رضوی

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जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) और जनाबे ख़दीजतुल कुबरा (स.अ.व.व.) की नवासीयां , हज़रत अबू तालिब (अ.स.) व फ़ात्मा बिन्ते असद (स.अ.व.व.) की पोतियां हज़रत अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) की बेटियां इमाम हसन (अ.स.) व इमाम हुसैन (अ.स.) की हकी़की़ और हज़रत अब्बास (अ.स.) व जनाबे मोहम्मदे हनफ़िया की अलाती बहनें थीं। इस सिलसिले के पेशे नज़र जिसकी बालाई सतह में हज़रत हमज़ा , हज़रत जाफ़रे तैय्यार , हज़रत अब्दुल मुत्तलिब और हज़रत हाशिम भी हैं। इन दोनों बहनों की अज़मत बहुत नुमाया हो जाती है।

यह वाक़ेया है कि जिस तरह इनके आबाओ अजदाद , माँ बाप और भाई बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं इसी तरह यह दो बहने भी बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं। ख़ुदा ने इन्हें जिन ख़ानदानी सेफ़ात से नवाज़ा है इसका मुक़तज़ा यह है कि मैं यह कहूं कि जिस तरह अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के फ़रज़न्द ला जवाब हैं इसी तरह इनकी दुख़्तरान ला जवाब हैं , बेशक जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम मासूम न थीं लेकिन इनके महफ़ूज़ होने में कोई शुब्हा नहीं जो मासूम के मुतरादिफ़ है। हम ज़ैल में दोनों बहनों का मुख़्तसर अलफ़ाज़ में अलग अलग ज़िक्र करते हैं।

हज़रत ज़ैनब की विलादत

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब बिन्ते अमीरल मोमेनीन (अ.स.) 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में पैदा हुईं जैसा कि ‘‘ ज़ैनब अख़त अल हुसैन ’’ अल्लामा मोहम्मद हुसैन अदीब नजफ़े अशरफ़ पृष्ठ 14 ‘‘ बतालता करबला ’’ डा 0 बिन्ते अशाती अन्दलसी पृष्ठ 27 प्रकाशित बैरूत ‘‘ सिलसिलातुल ज़हब ’’ पृष्ठ 19 व किताबुल बहरे मसाएब और ख़साएसे ज़ैनबिया इब्ने मोहम्मद जाफ़र अल जज़ारी से ज़ाहिर है। मिस्टर ऐजाज़ुर्रहमान एम 0 ए 0 लाहौर ने किताब ‘‘ जै़नब ’’ के पृष्ठ 7 पर 5 हिजरी लिखा है जो मेरे नज़दीक सही नहीं। एक रवायत में माहे रजब व शाबान एक में माहे रमज़ान का हवाला भी मिलता है। अल्लामा महमूदुल हुसैन अदीब की इबारत का मतन यह है। ‘‘ फ़क़द वलदत अक़ीलह ज़ैनब फ़िल आम अल सादस लिल हिजरत अला माअ तफ़क़ा अलमोरेखून अलैह ज़ालेका यौमल ख़ामस मिन शहरे जमादिल अव्वल अलख़ ’’ हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) जमादील अव्वल 6 हिजरी में पैदा हुईं। इस पर मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। मेरे नज़दीक यही सही है। यही कुछ अल वक़ाएक़ व अल हवादिस जिल्द 1 पृष्ठ 113 प्रकाशित क़ुम 1341 ई 0 में भी है।

हज़रत ज़ैनब की विलादत पर हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व.) का ताअस्सुर वक्त़े विलादत के मुताअल्लिक़ जनाबे आक़ाई सय्यद नूरूद्दीन बिन आक़ाई सय्यद मोहम्मद जाफ़र अल जज़ाएरी ख़साएस ज़ैनबिया में तहरीर फ़रमाते हैं कि जब हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) मुतावल्लिद हुईं और उसकी ख़बर हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व.) को पहुँची तो हुज़ूर जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि ऐ मेरी राहते जान , बच्ची को मेरे पास लाओ , जब बच्ची रसूल (स.अ.व.व.) की खि़दमत में लाई गई तो आपने उसे सीने से लगाया और उसके रूख़सार पर रूख़सार रख कर बे पनाह गिरया किया यहां तक की आपकी रीशे मुबारक आंसुओं से तर हो गई। जनाबे सय्यदा ने अर्ज़ कि बाबा जान आपको ख़ुदा कभी न रूलाए , आप क्यों रो पड़े इरशाद हुआ कि ऐ जाने पदर , मेरी यह बच्ची तेरे बाद मुताअद्दि तकलीफ़ों और मुख़तलिफ़ मसाएब में मुबतिला होगी। जनाबे सय्यदा यह सुन कर बे इख़्तियार गिरया करने लगीं और उन्होंने पूछा कि इसके मसाएब पर गिरया करने का क्या सवाब होगा ? फ़रमाया वही सवाब होगा जो मेरे बेटे हुसैन के मसाएब के मुतासिर होने वाले का होगा इसके बाद आपने इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखा।(इमाम मुबीन पृष्ठ 164 प्रकाशित लाहौर) बरवाएते ज़ैनब इबरानी लफ़्ज़ है जिसके मानी बहुत ज़्यादा रोने वाली हैं। एक रवायत में है कि यह लफ़्ज़ जै़न और अब से मुरक्कब है। यानी बाप की ज़ीनत फिर कसरते इस्तेमाल से ज़ैनब हो गया। एक रवायत में है कि आं हज़रत (स.अ.व.व.) ने यह नाम ब हुक्मे रब्बे जलील रखा था जो ब ज़रिए जिब्राईल पहुँचा था।

विलादते ज़ैनब पर अली बिन अबी तालिब (अ.स.) का ताअस्सुर

डा 0 बिन्तुल शातमी अन्दलिसी अपनी किताब ‘‘बतलतै करबला ज़ैनब बिन्ते अल ज़हरा ’’ प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 29 पर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत ज़ैनब की विलादत पर जब जनाबे सलमाने फ़ारसी ने असद उल्लाह हज़रत अली (अ.स.) को मुबारक बाद दी तो आप रोने लगे और आपने उन हालात व मसाएब का तज़किरा फ़रमाया जिनसे जनाबे ज़ैनब बाद में दो चार होने वाली थीं।

हज़रत ज़ैनब की वफ़ात

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) जब बचपन जवानी और बुढ़ापे की मंज़िल तय करने और वाक़े करबला के मराहिल से गुज़रने के बाद क़ैद ख़ाना ए शाम से छुट कर मदीने पहुँची तो आपने वाक़ेयाते करबला से अहले मदीना को आगाह किया और रोने पीटने , नौहा व मातम को अपना शग़ले ज़िन्दगी बना लिया। जिससे हुकूमत को शदीद ख़तरा ला हक़ हो गया। जिसके नतीजे में वाक़िये ‘‘ हर्रा ’’ अमल में आया। बिल आखि़र आले मोहम्मद (स.अ.व.व.) को मदीने से निकाल दिया गया।

अबीदुल्लाह वालीए मदीना अल मतूफ़ी 277 अपनी किताब अख़बारूल ज़ैनबिया में लिखता है कि जनाबे ज़ैनब मदीने में अकसर मजलिसे अज़ा बरपा करती थीं और ख़ुद ही ज़ाकरी फ़रमाती थीं। उस वक़्त के हुक्कामे को रोना रूलाना गवारा न था कि वाक़िये करबला खुल्लम खुल्ला तौर पर बयान किया जाय। चुनान्चे उरवा बिन सईद अशदक़ वाली ए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि मदीने में जनाबे ज़ैनब की मौजूदगी लोगों में हैजान पैदा कर रही है। उन्होंने और उनके साथियों ने तुझ से ख़ूने हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम की ठान ली है। यज़ीद ने इत्तेला पा कर फ़ौरन वाली ए मदीना को लिखा कि ज़ैनब और उनके साथियों को मुन्तशर कर दे और उनको मुख़तलिफ़ मुल्कों में भेज दे।(हयात अल ज़हरा)

डा 0 बिन्ते शातमी अंदलसी अपनी किताब ‘‘ बतलतए करबला ज़ैनब बिन्ते ज़हरा ’’ प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 152 में लिखती हैं किे हज़रत ज़ैनब वाक़िये करबला के बाद मदीने पहुँच कर यह चाहती थीं कि ज़िन्दगी के सारे बाक़ी दिन यहीं गुज़ारें लेकिन वह जो मसाएबे करबला बयान करती थीं वह बे इन्तेहा मोअस्सिर साबित हुआ और मदीने के बाशिन्दों पर इसका बे हद असर हुआ। ‘‘ फ़क़तब वलैहुम बिल मदीनता इला यज़ीद अन वुजूद हाबैन अहलिल मदीनता महीज अल ख़वातिर ’’ इन हालात से मुताअस्सिर हो कर वालीए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि जनाबे ज़ैनब का मदीने में रहना हैजान पैदा कर रहा है। उनकी तक़रीरों से अहले मदीना में बग़ावत पैदा हो जाने का अन्देशा है। यज़ीद को जब वालीए मदीना का ख़त मिला तो उसने हुक्म दिया कि इन सब को मुमालिको अम्सार में मुन्तशिर कर दिया जाय। इसके हुक्म आने के बाद वालीए मदीना ने हज़रते ज़ैनब से कहला भेजा कि आप जहां मुनासिब समझें यहां से चली जायें। यह सुनना था कि हज़रते ज़ैनब को जलाल आ गया और कहा कि ‘‘ वल्लाह ला ख़रजन व अन अर यक़त दमायना ’’ ख़ुदा की क़सम हम हरगिज़ यहां से न जायेंगे चाहे हमारे ख़ून बहा दिये जायें। यह हाल देख कर ज़ैनब बिन्ते अक़ील बिन अबी तालिब ने अर्ज़ कि ऐ मेरी बहन ग़ुस्से से काम लेने का वक़्त नहीं है बेहतर यही है कि हम किसी और शहर में चले जायें। ‘‘ फ़ख़्रहत ज़ैनब मन मदीनतः जदहा अल रसूल सुम्मा लम हल मदीना बादे ज़ालेका इबादन ’’ फिर हज़रत ज़ैनब मदीना ए रसूल से निकल कर चली गईं। उसके बाद से फिर मदीने की शक्ल न देखी। वह वहां से निकल कर मिस्र पहुँची लेकिन वहां ज़ियादा दिन ठहर न सकीं। ‘‘ हकज़ा मुन्तकलेतः मन बलदाली बलद ला यतमईन बहा अल्ल अर्ज़ मकान ’’ इसी तरह वह ग़ैर मुतमईन हालात में परेशान शहर बा शहर फिरती रहीं और किसी एक जगह मकान में सुकूनत इख़्तेयार न कर सकीं। अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी लिखते हैं ‘‘ व क़ज़त अल अक़ीलता ज़ैनब हयातहाबाद अख़यहा मुन्तक़लेत मन मल्दाली बलद तकस अलन्नास हना व हनाक ज़ुल्म हाज़ा अल इन्सान इला रख़या अल इन्सान ’’ कि हज़रत ज़ैनब अपने भाई की शहादत के बाद सुकून से न रह सकीं वह एक शहर से दूसरे शहर में सर गरदां फिरती रहीं और हर जगह ज़ुल्मे यज़ीद को बयान करती रहीं और हक़ व बातिल की वज़ाहत फ़रमाती रहीं और शहादते हुसैन (अ.स.) पर तफ़सीली रौशनी डालती रहीं।(ज़ैनब अख्तल हुसैन पृष्ठ 44 ) यहां तक कि आप शाम पहुँची और वहां क़याम किया क्यों कि बा रवायते आपके शौहर अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार की वहां जायदाद थी वहीं आपका इन्तेक़ाल ब रवायते अख़बारूल ज़ैनबिया व हयात अल ज़हरा रोज़े शम्बा इतवार की रात 14 रजब 62 हिजरी को हो गया। यही कुछ किताब ‘‘ बतलतए करबला ’’ के पृष्ठ 155 में है। बा रवाएते ख़साएसे ज़ैनबिया क़ैदे शाम से रिहाई के चार महीने बाद उम्मे कुलसूम का इन्तेक़ाल हुआ और उसके दो महीने बीस दिन बाद हज़रते ज़ैनब की वफ़ात हुई। उस वक़्त आपकी उम्र 55 साल की थी। आपकी वफ़ात या शहादत के मुताअल्लिक़ मशहूर है कि एक दिन आप उस बाग़ में तशरीफ़ ले गईं जिसके एक दरख़्त में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का सर टांगा गया था। इस बाग़ को देख कर आप बेचैन हो गईं। हज़रत ज़ुहूर जारज पूरी मुक़ीम लाहौर लिखते हैं।

करवां शाम की सरहद में जो पहुँचा सरे शाम

मुत्तसिल शहर से था बाग़ , किया उसमें क़याम

देख कर बाग़ को , रोने लगी हमशीरे इमाम

वाक़ेया पहली असीरी का जो याद आया तमाम

हाल तग़ईर हुआ , फ़ात्मा की जाई का

शाम में लटका हुआ देखा था सर भाई का

बिन्ते हैदर गई , रोती हुई नज़दीके शजर

हाथ उठा कर यह कहा , ऐ शजरे बर आवर

तेरा एहसान है , यह बिन्ते अली के सर पर

तेरी शाख़ों से बंधा था , मेरे माजाये का सर

ऐ शजर तुझको ख़बर है कि वह किस का था

मालिके बाग़े जिनां , ताजे सरे तूबा था

रो रही थी यह बयां कर के जो वह दुख पाई

बाग़बां बाग़ में था , एक शकी़ ए अज़ली

बेलचा लेके चला , दुश्मने औलादे नबी

सर पे इस ज़ोर से मारा , ज़मीं कांप गई

सर के टुकड़े हुए रोई न पुकारी ज़ैनब

ख़ाक पर गिर के सुए ख़ुल्द सिधारीं ज़ैनब

हज़रत ज़ैनब का मदफ़न

अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं। ‘‘ क़द अख़तलफ़ अल मुरखून फ़ी महल व फ़नहा बैनल मदीनता वश शाम व मिस्र व अली बेमा यग़लब अन तन वल तहक़ीक़ अलैहा अन्नहा मदफ़नता फ़िश शाम व मरक़दहा मज़ार अला लौफ़ मिनल मुसलेमीन फ़ी कुल आम ’’ ‘‘ मुवर्रेख़ीन उनके मदफ़न यानी दफ़्न की जगह में इख़्तेलाफ़ किया है कि आया मदीना है या शाम या मिस्र लेकिन तहक़ीक़ यह है कि वह शाम में दफ़्न हुई हैं और उनके मरक़दे अक़दस और मज़ारे मुक़द्दस की हज़ारों मुसलमान अक़ीदत मन्द हर साल ज़्यारत किया करते हैं। ’’(ज़ैनब अख़्तल हुसैन पृष्ठ 50 नबा नजफ़े अशरफ़) यही कुछ मोहम्मद अब्बास एम 0 ए 0 जोआईट एडीटर पीसा अख़बार ने अपनी किताब ‘‘ मशहिरे निसवां ’’ प्रकाशित लाहौर 1902 ई 0 के पृष्ठ 621 मे और मिया एजाज़ुल रहमान एम 0 ए 0 ने अपनी किताब ‘‘ ज़ैनब रज़ी अल्लाह अन्हा ’’ के पृष्ठ 81 प्रकाशित लाहौर 1958 ई 0 में लिखा है।

 ईरानी सशस्त्र बलों ने अमेरिका और इजरायल को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर कोई नई साजिश या हमला किया गया तो पहले से भी ज्यादा जोरदार जवाब दिया जाएगा।

ईरानी सशस्त्र बलों ने कहा कि ईरानी राष्ट्र किसी भी दबाव के आगे झुकने वाला नहीं है। अमेरिका और उसके क्षेत्रीय सहयोगी ईरान के हाथों बार-बार हार चुके हैं, लेकिन सबक नहीं सीखा।

आज भी अमेरिका और इजरायल ईरान के खिलाफ नई साजिशें रचने में लगे हुए हैं, लेकिन उनके सभी प्रयासों का अंत पहले की तरह हार और अपमान ही होगा। 

ईरानी सशस्त्र बलों ने स्पष्ट किया कि अगर दुश्मन ने कोई गलत कदम उठाया या शैतानी हरकत की तो इस बार प्रतिक्रिया कहीं अधिक तीव्र और चौंकाने वाली होगी।

यह बयान ईरान और अमेरिका-इजरायल के बीच तनावपूर्ण संबंधों को दर्शाता है, जहां ईरान किसी भी आक्रामकता के जवाब में कड़ी कार्रवाई की धमकी है।

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विभिन्न देशों की महिलाओं ने इस साल की पहली तिमाही में 1,983 पुस्तकें विभिन्न भाषाओं और विषयों में हज़रत फातिमा मासूमा स.अ. के हरम के पुस्तकालय को दान कीं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हज़रत मासूमा स.अ.के पवित्र दरगाह के पुस्तकालय शोधकर्ताओं को पुस्तकों के अध्ययन और उधार देने के क्षेत्र में सांस्कृतिक सेवाएं प्रदान करने के साथ-साथ जनता द्वारा दान की गई पुस्तकों को प्राप्त और सूचीबद्ध करने का कार्य भी करता है। 

महिला शोधकर्ता, लेखिकाएं, प्रमुख धार्मिक महिलाएं और विभिन्न राष्ट्रीयताओं की आम महिलाएं पूरे वर्ष विभिन्न भाषाओं और विषयों में पुस्तकें पवित्र दरगाह के पुस्तकालय को दान करती हैं। 

इस साल की पहली तिमाही में, अध्ययन और पुस्तक पढ़ने की संस्कृति में रुचि रखने वाली महिलाओं और बहनों द्वारा पवित्र दरगाह के पुस्तकालय को 1,983 पुस्तकें दान की गईं। 

यह बताना ज़रूरी है कि दान की गई पुस्तकों को वर्गीकृत और सूचीबद्ध करने के बाद, एक भाग पुस्तकालय के विभिन्न संग्रहों में उपयोग के लिए रखा जाता है, और जो भाग पुस्तकालय की आवश्यकता से अधिक होता है, उसे इच्छुक पुस्तकालयों को दान कर दिया जाता है। 

देश भर में पुस्तकालयों को पुस्तकें दान करना एक सराहनीय संस्कृति है जो अध्ययन संस्कृति के प्रसार में मदद करने के साथ-साथ पुस्तकों के संरक्षण में भी सहायता कर सकती है, और अधिक लोग मूल्यवान पुस्तकों के अध्ययन का लाभ उठा सकते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में इजरायली सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गिरफ्तारी वारंट जल्द ही जारी किए जा सकते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में इजरायली सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय गिरफ्तारी वारंट जल्द ही जारी किए जा सकते हैं। 

एक रिपोर्ट के अनुसार, जायोनी मंत्री आंतरिक मामलों के मंत्री इतामार बेन-गवीर और वित्त मंत्री बेजेल स्मोत्रिच पर नस्लवादी बयानों और नीतियों के आधार पर मामले तैयार कर लिए गए हैं। यह पहली बार होगा जब इन दोनों इजरायली मंत्रियों को किसी अंतर्राष्ट्रीय अदालत में इस तरह के आरोपों का सामना करना पड़ेगा। 

सूत्रों ने मिडिल ईस्ट आई को बताया कि आईसीसी के अभियोजक ने दोनों मंत्रियों के खिलाफ कई फाइलें तैयार कर ली हैं, हालांकि अभी तक ये आवेदन औपचारिक रूप से अदालत में दाखिल नहीं किए गए हैं। 

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इस कानूनी कार्रवाई पर भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी मौजूद है ताकि गिरफ्तारी वारंट को रोका जा सके। हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कानूनी विशेषज्ञों को उम्मीद है कि न्याय की मांग राजनीतिक हस्तक्षेप पर भारी पड़ेगी। 

अरबईन, दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक और जनसभा कार्यक्रम, आज एक धार्मिक अनुष्ठान से आगे बढ़कर नरम शक्ति, सामूहिक पहचान और इस्लामी समुदाय की एकजुटता दिखाने का मंच बन गया है।

अरबईन, दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक और जनसभा कार्यक्रम, आज एक धार्मिक अनुष्ठान से आगे बढ़कर नरम शक्ति, सामूहिक पहचान और इस्लामी समुदाय की एकजुटता दिखाने का मंच बन गया है।

हुसैनी अर्बईन एक ऐसा आयोजन है जिसमें शिया और सुन्नी एक साथ, अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध, विशेष रूप से ग़ज़्ज़ा के लोगों के समर्थन और इस्लामी उम्मत की एकता का संदेश दुनिया तक पहुँचाते हैं।

ईरान के कुर्दिस्तान और सिस्तान-बलुचिस्तान में सुन्नी समुदाय के मौक़िब से लेकर नाइजीरिया और पाकिस्तान के विद्वानों की कर्बला में उपस्थिति तक अर्बईन दिलों के बंधन, दुश्मनों के खिलाफ निवारक शक्ति और आशूरा की क्रांति की निरंतरता का स्पष्ट उदाहरण है।

अरबईन: नरम शक्ति और सामूहिक पहचान का मंच:

मिलियन मार्च या लोगों की महान पैदल यात्रा न केवल धार्मिक पहलू रखती है, बल्कि इसके भू-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिणाम भी हैं। इस आयोजन ने शिया समुदाय की शक्ति को बढ़ाया, दुश्मनों के नकारात्मक प्रचार को बेअसर किया और मुसलमानों में प्रतिरोध और अन्याय विरोध की पहचान को मजबूत किया।

इस साल सुन्नी धर्मगुरुओं और इस्लामी दुनिया के विद्वानों ने जोर देकर कहा कि अर्बईन का मुख्य संदेश मुसलमानों की एकता और ग़ाज़ा के सताए गए लोगों का समर्थन है। शिया और सुन्नी की साझा उपस्थिति ने इस्लामी उम्मत की वैश्विक एकजुटता का संदेश दिया।

इस साल पश्चिमी ईरान के कुर्दिस्तान प्रांत में अर्बईन एक अद्वितीय धार्मिक और सामाजिक एकता और जिहादी सेवा का मंच बना; यह न केवल ईरान की स्थायी सुरक्षा को दर्शाता है, बल्कि एकता और प्रतिरोध का संदेश पूरी दुनिया में फैलाता है।

कुर्दिस्तान में अर्बईन के सेवक मानते हैं कि अर्बईन यात्रा केवल एक आध्यात्मिक गतिविधि नहीं है, बल्कि देश की स्थायी सुरक्षा को मजबूत करने का एक साधन भी है। इस प्रांत में 76 मौक़िब या टेंट की स्थापना ने दिखाया कि दुश्मन लोगों की वास्तविक एकता को प्रभावित नहीं कर सकते।

कुर्दिस्तान में मेज़बानी का सबसे बड़ा हिस्सा सुन्नी भाइयों के कंधों पर था ऐसे मौक़िब जिन्हें प्रेम और ईमानदारी के साथ संचालित किया गया और जिन्होंने शिया और सुन्नी की शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की स्पष्ट छवि दुनिया के सामने प्रस्तुत की।

पूर्वी ईरान में, शिया और सुन्नी की एकता आतंकवादी समूहों की साजिशों के खिलाफ़ एक मजबूत क़िला रही है। सिस्तान-बलुचिस्तान प्रांत के दोनों संप्रदायों के धर्मगुरुओं ने ज़ोर देकर कहा कि सुरक्षा ईरानी जनता की सीमा रेखा है और इसका उल्लंघन दुश्मनों के खेल में शामिल होना होगा। इसी संदर्भ में ईरानशहर के शिया और सुन्नी धर्मगुरुओं ने प्रांत में हाल ही में हुए आतंकवादी हमलों की निंदा की और बताया कि विद्वानों और धर्मगुरुओं की जागरूकता बढ़ाने वाली भूमिका महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि एकता देश की सुरक्षा और शांति के खिलाफ दुश्मनों के मुकाबले सबसे महत्वपूर्ण हथियार है।

एक नाइजीरियाई विद्वान ने इस साल कर्बला में अर्बईन मार्च के दौरान कहा कि यह करोड़ों लोगों की महासभा इस्लामी उम्मत की एकता और ग़ाज़ा के सताए गए लोगों की मदद का संदेश देती है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इमाम हुसैन (अ.) सभी मुसलमानों का साझा पूंजी हैं।

नाइजीरिया के जज और विद्वान आदम ब्लू, जिन्होंने दूसरी बार अर्बईन में भाग लिया, ने कहा कि इस विशाल महारैली का सबसे महत्वपूर्ण संदेश मुसलमानों की एकता और फ़िलिस्तीन का समर्थन है। उन्होंने कहा कि इमाम हुसैन (अ.) सभी मुसलमानों के हैं, चाहे शिया हों या सुन्नी, और अर्बईन का संदेश वैश्विक और धार्मिक सीमाओं से परे है।

पाकिस्तानी धर्मगुरु ने सिंध प्रांत में मोहर्रम के शोक समारोह में अर्बईन  हुसैनी को अन्याय के खिलाफ़ प्रतिरोध और इस्लामी उम्मत की एकजुटता का वैश्विक प्रतीक बताया और ज़ोर दिया कि यह आंदोलन आशूरा की निरंतरता और दुनिया भर में मुसलमानों की एकता का झंडा है।

पाकिस्तान की मुस्लिम यूनिटी काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य हुज्जतुल इस्लाम मकसूद अली डोमकी ने कहा कि अर्बइन केवल एक धार्मिक त्योहार व महारैली नहीं है, बल्कि हुसैनी प्रतीकों के सम्मान में दुनिया का सबसे बड़ा सम्मेलन है जो यजीदी ताक़तों को क्रोधित करता है और अहले बैत (अ.) के प्रेमियों को उत्साहित करता है।

इस पाकिस्तानी विद्वान ने अर्बईन की कुरआनी और ऐतिहासिक जड़ों का हवाला देते हुए कहा कि यह परंपरा इमाम सज्जाद (अ.) और हज़रत ज़ैनब (स.) के समय से शुरू हुई थी और आज करोड़ों लोग दुनिया भर से कर्बला में उपस्थित होकर ईश्वर और अहले बैत (अ.) के प्रति अपने प्रेम की घोषणा करते हैं। 

मरकज़ ए फ़िक़्ही आइम्मा ए अत्हार के संरक्षक ने क़ुम स्थित उर्वतुल वुस्क़ा अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान के दौरे के दौरान कहा: आज महिलाओं के बारे में सबसे अच्छा दृष्टिकोण शियो का ही है। महिलाओं के सभी पहलुओं पर शियाो का सबसे मज़बूत और सबसे संपूर्ण दृष्टिकोण है। इसी प्रकार, बच्चों के बारे में भी शियो का सबसे अच्छा दृष्टिकोण है।

मरकज़ ए फ़िक़्ही आइम्मा ए अत्हार के संरक्षक आयतुल्लाह मुहम्मद जवाद फ़ाज़िल लंकरानी ने क़ुम स्थित उर्वतुल वुस्क़ा अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान का दौरा किया।

इस अवसर पर उन्होंने कहा: हमें इस बात पर ज़ोर देना चाहिए कि अहले-बैत (अ) की कृपा और कुरान के साथ उनके सही संबंध के कारण शियो के पास अपार धन है। इन केंद्रों को इस ज्ञान को निचोड़कर दुनिया के शैक्षणिक केंद्रों तक पहुँचाना चाहिए।

आयतुल्लाह मुहम्मद जवाद फ़ाज़िल लंकारानी ने कहा: हमारा मुख्य कर्तव्य धर्म की ठोस नींव, विशेष रूप से शिया संप्रदाय के सिद्धांतों और आधारों की व्याख्या करना है, क्योंकि हमारा मानना है कि धर्म का सच्चा स्वरूप इसी प्रामाणिक संप्रदाय में प्रकट होता है। शिया मान्यताओं, नियमों, नैतिकता और राजनीतिक मुद्दों में शुद्ध और मौलिक शिक्षाएँ हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, ये बहुमूल्य तथ्य नजफ़, क़ुम और अन्य मदरसों तक ही सीमित रह गए हैं और दुनिया के शैक्षणिक केंद्र इनसे अनभिज्ञ हैं।

उन्होंने कहा: एक बैठक में, सर्वोच्च नेता के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि लंदन में एक इस्लामी केंद्र स्थापित किया जाना चाहिए। उस समय, लंदन में ऐसा कोई केंद्र नहीं था। क्रांति के सर्वोच्च नेता ने कहा: क्या यह आवश्यक है? इसकी क्या विशेषताएँ होनी चाहिए? फिर उन्होंने स्वयं कहा: बिल्कुल, लंदन दुनिया का द्वार है। सभी संप्रदायों और समूहों के केंद्र वहाँ हैं। शियो का वहाँ एक महान, शैक्षणिक और आध्यात्मिक केंद्र क्यों नहीं होना चाहिए? बाद में, वहाँ एक इस्लामी केंद्र स्थापित किया गया।

आयतुल्लाह फ़ाज़िल लंकरानी ने कहा: विद्वानों में इस बात को लेकर चिंता थी कि दुनिया के शैक्षणिक केंद्रों में शिया शिक्षाओं को मान्यता नहीं दी जाती। मरकज़ ए फ़िक़्ही आइम्मा ए अत्हार की स्थापना भी इसी उद्देश्य से की गई थी, न कि केवल हुसैनिया या मस्जिद बनाने के लिए, बल्कि एक ऐसा केंद्र स्थापित करने के लिए जो शैक्षणिक रूप से सक्रिय हो।

उन्होंने आगे कहा: बच्चों के बारे में इस्लाम और शियाओं के विचार सबसे मज़बूत हैं। आज दुनिया बच्चों के अधिकारों की बात करती है, लेकिन इस्लाम ने इस पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। इस विषय पर दो खंडों के सारांशों का अंग्रेजी, तुर्की, उर्दू और स्पेनिश में अनुवाद किया गया है, जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है।

मरकज़ ए फ़िक़्ही आइम्मा ए अत्हार के संरक्षक ने कहा: हम, छात्रों, शोधकर्ताओं और इन केंद्रों को, सबसे पहले यह मानना चाहिए कि शियो के पास कहने के लिए बहुत कुछ है। मेरे गुरु, आयतुल्लाह वहीद (द ज), अक्सर सनहौरी (मिस्र के नागरिक संहिता के प्रसिद्ध टीकाकार और "अल-वसीत" पुस्तक के लेखक) से बयान करते थे: "जब मेरी पुस्तक पूरी हो गई, तो मैंने शेख आज़म अंसारी की पुस्तक "मकासिब" देखी और पाया कि उसमें पहले से ही कितने आधुनिक, सशक्त और सटीक अध्ययन मौजूद हैं।"

उन्होंने यह कहकर निष्कर्ष निकाला: शिया अहले-बैत (अ) के बरकत और कुरान से उनके सही जुड़ाव के कारण बौद्धिक पूंजी से संपन्न हैं। इस संस्थान को इस ज्ञान को प्राप्त करके दुनिया के बौद्धिक केंद्रों तक पहुँचाना चाहिए। ईश्वर की कृपा से, यह संस्थान धर्मशास्त्रीय मदरसों, विशेषकर हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ बनेगा।

आज भारतीय मुसलमानों के लिए एक ख़ास मौक़ा है कि जब उनकी ज़िंदगी के मक़सद उनकी आज़ादी के दो अलग अलग वजूद अपने दामन में एक ही मक़सद लेकर एक ही दिन एक दूसरे से मिलने जा रही हैं...आज आज़ादी और सामाजिक न्याय का समन्वय हो रहा है.क्यूंकि आज भारतीय मुसलमान राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही पटल पर आज़ादी का मिलन देख रहा है..लेकिन इस बीच उसे दो अलग अलग किरदार भी अदा करने हैं।

आज भारतीय मुसलमानों के लिए एक ख़ास मौक़ा है कि जब उनकी ज़िंदगी के मक़सद उनकी आज़ादी के दो अलग अलग वजूद अपने दामन में एक ही मक़सद लेकर एक ही दिन एक दूसरे से मिलने जा रही हैं...आज आज़ादी और सामाजिक न्याय का समन्वय हो रहा है.क्यूंकि आज भारतीय मुसलमान राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही पटल पर आज़ादी का मिलन देख रहा है..लेकिन इस बीच उसे दो अलग अलग किरदार भी अदा करने हैं...

जिसमे से एक किरदार में वो हौसला पाएगा जबकि दूसरे किरदार में उसी हौसले की मदद से अपनी और अपनों की मदद करनी होगी...

जी हाँ...मैं बात कर रहा हूँ भारतीय सवंत्रता दिवस और अरबईने हुसैनी की...जिसमे एक तरफ़ राजनीतिक आज़ादी है तो वहीँ दूसरी तरफ़ धार्मिक आज़ादी है...जबकि यही दो तंत्र सामाजिक व्यस्था को बनाने और बनाए रखने में सबसे महत्त्पूर्ण किरदार अदा करते हैं...तो फिर इसी संदर्भ में अगर मैं ये कहूँ तो शायद कुछ ग़लत ना होगा कि पहली आज़ादी हमें जूझना सिखाती है तो दूसरी आज़ादी जूझ कर पाई हुई हिम्मत को बनाए रखना सिखाती है...और ये दोनों ही तरह की आज़ादियाँ हर प्रकार की परिस्थिति में स्थिरता व धैर्य को बनाए रखने का संदेश देती हैं...क्यूंकि स्थिरता व धैर्य से प्राप्त होती है विजय यानी कामयाबी और कामयाबी का सही मतलब है सच को स्वीकारना...जबकि सच स्वीकारने का मतलब सामाजिक ताने बाने को बुनने वाली ज़िम्मेदारियों को समझना और उन ज़िम्मेदारियों से न्याय करना....और फिर इस सारी आपा धापी व मेहनत से निकल कर आने वाले नतीजे को ही हम “सोशल जस्टिस” यानी सामाजिक न्याय का नाम देते हैं...और यही सामाजिक न्याय आज़ादी का सूत्रधार भी है और जनक भी..

जी हाँ! वही राजनीतिक आज़ादी जिसकी कल्पना मात्र में खुदीराम बोस , बाजी राउत , बिरसा मुंडा , तसददुक़ हुसैन , मक़बूल अहमद और अशफाक़ुल्लाह खान जैसे कम उम्रों से लेकर दादाभाई नौरोजी और ख्वाजा हसन निज़ामी सरीखे बूढों ने मुस्कुराते हुए जान दे दी...और फिर बदले में उन्हें दुनिया की कुल अर्थव्यस्था का 58 प्रतिशत की अर्थव्यस्था यानी मौजूदा दौर के हिसाब से 64 ट्रिलियन डालर्स की अर्थव्यस्था लुटवाने, खो देने और भ्रष्ट राजनेताओं के बड़े बड़े भ्रष्टाचारों के बावजूद आम आदमी की मेहनत के बल बूते पर महज़ 78 सालों में ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था वाला भारत मिला... 

जी हाँ! वही धार्मिक आज़ादी जो अपनी ग़लती की माफ़ी मांगने के लिए फ़ौज के सरदार के ओहदे को छोड़ कर एक एक प्यासे और लाचार के सामने  घुटनियों के बल आए...नाम से भी आज़ाद हुर (अस) से शुरू होती है और फिर छे माह के प्यासे बच्चे के तड़पती मछली से थके हुए खुलते बंद होंटों व नबी सल्लल्लाह की पीठ पर खेल चुके और अब तीरों पर टिके उनके प्यारे नवासे हुसैन अलैह्मुस्स्लाम के इश्क़ से लबरेज़ सजदे में बुदबुदाते हुए कटे ज़ख़्मी होंटों और हज़ारों ज़ख्मों के बावजूद हैहाथ मिन्नज्ज़िल्ला की इंक़ेलाबी आवाज़ से अंधेरों में रोशनी भरती आवाज़ए हुसैनी के साथ....ही थक हार कर हमेशा के लिए ख़ामोश हुई सकीना बिन्तुल हुसैन जैसी नन्हीं बच्ची की ख़ामोशी और फिर उस बच्ची की ख़ामोशी से उठी आवाज़ के तूफ़ान में यज़ीदियत का शीराज़े बिखेरती इन्क़ेलाबे अबदी यानी कभी मंद ना पड़ने वाली क्रांति अरबईने हुसैनी की सूरत में ठहरती है...

दरअसल सच भी यही है कि ये दोनों ही आज़ादियाँ अपने आप में क़ीमती हैं लेकिन फिर एक सच ये भी है कि...ये दोनों ही आज़ादियाँ उस वक़्त आज़ादी नहीं बल्कि जानवरों के चारे पानी के शेड्यूल या फिर ये कहा जाए कि पश्चिमी या पूंजीवादी सभ्यता का दम भरते हर तरह के बिज़ी शेड्यूल्स , टैक्सेज़ , लोन्स, तरह तरह के क़ानूनों में गिरफ़्तार ह्यूमन रोबोट्स की तरह से दिन-रात बस आदेश का पालन करने वाले यांत्रिक प्राणी , प्रोग्राम्ड ह्यूमन सा प्रोग्राम्ड सिस्टम सा है कि जिसमें—सोचने और महसूस करने की आज़ादी धीरे-धीरे मर चुकी हो…...और जी हाँ इंसान की यही वो असली हालत और हैसियत होती है कि जबकि इंसान अपनी आज़ादी का हक़ अदा ना करे...और इसका हक़ मैं तहरीर के पहले हिस्से में दर्ज कर चुका हूँ...जी हाँ वही सामाजिक न्याय , सोशल जस्टिस...

अब चूंकि मेरी तहरीर ज़रा लम्बी हो चली है और ये दौर किताबों, तहरीरों के बजाए शोर्ट वीडियोज़ का है लिहाज़ा कम अल्फ़ाज़ में इस तहरीर के नतीजे तक पहुँचने के लिए...दर्ज कर रहा हूँ कि...चाहे भारतीय सवंत्रता दिवस हो या फिर अरबईने हुसैनी दोनों ही किरदार आज़ादी की एक अलग परिभाषा रखते हैं...

अलबत्ता अब ये भी सच ही है कि सरहदों का फ़र्क ज़रूर हैं...लेकिन इंसानियत दोनों में समन्वय है...यानी अगर इधर भारत जैसे एक हिन्दू बहुसंख्या वाले देश में मुस्लिम क्रांतिकारी हैं तो उधर इसी भारत में मुस्लिम पहचान से जुड़े अरबईने हुसैनी में सिर्फ़ रहब दत्त से लेकर माथुर लखनवी और मुंशी छन्नू लाल दिलगीर जैसे अज़ादार ही नहीं बल्कि अज़ादारी को अपने वजूद का हिस्सा समझते ग़ैर मुस्लिम इलाक़े तक हैं...

और दोनों ही आज़ादियों का हक़ ये है कि इन्हें अपनाने वाले इस आज़ादी का आत्मा इस आज़ादी की रूह पर वार ना करें...ना तो भारतीय आज़ादी का जश्न मना रहे हिन्दू उस मुसलमान से देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगें कि जिसके पूर्वजों ने हँसते हुए फासी के फंदे चूम लिए...जिसने साथ मिलकर सामाजिक व हर तरह के ताने बाने को बुना और हर तरह के माहौल के बाद भी हिन्दू बिरादरी को अपना समझा बल्कि यूं कहूँ कि...भारत में रुक कर जिन्ना के एजेंडे को नाकाम किया...और हिन्दू समाज को हौसला व इज़्ज़त दी इज़्ज़त दिलाई...उसे ये समझना और ख़ुद से पूछना चाहिए कि उस मुसलमान से सर्टिफिकेट माँगना कितना शर्मनाक है कि जो उस हुसैन (अस) का मानने वाला है कि जो ख़ुद भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के लिए रोल मॉडल रहे हैं...तो फिर ऐसा क्यों है कि समाज में नफ़रत जीत रही है और मुहब्बत हार रही है...क्या शहीदों का खून इतना सस्ता है कि उसे सिर्फ़ 70 से 80 सालों में भुला दिया जाए...और अगर याद हैं तो क्या उन्होंने ऐसे भारत का सपना संजोया था?

और ना ही अरबईने हुसैनी के सहारे पैग़ामे हुसैनी यानी इंसानियत और सोशल जस्टिस का दम भरने वाले मुसलमान ख़ास तौर से शिया समाज अपनी मजलिसों अपनी महफ़िलों अपने प्रोग्राम्स में, तबर्रुकात की तक़सीम में, में ऐसी बातें ना करें कि आने वाले भी चले जाएँ...और फिर धीरे धीरे मजलिसें रस्म सी रह जाएं और वाह वाही का अड्डा बन जाएँ...यहाँ तक कि आने वाला ग़ैर अपने आने पर शर्मिंदा हो और हट्टा कट्टा  शिया नौजवान...मौलवी साहब से पूछे कि मौलवी साहब ये हज़रते अब्बास कौन थे....और क्या हम नहीं देखते कि हमारी मजलिसों में ग़ैर का मजमा कम हो रहा है...आख़िर हम ये क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि हमारे मुत्तहिद व समझदार ना होने, सही किरदार पेश ना करने और दूसरी वजहों से   नफ़रत जीत रही है और मुहब्बत हार रही है...

दरअसल यही मेरे पहले जुमले का मतलब और मक़सद भी है कि आज भारतीय मुसलमान मौजूदा हालात में सब कुछ लुटा कर भी इस्लाम और इंसानियत के लिए एलाही अक्सीर लेकर आई अरबईने हुसैनी से सबक़ व हौसला लेकर अपने ख़िलाफ़ हो रहे फ़र्ज़ी प्रोपोगंडों से जूझ सकता है, बहके हुवों को अपनी असली तस्वीर दिखा सकता है...और ऐसा करके वो अपनी और अपने मुल्क व समाज की मदद , ख़िदमत कर सकता है...जज़ाक्ल्लाह!

खैर मैं अपने इस शेर से अपनी उँगलियों और आपकी आँखों को आराम देता हूँ कि...

ख़ुदा करे यहाँ चैनो अमन रहे बाक़ी

चलो दुआओं में हिंदोस्तां को याद करें...

लेखक : सय्यद इब्राहीम हुसैन

             (दानिश हुसैनी)

……………………….

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 हज़रत मासूमा (स) की पवित्र दरगाह के उपदेशक ने इमाम हुसैन (अ) की सेवा को ईश्वर की दृष्टि में सम्मान प्राप्त करने के सबसे महत्वपूर्ण साधनों में से एक बताया और कहा: इमाम हुसैन (अ) की सेवा और सेवा करने से व्यक्ति दुनिया का मालिक और स्वामी बनता है। जिस प्रकार हुर्र ने तौबा करके और इमाम से मिलकर "वजीह इंदल्लाह" का दर्जा प्राप्त किया, उसी प्रकार जो कोई भी इस मुक्ति के जहाज़ में सवार होता है, उसे इस दुनिया और आख़िरत में सम्मान प्राप्त होता है।

मासूमा (स) की पवित्र दरगाह के उपदेशक, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन नासिर रफ़ीई ने पवित्र दरगाह में अपने भाषण के दौरान आशूरा तीर्थस्थल का वर्णन किया और इसे शिया संस्कृति में "जीवनशैली" का स्रोत बताया।

उन्होंने कहा: आशूरा तीर्थयात्रा में बीस से ज़्यादा प्रार्थनाएँ और आध्यात्मिक अनुरोध शामिल हैं। इनमें "अल्लाहुम्मज्अलनी" तीन बार आता है और हर बार यह वाक्यांश जीवन को एक महत्वपूर्ण दिशा देता है। इनमें से एक वाक्यांश है "अल्लाहुम्मज्अलनी बिल हुसैन (अ)" जिसका अर्थ है हे ईश्वर! इमाम हुसैन (अ) के दान के माध्यम से मुझे अपनी दृष्टि में सम्माननीय बना।

हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के शिक्षक ने आगे कहा: "वजीहा" शब्द, जिसका अर्थ है सम्माननीय, पवित्र क़ुरआन में केवल दो बार आता है। एक बार ईसा (अ) के संबंध में, सूर ए आले-इमरान में, और दूसरी बार मूसा (अ) के संबंध में, सूर ए अहज़ाब में। दोनों ही मौकों पर, इन नबियों का सम्मान खतरे में था और अल्लाह ने स्वयं उनकी रक्षा की।

उन्होंने कहा: किसी व्यक्ति का सम्मान इतना महत्वपूर्ण होता है कि अल्लाह उसकी रक्षा के लिए चमत्कार भी करता है। ईसा (अ) की माता पर लगाया गया आरोप पालने में ही उनके शब्दों से मिट गया और मूसा (अ) पर बनी इसराइल का आरोप अल्लाह की कृपा से निरस्त हो गया।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन रफ़ीई ने सूर ए हुजुरात की आयतों के आलोक में छह पापों का वर्णन किया है जो व्यक्ति के सम्मान को नष्ट करते हैं: उपहास, जिज्ञासा, संदेह, चुगली, अवांछित उपाधियाँ देना और दोष निकालना। ये न केवल बड़े पाप हैं, बल्कि व्यक्ति की सामाजिक और आध्यात्मिक पूँजी को भी नष्ट करते हैं। सुरक्षा और सामाजिक गतिविधियों में भी, लोगों के सम्मान की रक्षा की सीमाओं का पालन करना आवश्यक है।

क़ुम के इमाम जुमा ने कहा: अरबईन इमाम और ईश्वर के प्रमाण की ओर एक सामूहिक आंदोलन है। अरबईन का महदीवाद से गहरा संबंध है, इस प्रकार लबैक या हुसैन वास्तव में लबैक या महदी है।

आयतुल्लाह सय्यद मुहम्मद सईदी ने क़ुम की जुमा की नमाज़ के खुत्बे में कहा: अरबईन का आंदोलन व्यावहारिक धर्मपरायणता का प्रतीक है। इमाम हुसैन (अ) और उनके लक्ष्यों के प्रति प्रेम अरबईन वॉक में हुसैनी शोक मनाने वालों की बड़ी भागीदारी में प्रकट होता है। यह आयोजन ईश्वरीय प्रेम और इस्लामी उम्माह के आशूरा लक्ष्यों के साथ अटूट बंधन का प्रकटीकरण है, जो ईश्वरीय धर्मपरायणता में निहित है।

सूर ए हज की आयत 32 का हवाला देते हुए, "अल्लाह के संकेतों और प्रतीकों का यही अर्थ है, और वास्तव में, यह दिलों की तक़वा से है।" उन्होंने कहा: जो कोई अल्लाह के संकेतों और प्रतीकों का सम्मान करता है और व्यवहार में उनका सम्मान करता है, वह दिलों की तक़वा की निशानी है। हुसैनी रीति-रिवाज़, विशेष रूप से अरबाईन, ईश्वरीय रीति-रिवाजों में सर्वोच्च स्थान रखते हैं।

क़ुम में जुमे की नमाज़ के इमाम ने कहा: अरबाईन हुसैनी उत्साह और उसके संदेश के अस्तित्व का रहस्य है, जो दुनिया को मुहम्मद (स) के परिवार के प्रतिशोधक के उदय के लिए तैयार करता है। आशूरा के दिन इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन ने इस्लाम के सामने एक बड़े खतरे को टाल दिया। हुसैनी उत्साह ने पतन, धर्मत्याग और अज्ञानता के युग की वापसी को रोकने में सफलता प्राप्त की।

उन्होंने कहा: अरबईन मार्च वैश्विक स्तर पर अविश्वास और अहंकार की व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ा मार्च है। अगर इसे सही ढंग से समझाया, समझा और लागू किया जाए, तो यह युग के इमाम के उदय के लिए एक वैश्विक अपील है, ईश्वर उन पर दया करे।

क़ुम में वली फ़क़ीह के प्रतिनिधि ने आगे कहा: अरबईन इमाम और ईश्वर के प्रमाण की ओर एक सामूहिक आंदोलन है। अरबईन का महदीवाद से गहरा संबंध है, इसलिए लब्बैक या हुसैन वास्तव में लब्बैक या महदी है।

उन्होंने कहा: अरबईन का एक महत्वपूर्ण सबक वर्तमान युग में सत्य के दुश्मनों और इस्लाम के दुश्मनों को पहचानना है। आज भी, ऐसे लोग हैं जो इमाम हुसैन (अ) के हत्यारों के लक्षण रखते हैं और सक्रिय हैं। वैश्विक अहंकार की व्यवस्था, अपराधी अमेरिका, हड़पने वाली ज़ायोनी सरकार, क्षेत्र के पाखंडी और ज़ायोनी अत्याचारी सरकार के साथ मिलीभगत करने वाले लोग इस्लाम की नज़र में इमाम हुसैन (अ) के हत्यारे माने जाते हैं।

जमकरान मस्जिद के मुतवल्ली ने कहा: इमाम ज़माना (अ) का ज़ुहूर तब होगा जब इमाम हुसैन (अ) की मारफत हृदयों में स्थापित हो जाएगा, और अरबईन आंदोलन इस मारफ़त की सबसे बड़ी प्रस्तावना और इमाम महदी (अ) की वैश्विक सरकार का आधार है।

जमकरान मस्जिद के मुतवल्ली हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद अली अकबर उजाक़ नेजाद ने हज़रत मासूमा (स) की पवित्र दरगाह के सेवा शिविर में अरबईन के तीर्थयात्रियों को संबोधित किया।

अपने भाषण के दौरान, उन्होंने अहले-बैत (अ) के शोक दिवसों पर संवेदना व्यक्त की और हज़रत फ़ातिमा मासूमा (स) के सेवा शिविर के सेवकों की सेवाओं की सराहना की और कहा: अरबईन हुसैनी एक महान आशीर्वाद है जो अल्लाह तआला ने इमाम हुसैन (अ) को प्रदान किया है, और यह स्थान उनके अलावा किसी भी नबी या इमाम को प्राप्त नहीं हुआ।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन उजाक़ नेजाद ने आशूरा आंदोलन के अस्तित्व में हज़रत ज़ैनब (स) की अद्वितीय भूमिका की ओर इशारा किया और कहा: यदि हम आशूरा आंदोलन को देखें, तो इसका पचास प्रतिशत हिस्सा इमाम हुसैन (अ) ने अपनी शहादत तक पूरा किया और पचास प्रतिशत हज़रत ज़ैनब (स) ने अपनी शहादत के बाद अपने संघर्ष के माध्यम से पूरा किया। शोक और अरबईन तीर्थयात्रा इस आंदोलन के अस्तित्व के दो बुनियादी स्तंभ हैं, जिसकी नींव हज़रत ज़ैनब (स) ने रखी थी।