयाने तौहीदी मे एक आम मान्यता घोषित किया।

उन्होंने कहा: "मुंजी पर ईमान, ज़ुल्म और निराशा के अंधेरे में आशा का दीपक है जो मानवता को मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करता है।" उन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की व्याख्या करते हुए कहा कि मनुष्य सदैव से ही अत्याचार, अन्याय और भेदभाव का शिकार रहा है और ऐसी परिस्थितियों में किसी मुंजी के ज़ोहूर होने पर विश्वास मनुष्य को साहस और संबल प्रदान करता है।

धर्मों के परिप्रेक्ष्य से व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम सभी मुंजी की अवधारणा पर सहमत हैं, हालांकि व्याख्याएं भिन्न हो सकती हैं। "यहूदी धर्म में मसीहा का तसव्वुर है, ईसाई धर्म का मानना ​​है कि यीशु वादा किए गए मुंजी हैं जो फिर से आएंगे, और इस्लाम महदी (अ) के जोहूर होने में विश्वास करता है, जो झूठ के खिलाफ यीशु के साथ खड़े होंगे।"

पादरी वान्या सर्गेज़ ने इस्लामी शिक्षाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस्लाम में प्रतीक्षा करना एक सक्रिय प्रक्रिया है, जिसमें विश्वासी को आत्म-सुधार, न्याय की स्थापना और उत्पीड़ितों की सहायता के माध्यम से उभरने के लिए आधार प्रदान करना होता है।

उन्होंने सभी धर्मों से समान मानवीय मूल्यों पर एकजुट होने तथा विश्व में न्याय एवं शांति स्थापित करने के लिए प्रयास करने का आह्वान किया।

अपने अपने संबोधन के अंत में उन्होंने सीरिया, इराक, लेबनान और फिलिस्तीन सहित पूरे विश्व में शांति के लिए दुआ की तथा ईरान की सुरक्षा और सर्वोच्च नेता की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं व्यक्त कीं।

राष्ट्रपति की मुहर के बाद, वक्फ संशोधन विधेयक ने कानूनी रूप ले लिया है। भारत का बच्चा-बच्चा यह अच्छी तरह जानता था कि इस विधेयक को पारित होने से नहीं रोका जा सकता, क्योंकि मुसलमानों के पास विरोध के लिए कोई संगठित कार्ययोजना नहीं थी। हर किसी के पास अपना ढोल और अपना राग था। मुसलमानों की त्रासदी यह है कि जब उन्हें प्रतिरोध करना चाहिए, तब वे योजना बनाने में व्यस्त रहते हैं और जब उन्हें रणनीति पर विचार-विमर्श करना चाहिए, तब वे प्रतिरोध कर रहे होते हैं।

राष्ट्रपति की की मुहर के वक्फ संशोधन विधेयक कानून बन गया है। भारत का बच्चा-बच्चा यह अच्छी तरह जानता था कि इस विधेयक को पारित होने से नहीं रोका जा सकता, क्योंकि मुसलमानों के पास इसका विरोध करने के लिए कोई संगठित कार्ययोजना नहीं थी। हर किसी के पास अपना ढोल और अपना राग था। मुसलमानों की त्रासदी यह है कि जब उन्हें प्रतिरोध करना चाहिए, तब वे योजना बनाने में व्यस्त रहते हैं और जब उन्हें रणनीति पर विचार-विमर्श करना चाहिए, तब वे प्रतिरोध कर रहे होते हैं। उनके पास न तो प्रतिरोध के लिए कोई कार्ययोजना है और न ही रणनीति तैयार करने के लिए ईमानदार लोग हैं। उनके अधिकांश संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के लोगों से भरे हुए हैं जो उनके एजेंडे पर काम करते हैं। मुसलमानों को यह उम्मीद थी कि वक्फ बिल के खिलाफ शाहीन बाग जैसा आंदोलन खड़ा हो जाएगा।

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का मुद्दा पूरे भारत से जुड़ा था, इसके बावजूद देश की एक बड़ी आबादी इसके पक्ष में थी। वक्फ का मुद्दा अंततः मुसलमानों से ही संबंधित है। दूसरी बात यह कि वक्फ का मुद्दा आम मुसलमानों से जुड़ा नहीं है और न ही इसे सार्वजनिक करने का कोई प्रयास किया गया। इसका एक कारण वक्फ का सार्वजनिक हित में उपयोग न होना है। अगर वक्फ से जनता को सीधा लाभ मिल रहा होता तो लोग तुरंत विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आते। हालांकि, मुस्लिम नेताओं ने धार्मिक इमारतों के बहाने इस विधेयक को जन भावनाओं से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली।

वक्फ विधेयक के खिलाफ विरोध की आवाज उठाने वालों में से अधिकांश लोग वक्फ पर नियंत्रण रखते हैं। ये लोग वक्फ को अपनी निजी संपत्ति मानते हैं और अपनी इच्छानुसार इसका उपयोग करते हैं। जब कोई इसके खिलाफ आवाज उठाता है तो यह वर्ग इस विरोध को राष्ट्रीय रंग देने की कोशिश करता है ताकि देश को इनके समर्थन में सड़कों पर उतारा जा सके। इस प्रकार यह वर्ग अपने निजी लाभ के लिए राष्ट्र का भावनात्मक शोषण करता है, जैसा कि विभिन्न राज्यों में देखा गया है। मुस्लिम नेताओं का बड़े वक्फों पर नियंत्रण है। अगर ये लोग सच्चे होते तो वक्फ का इस्तेमाल वक्फ नामों के रूप में करते, लेकिन वक्फ नाम कभी नहीं रखे गए। वक्फ के विनाश में वक्फ बोर्ड, सरकार और संबंधित मंत्रालय की भूमिका वक्फ बोर्ड, सरकार और संबंधित मंत्रालय की भूमिका से कहीं अधिक है। इस भ्रष्टाचार को रोकना सरकार की जिम्मेदारी थी क्योंकि वक्फ बोर्ड उसके अधीन आता है। लेकिन न तो वक्फ बोर्ड और न ही सरकार ने इस जिम्मेदारी को समझा। सरकार ने सारे भ्रष्टाचार का दोष मुसलमानों पर मढ़ा। वक्फ बोर्ड का सिर पहले ही फूट चुका है, इसलिए अब वक्फ बोर्ड भी इसमें निर्दोष है और सरकार भी निर्दोष है। मुसलमानों से वक्फ बोर्ड में भ्रष्टाचार के बारे में सवाल नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि वक्फ बोर्ड सरकार की देखरेख में बनता और बिगड़ता है। मुसलमान वक्फ बोर्ड में अपनी पसंद का सदस्य नहीं बना सकते, ऐसे व्यक्ति को तो छोड़ ही दीजिए जो राष्ट्रहित में योजना बना सके। वक्फ बोर्ड का अध्यक्ष सरकार का प्रतिनिधि होता है, इसलिए वह अपने कार्यकाल के दौरान सरकारी परियोजनाओं को क्रियान्वित करने का प्रयास करता है। राष्ट्र के हितों और वक्फ की शर्तों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। वक्फ की जो जमीनें अवैध तरीके से बेची गई हैं, उसके लिए अकेले ट्रस्टियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ट्रस्टियों के साथ-साथ वक्फ बोर्ड के सदस्य और अधिकतर जगहों पर चेयरमैन भी इसमें शामिल होते हैं। यह प्रक्रिया पूरे भारत में चल रही है, किसी एक राज्य को निशाना नहीं बनाया जा सकता। अधिकांश राज्यों में मुसलमान वक्फ में भ्रष्टाचार के बारे में चुप रहते हैं क्योंकि उन्हें वक्फ से कोई लाभ नहीं मिलता। सार्वजनिक उपयोग में केवल वे ही वक्फ हैं जिनमें धार्मिक इमारतें बनी हैं, लेकिन वहां भी वक्फ बोर्ड की गतिविधियां अत्यधिक बढ़ गई हैं। ट्रस्टी का दर्जा किसी तानाशाह से कम नहीं है, क्योंकि उसे वक्फ बोर्ड का समर्थन प्राप्त है। इन वक्फों में मस्जिदें, खानकाह, दरगाह, मजारें और इमाम बाड़े शामिल हैं। कुछ समितियां केवल नाम के लिए बनाई गई हैं, जबकि उनका सारा काम वक्फ बोर्ड देखता है। यहां तक ​​कि जब कोई कार्यक्रम आयोजित होता है तो समिति को अपनी इच्छा से अतिथियों को चुनने की अनुमति नहीं होती। वक्फ बोर्ड इसमें हस्तक्षेप करता है या अपनी पसंद के किसी असंबंधित व्यक्ति को समिति में शामिल कर लेता है। चूंकि समिति के सदस्य भी वक्फ के प्रति ईमानदार नहीं हैं या उनमें जागरूकता की कमी है, इसलिए यह अवैध प्रथा फल-फूल रही है।

 

मुसलमानों ने ही सरकार को वक्फ की जमीनों पर कब्जा करने का मौका दे दिया है। इसके लिए मुस्लिम राजनीतिक नेताओं से ज्यादा उलेमा जिम्मेदार हैं। इसलिए नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को कोसने की बजाय खुदएहतेसाबी की जरूरत है। भाजपा के समर्थन में जी-जान से जुटे उलेमा को बताना चाहिए कि उन्होंने वक्फ विधेयक को कानून बनने से रोकने के लिए क्या प्रभावी कदम उठाए। उनमें से अधिकांश को वक्फ के मुद्दों की जानकारी भी नहीं है, इसलिए उन्हें संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष पेश होने से बचना चाहिए था। लेकिन यह देखा गया कि हर कोई जेपीसी द्वारा आमंत्रित किये जाने की जल्दी में था ताकि वे उलेमा और लोगों के बीच अपना प्रतिनिधित्व साबित कर सकें। कुछ नये मौलवी भी जेपीसी के समक्ष उपस्थित हुए, हालांकि उन्हें वक्फ के सतही मुद्दों के अलावा ज्यादा कुछ पता नहीं था। उन्हें मामले की संवेदनशीलता का अंदाजा होना चाहिए था कि वक्फ बिल की समीक्षा के लिए जेपीसी का गठन किया गया है, इसलिए उनकी उपस्थिति चिंता का विषय थी।

 

उन्हें लागू कानून और संशोधन विधेयक की पूरी जानकारी होनी चाहिए। इसके अलावा, उन्हें हर राज्य में या कम से कम अपने राज्य में वक्फ के मौजूदा मुद्दों के बारे में पता होना चाहिए था, लेकिन हमने जिन लोगों को बात करते सुना, वे सभी वक्फ विधेयक पर सरसरी तौर पर टिप्पणी कर रहे थे। चूंकि मुसलमानों के पास कोई प्रतिनिधि नेतृत्व नहीं था, इसलिए हर कोई अपने-अपने नेतृत्व का दावा कर रहा था। विरोध प्रदर्शनों में एक संगठित कार्ययोजना की भी आवश्यकता थी, जिसका अभाव देखा गया। कम से कम मुस्लिम विद्वान, चाहे वे किसी भी संप्रदाय के हों, एक मंच पर इकट्ठा होते और सरकार से वक्फ विधेयक को वापस लेने की मांग करते। लेकिन सामान्य निमंत्रण के अलावा विभिन्न संप्रदायों के विद्वानों को अंधाधुंध तरीके से आमंत्रित नहीं किया गया था। आखिर यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि विद्वान बिना किसी विशेष आमंत्रण के किसी बैठक या विरोध प्रदर्शन में भाग लेंगे? क्या विद्वानों को अपने समुदाय के स्वार्थ का ज्ञान नहीं है? इसलिए, सामान्य घोषणा के साथ-साथ सभी संप्रदायों को, चाहे वे किसी भी संप्रदाय के हों, विशेष निमंत्रण भेजे जा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसीलिए वक्फ विधेयक के खिलाफ कोई प्रतिनिधि विरोध नहीं हुआ।

 

मुसलमानों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वक्फ संशोधन अधिनियम को वापस लेना आसान नहीं बल्कि असंभव प्रक्रिया है। सरकार ने इस विधेयक को ‘राष्ट्रीय हित’ से जोड़ा है। भारत का आम नागरिक यह मानता है कि वक्फ पर सरकारी नियंत्रण से देश की आर्थिक और वित्तीय समस्याएं हल हो जाएंगी। बेशक, यह झूठ है, लेकिन जिस देश में मोदीजी और अमित शाह के हर बयान को तर्क माना जाता है, वहां उनका जादू तोड़ना आसान नहीं है। वर्तमान में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इतिहास, अर्थशास्त्र, प्रौद्योगिकी, दूसरे शब्दों में कहें तो हर क्षेत्र के विशेषज्ञों से अधिक जानकार और अनुभवी हैं। उनके खिलाफ बोलना अपने गुस्से को जाहिर करना है। ऐसी चिंताजनक स्थिति में सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करना समय की मांग के खिलाफ है। बेहतर होगा कि मुसलमान पहले अपने बीच एकता कायम करें। उनकी समस्याओं के समाधान के लिए एक सशक्त नेतृत्व का सृजन किया जाना चाहिए। नेतृत्व के बिना न तो विरोध प्रभावी होता है और न ही आपकी आवाज सरकार के कानों तक पहुंचती है। केवल विरोध के लिए विरोध करना सिर्फ 'बुलडोजर संस्कृति' को बढ़ावा देगा और युवाओं पर झूठे मुकदमे थोपेगा। बेशक, यह प्रतिरोध का समय है, लेकिन नेतृत्व और व्यवस्थित कार्य योजना के बिना सफलता की कोई उम्मीद नहीं है!

लेखक: आदिल फ़राज़

वर्तमान युग में मुसलमानों के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठ खड़ा हुआ है कि क्या ज़ियारत जैसे आध्यात्मिक कार्यों को प्राथमिकता दी जाए या फिर इंफ़ाक को, दूसरों की सेवा करना और कल्याणकारी कार्य जैसी सामाजिक आवश्यकताओं को?

 

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान युग में मुसलमानों के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा हुआ है: क्या ज़ियारत जैसे आध्यात्मिक कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए या फिर इंफ़ाक़ को, दूसरों की सेवा करना और कल्याणकारी कार्य जैसी सामाजिक आवश्यकताओं को? इस प्रश्न पर हौज़ा न्यूज़ से बात करते हुए अखलाक़ी शुबहात के विशेषज्ञ हुज्जतुल इस्लाम रजा पारचाबाफ़ ने व्यापक तरीके से प्रकाश डाला।

 

उन्होंने कहा कि इस प्रश्न के उत्तर के लिए आध्यात्मिक भक्ति और मानवीय जिम्मेदारियों के बीच एक नाजुक संतुलन स्थापित करना आवश्यक है। इस्लाम में ज़ियारत न केवल एक मुस्तहब अमल है, बल्कि इसे आत्मा को शुद्ध करने, विश्वास को मजबूत करने और ज्ञान प्राप्त करने का साधन भी माना जाता है।

 

ज़ियारत की धार्मिक हैसीयत

 

इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार मक्का और कर्बला जैसे पवित्र स्थानों की ज़ियारत करना सवाब का स्रोत माना जाता है। इमाम अली रज़ा (अ) फ़रमाते हैं:

"जो कोई भी दूरी के बावजूद मेरी ज़ियारत को आएगा, मैं क़यामत के दिन तीन जगहों पर उसकी सहायता के लिए आऊंगा: जब आमाल की किताबें बांटी जाएंगी, तराजू में और सीरत में।"

पवित्र क़ुरआन भी अहले बैत (अ) की मोहब्बत को दीन का अज्र माना है:

قُل لا أَسْئَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَى क़ुल ला अस्अलोकुम अलैहे अजरन इल्लल मद्दता फ़िल क़ुर्बा।' (सूरा शूरा: 23)

ज़ियारत के सामाजिक प्रभाव

हुज्जतुल इस्लाम पारचाबाफ़ के अनुसार, ज़ियारत न केवल व्यक्तिगत प्रशिक्षण का साधन है, बल्कि यह मुसलमानों में एकता, भाईचारे और धार्मिक जागरूकता को भी बढ़ावा देती है।

इंफ़ाक़ और कल्याणकारी कार्यों का महत्व

इस्लाम एक व्यापक धर्म है जो इबादत के साथ-साथ सामाजिक जिम्मेदारियों पर भी जोर देता है। पवित्र कुरान में इंफ़ाक़ को सबसे अच्छा कर्म माना गया है:

"مَثَلُ الَّذِينَ يُنْفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ..  मसलुल लज़ीना युंफ़ेक़ूना अमवालहुम फ़ी सबीलिल्लाहे ..." (अल-बक़रा: 261)

स्कूल, अस्पताल बनवाना, गरीबों की मदद करना और सामाजिक समस्याओं का समाधान करना धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

प्राथमिकात का आधार क्या है?

हुज्जतुल इस्लाम पारचाबाफ़ के अनुसार, प्राथमिकता का निर्धारण व्यक्ति की वित्तीय स्थिति, इरादों और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए:

यदि कोई आर्थिक रूप से सीमित है, तो बेहतर है कि पहले सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा किया जाए।

 

यदि ज़ियारत किसी व्यक्ति के जीवन में आध्यात्मिक क्रांति ला सकती है, तो यह भी महत्वपूर्ण है।

दोनों कार्य अच्छे हैं, वे विरोधाभासी नहीं हैं, लेकिन उनमें संतुलन और संयम की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

इस्लाम में ज़ियारत और इंफ़ाक़ दोनों ही महत्वपूर्ण और पुण्यदायी कार्य हैं। एक मुसलमान को अपनी परिस्थितियों, इरादों और सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संतुलित निर्णय लेना चाहिए, ताकि न केवल वह आध्यात्मिकता प्राप्त करे, बल्कि समाज भी उसके अस्तित्व से लाभान्वित हो।