رضوی

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हौज़ा ए इल्मिया व यूनिवर्सिटी के मुमताज़ दीनी स्कॉलर, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने अपनी एक नशिस्त में इनफाक के साए में दाएमी बिहिश्त के उन्वान से गुफ्तगू करते हुए कहा कि खुदा की राह में खर्च करना इंसान को हकीकी कामयाबी तक पहुंचाता है।

हौज़ा ए इल्मिया व यूनिवर्सिटी के मुमताज़ दीनी स्कॉलर, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने अपनी एक नशिस्त में "इनफाक के साए में दाएमी बिहिश्त" के उन्वान से गुफ्तगू करते हुए कहा कि खुदा की राह में खर्च करना इंसान को हकीकी कामयाबी तक पहुंचाता है।

उन्होंने रसूल खुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की वह नसीहत नक़्ल की जिसमें आप ने हज़रत बिलाल से फरमाया था,इनफाक या बिलाल" यानी बिलाल! जो कुछ भी है, अल्लाह की राह में खर्च करो और फक़्र के खौफ को अपने दिल में न लाओ।

मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने बताया कि बिलाल माली तौर पर कमज़ोर थे, लेकिन जब कभी उनके पास अच्छे खजूर आ जाते तो वह उन्हें रसूल खुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की जियाफत के लिए मुख़स्सुस कर लिया करते थे। इस पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने उन्हें रोक दिया और फरमाया कि बिलाल! जो है, उसे अल्लाह की राह में दे दो। अल्लाह के खज़ानों में कमी नहीं, फक़्र से मत डरो।

उन्होंने कहा कि हर इंसान के अंदर एक "बिलाल" मौजूद है वह पाकीज़ा बातिन जो बख्शिश के जज़्बे को ज़िंदा रखता है और इंसान को अल्लाह के मुक़र्रबीन में शामिल कर सकता है।

उन्होंने मज़ीद कहा कि जो शख्स इनफाक करता है, खुदा उसे ज़रूर उसका बदला देता है। इस सिलसिले में अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम का वह क़ौल भी नहायत परमानी है जिसमें फरमाया,جُودُوا بِما یَفنی تَعتاضُوا عَنهُ بِما یَبقی"

यानी जो दुनिया फानी है, उसे बख्श दो ताकि तुम्हें उसके बदले वह आखेरत मिले जो हमेशा बाक़ी रहने वाली है।

उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक नसीहत नहीं बल्कि अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम की तरफ से दी गई एक इलाही ज़मानत है कि जो अल्लाह की राह में देता है, वह कभी महरूम नहीं रहता।

मजमए जहानी तक़रीब ए मज़ाहिब-ए-इस्लामी के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन हमीद शहरीयारी ने हालिया घटनाओं के संदर्भ में अपने एक ट्वीट में कहा है कि ग़दीर मुसलमानों के बीच एकता का बिंदु है, विभाजन का नहीं।

मजमए जहानी तक़रीब ए मज़ाहिब-ए-इस्लामी के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन हमीद शहरीयारी ने हालिया घटनाओं के संदर्भ में अपने एक ट्वीट में कहा है कि ग़दीर मुसलमानों के बीच एकता का बिंदु है, विभाजन का नहीं।

उन्होंने अपने संदेश में वाक़य ए ग़दीर को पूरी उम्मत-ए-मुस्लिमा के लिए एकता का उज्ज्वल मीनार करार देते हुए लिखा कि जैसा कि रहबर-ए-मुअज़्ज़म-ए-इंक़लाब-ए-इस्लामी ने फरमाया है,अमीरूल मोमिनीन (अ.स.) एकता का केंद्र हैं, मतभेद का कारण नहीं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन शहरीयारी ने जोर दिया कि मुसलमानों के बीच वास्तविक एकता तभी संभव है जब हक़ीक़त-ए-ग़दीर को सही रूप में पहचाना जाए।

अल्लाह ने फ़रमाया है,बेशक तुम्हारे लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का वजूद पैरवी के लिए बेहतरीन नमूना मौजूद है।

,हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,इस आयत पर अमल करें जिसमें अल्लाह ने फ़रमाया है, “बेशक तुम्हारे लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के वजूद में पैरवी के लिए बेहतरीन नमूना मौजूद है।

हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह (की बारगाह में हाज़िरी) और क़यामत (के आने) की उम्मीद रखता है और अल्लाह को बहुत याद करता है” (सूरए अहज़ाब, आयत-21) पैग़म्बरे इस्लाम बेहतरीन नमूना हैं यह बात क़ुरआन ने साफ़ लफ़्ज़ों में कही है उसवा” हैं!

इसका क्या मतलब है? यानी एक नमूना हैं और हमको इस नमूने की पैरवी करनी चाहिए। वह एक ऊंची चोटी पर हैं और हमको जो इस घाटी में हैं उस चोटी पर पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। क़दम बढ़ाना चाहिए, इंसान जहाँ तक भी जा सकता है आगे बढ़े, उस चोटी की ओर बढ़ता जाए “उसवा” का मतलब यह है।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा और फ़दक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़दक की हक़ीक़त क्या है? और क्या फ़दक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़दक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर चर्चा करें।

,हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा और फ़़दक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़दक की हक़ीक़त क्या है? और क्या फ़दक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़दक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर चर्चा करें।

यह लेख केवल प्रस्तावना भर है जिसमें हम वह सारी बहसें जो फ़दस से सम्बंधित हैं और जिनके बारे में हम बहस करेंगे उनको आपके सामने बयान करेंगें, और फ़दक के बारे में अपने दावों और अक़ीदों को स्पष्ट करें।

सूरा असरा आयत 26 में ख़ुदा फ़रमाता हैः

وَآتِ ذَا الْقُرْ‌بَىٰ حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ
हे पैग़म्बर अपने परिजनों का हक दे दो

मोतबर रिवायतों में आया है कि इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेही वसल्लम) को आदेश होता है कि फ़िदक को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को दें।

फ़दक विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण मसला है जिनमें से एक उसका इतिहास है

फ़दक इतिहास के पन्नों में
इस बहस में सबसे पहली बात या प्रश्न यह है कि फ़िदक क्या है? और क्यों फ़दक का मसला महत्वपूर्ण है?

यह फ़दक मीरास था या एक उपहार था? जिसमें पैग़म्बर को आदेश दिया गया था कि फ़ातेमा को दिया जाए।

हज़रत पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की वफ़ात के बाद फ़िदक का क्या हुआ? यह फ़िदक क्या वह सम्पत्ति थी जिसकों मुसलमानों के बैतुल माल में वापस जाना चाहिए था या हज़रत ज़हरा का हक़ था?

यहां पर बहुस सी शंकाए या प्रश्न भी पाए जाते हैं जैसे यह कि फ़ातेमा ज़हरा (स) जो कि पैग़म्बर की बेटी हैं जो संसारिक सुख और सुविधा से दूर थी, जो मासूम है, जिनकी पवित्रता के बारे में आयते ततहीर नाज़िल हुई है, वह क्यों फ़दक को प्राप्त करने के लिए उठती हैं? और वह प्रसिद्ध ख़ुत्बा जिसको "ख़ुत्बा ए फ़दक" कहा जाता है अपने बयान फ़रमाया। आख़िर एसा क्या हुआ कि वह फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जो नमाज़ तक पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं जाती थीं आपने मस्जिद में जाकर यह ख़ुत्बा दिया। जो आज हमारे हाथों में एक एतिहासिक प्रमाण के तौर पर हैं।

इस्लामिक इतिहास में फ़दक के साथ कब क्या हुआ? हम अपनी इस बहस यानी फ़िदक तारीख़ के पन्नों में बयान करेंगे। और वह शंकाएं जो फ़िदक के बारे में हैं उनको बिना किसी तअस्सुब के बयान और उनका उत्तर देंगे।

हमने अपने पिछले लेख़ों में फ़ातेमा ज़हरा की उपाधियों और उनके स्थान को बयान किया है, फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) वह हैं जिनकों पैग़म्बर ने अपनी माँ कहा है, जिनकी मासूमियत और पवित्रता की गवाही क़ुरआन दे रहा है, यही कारण है कि यह फ़िदक का मसला हमारे अक़ीदों से मिलता है कि वह फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जो मासूम हैं उनकी बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) वह हैं जिनके बारे में शिया और सुन्नी एकमत है कि उनका क्रोध ईश्वर का क्रोध है और उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता है, फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) वह है जिनको दुश्मनों के तानों के उत्तर में कौसर बना कर पैग़म्बर को दिया था।

ख़ुदा हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) मापदंड हैं, कि पैग़म्बर की शहादत के बाद जो घटनाएं घटी उनमें फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई, आपने जो प्रतिक्रिया दिखाई आज को युग में हमारे लिए हक़ को बातिल और सच को झूठ से अलग करने वाला है।

सवाल यह है कि आज हम किस सोंच का अनुसरण करें, उस सोंच का जो हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) को पैग़म्बर के बाद उनका जानशीन और ख़लीफ़ा मानती है या उस सोंच का जो पैग़म्बर के बाद सक़ीफ़ा में चुनाव के माध्यम से ख़लीफ़ा बनाती है, या उन मज़हबों का अनुसरण करें जिनके इमाम पैग़म्बर की मौत के दसियों साल बाद पैदा हुए?

हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) पैग़म्बर की शहादत के बाद किसकों उनके बाद के इमाम के तौर पर स्वीकार करती है (याद रखिए कि इमामत की बहस इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया है कि जो अपने ज़माने के इमाम को ना पहचाने उसकी मौत जाहेलियत (यानी क़ुफ़्र) की मौत है) क्या वह पहले ख़लीफ़ा को इमाम मानती है? या नहीं।

फ़दक एक बहाना है इस बात का ताकि लोगों को जगा सकें लोगों को जागरुक बना सकें, अगर क़ुरआन इब्राहीम द्वारा इमामत के सवाल के उत्तर में कहता है कि ज़ालिम को इमामत नहीं मिल सकती है, तो फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जब खड़ी होती हैं और कहती हैं कि यह फ़दक मेरा हक़ है और मुझ से छीना गया है। उनकी यह प्रतिक्रिया हमको और आपको क्या समझा रही है? यह बता रही है कि फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) पर ज़ुल्म हुआ है और ज़ालिम रसूल का ख़लीफ़ा नहीं  हो सकता है

फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) का क़याम केवल ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं था, बल्कि आपका यह क़याम उन सारे लोगों को जगाने के लिए था जो ग़दीर के मैदान में मौजूद थे और जिन्होंने अली (अ) की बैअत की थी।

एक ऐसा युग आरम्भ हो गया था कि जब पैग़म्बर के कथन से मुंह फिरा लिया गया था,  और ऐसे युग में फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का फ़दक को वापस मांगना वास्तव में विलायत, इमामत और अली (अलैहिस्सलाम) की ख़िलाफ़त का मांगना था

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, सुन्नियों के प्रसिद्ध आलिम इब्ने अबिलहदीद ने यही प्रश्न अपने उस्ताद से किया। वह कहता है कि मैंने अपने उस्ताद से प्रश्न कियाः क्या फ़िदक के बारे में फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का दावा सच्चा था?
उस्ताद ने कहाः हां
मैंने कहाः तो क्यों पहले ख़लीफ़ा ने फ़िदक फ़ातेमा को नहीं दिया, जब्कि उनको पता था कि फ़ातेमा सच बोल रही है।

तो उस्ताद मुस्कुराए और कहाः अगर अबू बक्र फ़ातेमा के दावा करने पर फ़िदक उन को दे देते, तो वह कल उनके पास आतीं और अपने पति के लिए ख़िलाफ़त का दावा करती, और उनको सत्ता से हटा देतीं और उनके पास कोई जवाब भी ना होता, क्योंकि उन्होंने फ़दक को दे कर यह  स्वीकार कर लिया होता कि फ़ातेमा जो दावा करती हैं वह सच होता है।

इसके बाद इब्ने अबिलहदीद कहता हैः यह एक वास्तविक्ता है अगरचे उस्ताद ने यह बात मज़ाक़ में कहीं थी।

इब्ने अबिलहदीद की यह बात प्रमाणित करती है कि फ़िदक की घटना एक सियासी घटना थी जो ख़िलाफ़त से मिली हुई थी और फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का फ़दक का मांगना केवल एक ज़मीन का टुकड़ा मांगना नहीं था।

यही कारण है कि फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) की बात स्वीकार नहीं की गई पैग़म्बर के नफ़्स अली की बात स्वीकार नहीं की गई, उम्मे एमन जो कि स्वर्ग की महिलाओं में से हैं उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।

हम अपनी बहसों में यही बात प्रमाणित करने की कोशिश करेंगे कि,मार्गदर्शन और हिदायत का मापदंड हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) हैं, हमको देखना होगा कि आपने किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार।

आख़िर क्यों हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा), इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और उम्मे एमन की बात को स्वीकार नहीं किया गया?
हम अपनी बहसों में साबित करेंगे कि पैग़म्बर ने अपने जीवनकाल में ही ईश्वर के आदेश से फ़िदक को हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को दिया था और आपने पैग़म्बर के जीवन में उसको अपनी सम्मपत्ति बनाया था।

फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) ने कुछ लोगों की वास्तविक्ता
को साबित करने और इमामत को उसके वास्तविक स्थान पर लाने के लिए क़याम किया जिसका पहला क़दम फ़दक है।

यह इमामत का मसला छोटा मसला नहीं है, ख़ुदा ने हमारे लिए पसंद नहीं किया है कि जो हमारा इमाम और रहबर हो वह मासूम ना हो, लेकिन हमने इसका उलटा किया मासूम को छोड़कर गै़र मासूम को अपना ख़लीफ़ा बना लिया।
अगर हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) फ़िदक को वापस ले लेती तो जिस तर्क से फ़िदक वापस लेती उसी तर्क से ख़िलाफ़ को भी अली (अलैहिस्सलाम) के लिए वापस ले लेतीं और यही कारण है कि आप अपने दावे तो प्रमाणित करने के लिए ख़ुद गवाही देती हैं, अली (अलैहिस्सलाम) गवाही देते हैं उम्मे एमन गवाही देती हैं, लेकिन इस सबकी गवाही रद कर दी जाती है।

जब हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) देखती हैं कि फ़िदक को हदिया और पैग़म्बर का दिया हुआ उपहार यह लोग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो वह मीरास का मसला उठाती है, कि अगर तुम लोग उपहार मानने के लिए तैयार नहीं हो तो कम से कम पैग़म्बर की मीरास तो मानों जो मुझको मिलनी चाहिए।

और यही वह समय था कि जब इस्लामी दुनिया में सबसे पहली जाली हदीस गढ़ी गई और कहा गया कि पैग़म्बर ने फ़रमाया हैः
نحن معاشر الانبياء لا نورث
हम पैग़म्बर लोग मीरास नहीं छोड़ते हैं।

हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) साबित करती है किः  इस हदीस को किसी ने नहीं सुना है यह हदीस क़ुरआन के विरुद्ध है। क्योंकि क़ुरआन में साफ़ साफ़ शब्दों में पैग़म्बरों की मीरास के बारे में बयान किया गया है कि वह मीरास छोड़ते हैं।
और एक समय वह भी आता है कि जब हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को फ़दक के दस्तावेज़ वापस दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों की साज़िश के बाद दोबारा फ़िदक फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) से छीन लिया जाता है।

इसके बाद हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) नया कदम उठाती है, वह ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) जिसका घर उसकी मस्जिद थी वह अपने छीने हुए हक़ के लिए क़याम करती हैं और मस्जिद में आती है और एक महान ख़ुत्बा देती हैं जो ज्ञान से भरा हुआ है ताकि आज जो हम और आप बैठे है ताकि जान सकें कि इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और उनके बाद ग्यारह इमामों की इमामत का मसला कोई कम मसला नहीं है बल्कि यह एक सोंच और रास्ता है जन्नत का जान सकें और उसका अनुसरण कर सकें।
और अंत में हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) अंसार को सहायता के लिए बुलाती हैं।

और उसके बाद आप एक और क़दम उठाती हैं और आप वसीयत करती हैं किः "हे अली मुझे रात में ग़ुस्ल देना रात में कफ़न पहनाना और रात में दफ़्न करना और मेरी क़ब्र का निशान मिटा देना और मैं राज़ी नहीं हूँ कि जिन लोगों ने मुझे परेशान किया और दुख का कारण बने वह मेरे जनाज़े में समिलित हों।

क्या आपने कभी सोंचा है कि पैग़म्बर की शहादत के बाद क्यों हदीस को बयान करने और उसको लिखने से रोका गया?  
इसका कारण यही था कि अगर पैग़म्बर की हदीसों को नहीं रोका गया तो वास्तविक्ता प्रकट हो जाएगी और उनका भेद खुल जाएगा।
यही कारण था कि पहले दौर में हदीस को बयान करने से रोका गया, उसका बाद के दौर में हदीसों को जलाया गया, और उसके बाद के दौर में जाली हदीसें गढ़ी गईं।

बुक फेयर ज्ञान और पढ़ाई को बढ़ावा देने का एक असरदार तरीका है; इसमें किताबें सिर्फ़ खरीदने-बेचने की चीज़ नहीं हैं, बल्कि ज्ञान, भाषा और सोच को आगे बढ़ाने का भी ज़रिया हैं। ऐसे इवेंट बच्चों और युवाओं में पढ़ने का शौक पैदा करते हैं, दिमागी तौर पर मज़बूती बढ़ाते हैं और समाज में एकेडमिक बातचीत को मज़बूत करते हैं, इसीलिए सिर्फ़ पढ़े-लिखे समाज ही अपनी किस्मत खुद लिखने की काबिलियत रखते हैं।

 अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के फिलॉसफी डिपार्टमेंट के पहले के हेड प्रोफेसर सैयद लतीफ हुसैन शाह काज़मी की किताबों की एक प्रदर्शनी यूनाइटेड स्पिरिट ऑफ़ राइटर्स एकेडमी के हॉल में लगाई गई, जिसमें टीचर, स्टूडेंट, लड़के-लड़कियां और किताबें पढ़ने के शौकीन लोगों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया और इस मौके पर किताब बनाने और किताबें पढ़ने पर एक चर्चा भी हुई।

प्रो. लतीफ़ काज़मी ने किताब लिखने के अपने अनुभवों पर रोशनी डालते हुए दर्शकों से कहा कि अपना टॉपिक चुनें, उसे कई हिस्सों में बांटें, अपने विचारों और कंटेंट को ऑर्गनाइज़ करने का प्लान बनाएं और फिर लिखना शुरू करें। ड्राफ़्ट को बेहतर बनाने के लिए रिवाइज़ और प्रूफ़रीडिंग करते रहें। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी लिखना आसान बना सकता है।

डॉ. शुजात हुसैन ने कहा कि किताबें पढ़ने के कई फ़ायदे हैं, जिनमें ज्ञान और जानकारी बढ़ाना, वोकैबुलरी बढ़ाना, मेंटल फ़र्टिलिटी और कॉन्संट्रेशन में सुधार करना और एनालिटिकल सोच बढ़ाना शामिल है। पढ़ने से मेंटल गिरावट कम करने, मेंटल स्ट्रेस कम करने और क्रिएटिविटी बढ़ाने में मदद मिलती है।

प्रदर्शनी और चर्चा के मुख्य अतिथि, श्री एस. मसूद हुसैन, पूर्व चेयरमैन, वॉटर कमीशन, मिनिस्ट्री ऑफ़ वॉटर रिसोर्सेज़, सेंट्रल गवर्नमेंट, नई दिल्ली ने दर्शकों को बताया कि जब पेन की नोक कागज़ पर चलती है, तो अक्षर और शब्द बनते हैं। अक्षरों और शब्दों को मिलाकर वाक्य बनते हैं। वाक्यों के अरेंजमेंट और कॉम्बिनेशन से पैराग्राफ़ बनते हैं। इस तरह हजारों शब्द, सैकड़ों वाक्य और पचास पैराग्राफ मिलकर लेखन का रूप लेते हैं। इस तरह लेखक की पुस्तक का निर्माण होता है। आप लोग कोई विषय चुनें और प्रोफेसर लतीफ काजमी की तरह लेखक बनें, यह समय की जरूरत है।

परिचय और उल्लेखनीय कार्य: लेखक, प्रोफेसर लतीफ हुसैन शाह काजमी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ (भारत) के दर्शनशास्त्र विभाग में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर (पूर्व अध्यक्ष 2019-2022) हैं।

उनके विशेषज्ञता के क्षेत्रों में इस्लामी दर्शन, सूफीवाद, इकबालवाद, अस्तित्ववाद, धर्मों और सौंदर्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन शामिल हैं।

उनकी पुस्तकें हैं, इकबाल का दर्शन; इकबाल और सार्त्र मानव स्वतंत्रता और सृजन; इस्लामी दर्शन में अध्ययन (संपादित) (भाग: I और II); शिक्षा और सहिष्णुता पर सर सैयद; मनुष्य और ईश्वर का दर्शन; इकबाल की कल्पना (उर्दू) और; इस्लामिक विचार और संस्कृति; इस्लामिक आध्यात्मिक परंपरा; धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन; इस्लामिक कला और संस्कृति और इस्लामिक कला: आध्यात्मिक संदेश और छह अन्य किताबें प्रकाशन के लिए तैयार हैं। वह एक और प्रोजेक्ट, "गीता और कुरान के नैतिक आयाम" में लगे हुए हैं, जिसे ICPR, सरकार ने सौंपा है।

प्रोफ़ेसर काज़मी ने भारतीय और विदेशी जर्नल्स में 85 से ज़्यादा रिसर्च आर्टिकल पब्लिश किए हैं और 130 नेशनल और इंटरनेशनल सेमिनार/कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया है।

वह 2008 से इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ़ इस्लामिक फ़िलॉसफ़ी (ISIP), वाशिंगटन/तेहरान के फ़ाउंडर मेंबर भी रहे हैं।

प्रोफ़ेसर काज़मी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कोर्ट और एकेडमिक काउंसिल के मेंबर रहे हैं।

जाफ़रिया अलायंस पाकिस्तान के अध्यक्ष ने कहा,सोल्जर बाजार में शबीर क़ासिम की लक्षित हत्या की भर्त्सना करते हैं।

 जाफरिया अलायंस पाकिस्तान के अध्यक्ष अल्लामा सय्यद शहनशाह हुसैन नक़वी ने शहर-ए-क़ायद कराची में आतंकवादियों द्वारा शबीर क़ासिम की लक्षित हत्या पर चिंता जताते हुए सुरक्षा एजेंसियों से हत्यारों को गिरफ्तार करने की मांग की है।

रिपोर्ट के अनुसार, एक बयान में उन्होंने कहा, एक तरफ तो शिया समुदाय का मीडिया ट्रायल (मीडिया में बदनामी) किया जा रहा है, तो दूसरी ओर शिया नरसंहार की दोबारा शुरुआत कर दी गई है।

जाफरिया अलायंस पाकिस्तान के अध्यक्ष ने आगे कहा,आदिल हुसैन और मुहम्मद हैदर की शहादत के बाद शबीर कासिम की लक्षित हत्या पाकिस्तान के शांति और सुरक्षा को तोड़ने की साजिश है। राज्य संस्थानें शिया लक्षित हत्याओं में शामिल तत्वों और उनके संरक्षकों को तुरंत गिरफ्तार करें।

पश्चिमी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका और यूरोपीय ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने ईरान के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में एक मसौदा प्रस्ताव जमा किया है। यह क़दम ऐसे समय में उठाया गया है जब एजेंसी और ईरान के बीच निरीक्षण और तकनीकी पहुंच को लेकर विवाद लगातार बढ़ रहा है।

पश्चिमी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका और यूरोपीय ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने ईरान के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में एक मसौदा प्रस्ताव जमा किया है। यह क़दम ऐसे समय में उठाया गया है जब एजेंसी और ईरान के बीच निरीक्षण और तकनीकी पहुंच को लेकर विवाद लगातार बढ़ रहा है।

मशरिक़ और रॉयटर्स की रिपोर्ट बताती है कि इस प्रस्ताव में ईरान से कहा गया है कि वह एजेंसी द्वारा उठाए गए सभी सवालों के जवाब दे और उन स्थलों तक निरीक्षण की अनुमति दे, जहां हाल के महीनों में बमबारी या सुरक्षा घटनाएँ हुई हैं। साथ ही, प्रस्ताव ईरान के समृद्ध यूरेनियम भंडार तक तत्काल पहुंच की मांग भी करता है।

कुछ मीडिया संस्थानों ने पहले ही संकेत दिया था कि यह मसौदा प्रस्ताव आठ धाराओं पर आधारित है और इसे IAEA बोर्ड की अगली बैठक में, जो 28 से 30 नवंबर के बीच आयोजित होने वाली है, चर्चा और मतदान के लिए रखा जाएगा। मसौदे में, पूर्व प्रस्तावों की तर्ज पर, ईरान से कहा गया है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम के विभिन्न हिस्सों पर रोक लगाए।

इन हिस्सों में यूरेनियम संवर्धन, पुनर्प्रसंस्करण, शोध एवं विकास कार्यक्रम, और भारी पानी से जुड़े प्रोजेक्ट शामिल हैं। प्रस्ताव यह भी मांग करता है कि ईरान अतिरिक्त प्रोटोकॉल का पूर्ण पालन करे और अपना परमाणु डाटा एजेंसी को उपलब्ध कराए।

यूरोपीय तिकड़ी का दावा है कि ईरान एनपीटी परमाणु हथियार न फैलाने की संधि से जुड़े सुरक्षा समझौते का पालन नहीं कर रहा है। मसौदे में कहा गया है कि IAEA पिछले पाँच महीनों से ईरानी परमाणु स्थलों और समृद्ध यूरेनियम भंडार तक पहुँच नहीं पा सकी है, जिससे एजेंसी को तकनीकी समीक्षा और सत्यापन प्रक्रिया में बाधा का सामना करना पड़ा है।

एजेंसी का कहना है कि पहुंच न मिलने से वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम की स्थिति का स्वतंत्र मूल्यांकन नहीं कर पा रही है। यह प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर जारी तनाव और बढ़ती कूटनीतिक खींचतान की नवीनतम कड़ी माना जा रहा है

भारत मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन डॉ. अब्दुल मजीद हकीम इलाही ने जमात-ए-इस्लामी महाराष्ट्र के सदस्यो के साथ एक मीटिंग के दौरान अपने भाषण में कहा कि दुश्मन हमेशा बाहर से हमला नहीं करता, बल्कि हमारे अंदर भी कुछ कमजोरियां होती हैं, जिनके बिना तरक्की मुमकिन नहीं है। उन्होंने मुसलमानों और देश में रहने वाले सभी इंसानों के बीच एकता, अलर्टनेस और शांति बनाए रखने को सबसे बड़ी नेशनल जिम्मेदारी बताया।

 भारत मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन डॉ. अब्दुल मजीद हकीम इलाही ने जमात-ए-इस्लामी महाराष्ट्र के मेंबर्स को संबोधित करते हुए कहा कि देशों के पिछड़ेपन की मुख्य वजह अंदरूनी कमज़ोरियां और लापरवाही है। उन्होंने कहा कि दुश्मन सिर्फ़ बाहर से हमला नहीं करता, बल्कि देश की अपनी लापरवाही भी उसकी ताकत को कमज़ोर करती है, इसलिए यह ज़रूरी है कि हम सबसे पहले अपनी अंदरूनी कमज़ोरियों को पहचानें।

उन्होंने कहा कि हालांकि इतिहास में मुसलमानों पर ज़ुल्म हुआ, उनके रिसोर्स लूटे गए और उन्हें कमज़ोर किया गया, साथ ही, उम्माह के अंदर की कमज़ोरियां भी एकता के रास्ते में रुकावट बनीं। उन्होंने अफ़सोस जताया कि दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद, मुसलमान प्रैक्टिकल फील्ड से गायब हो गए और इन हालात में, दुनिया की ताकतों ने मुस्लिम ज़मीनों को बांट दिया। अगर हम उस समय मौजूद होते, तो हम अपनी ज़मीन का बंटवारा कभी नहीं मानते, लेकिन यह हमारे इतिहास का एक कड़वा चैप्टर है।

सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि ने कहा कि आज के दौर में मुसलमानों और देश के सभी नागरिकों के लिए यह ज़रूरी है कि वे गैर-हाज़िर न रहें, बल्कि अपने हक़ और ज़िम्मेदारियों को पहचानें। उन्होंने कहा कि इस देश की सबसे बड़ी नेमत शांति और सुरक्षा है, जैसा कि पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वा आलेहि वसल्लम) ने भी सेहत और शांति को ऐसी नेमत बताया है जिसकी ज़्यादातर लोग कद्र नहीं करते।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि वह देश की शांति बनाए रखने में अपना रोल निभाए और शरारती तत्वों को मौका न दे। उन्होंने कहा कि प्यार, सम्मान, शांति से साथ रहना और सामाजिक सहयोग एक मज़बूत समाज की बुनियाद हैं, खासकर कमज़ोर और ज़रूरतमंद तबकों की मदद करना हम सभी का धार्मिक और नैतिक फ़र्ज़ है।

उन्होंने उम्मीद जताई कि भविष्य में उम्मा की एकता के टॉपिक पर साइंटिफिक और इंटेलेक्चुअल सेशन, ट्रेनिंग सेशन और जॉइंट प्रोग्राम और भी ऑर्गनाइज़्ड तरीके से होंगे ताकि नई पीढ़ी को सही रास्ता दिखाया जा सके।

डॉ. हकीम इलाही ने पवित्र कुरान में बताए गए भरोसे का ज़िक्र करते हुए कहा कि इंसान पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है, इसीलिए उसे अमीन कहा जाता है। पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) को उनके मिशन से पहले "मुहम्मद अल-अमीन" के टाइटल से भी जाना जाता था।

उन्होंने कहा कि उम्माह की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ आज के ज़माने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों और इंसानियत तक फैली हुई है। "दुनिया के 8 अरब लोग इस मैसेज का इंतज़ार कर रहे हैं, हमें अपनी आवाज़ वहाँ तक पहुँचानी है।"

इस मौके पर जमात-ए-इस्लामी महाराष्ट्र के वाइस प्रेसिडेंट डॉ. सलीम खान ने अपने भाषण में ईरान की इस्लामिक क्रांति से अपने ऐतिहासिक जुड़ाव का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि क्रांति के शुरुआती दिनों में हैदराबाद में एक बड़ा प्रोग्राम रखा गया था जिसमें इमाम खुमैनी (RA) के आने की इच्छा ज़ाहिर की गई थी, लेकिन इमाम ने अयातुल्ला खामेनेई को रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर भेजा, जिनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। उन्होंने कहा कि “आज हमें खुशी है कि हमें मुंबई में अयातुल्ला उज़्मे ख़ामेनेई के प्रतिनिधि का स्वागत करने का सम्मान मिल रहा है।”

इसी तरह, जमात-ए-इस्लामी हिंद के सेक्रेटरी श्री ज़फ़र अंसारी ने भी बात की। उन्होंने कहा कि वह बचपन से ही जमात-ए-इस्लामी के माहौल से जुड़े रहे हैं और अपनी जवानी में इस्लामी क्रांति के लिए किए गए विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं।

उन्होंने कहा कि अल्लामा मौदूदी के विचारों ने उनकी बौद्धिक ट्रेनिंग में अहम भूमिका निभाई, और उन्हें इमाम खुमैनी (RA) के विचारों में इसका ज़्यादा मज़बूत और ज़्यादा प्रैक्टिकल रूप मिला, जो आज भी उम्माह के लिए एक लीडर हैं।

इस्लाम में पुरुष और महिला में श्रेष्ठता का एकमात्र मापदंड तक़वा और नैतिक गुण हैं। हर इंसान को उसके कर्मों का जवाब देना होगा। कुरान ने महिलाओं की उपेक्षा की तीव्र निंदा की है और इंसानों की बराबरी पर बल दिया है। अरबी जाहिलियत के समय बेटियों के जन्म को अपमान माना जाता था और उन्हें जिंदा दफन कर दिया जाता था, लेकिन इस्लाम ने महिलाओं की इज्जत, गरिमा और उनके अधिकारों की पूरी सुरक्षा की है।

 तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी श्रृंखला का दसवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:

इस्लाम में श्रेष्ठता का पैमाना केवल तक़वा और परहेज़गारीः

कुरान के अनुसार, चाहे कोई पुरुष हो या महिला, हर एक के अच्छे या बुरे कर्मों का हिसाब उसके कामों की किताब में लिखा जाता है, और श्रेष्ठता का कोई मापदंड तक़वा के अलावा नहीं है। तक़वा का एक अहम हिस्सा अच्छे चरित्र हैं, जैसे ईमान के विभिन्न स्तर, लाभदायक कर्म, मजबूत बुद्धि, अच्छी आदतें, सब्र, सहनशीलता और धैर्य।

अगर कोई महिला ईमान के उच्च स्तर पर हो, या ज्ञान और बुद्धिमत्ता में उच्च स्थान रखती हो, या उसकी बुद्धि मजबूत और संतुलित हो, या वह नैतिक गुणों में आगे हो—तो इस्लाम की नजर में ऐसी महिला उस पुरुष से कहीं अधिक सम्मानित और उच्च दर्जे की होती है, जो इन गुणों में उसका समकक्ष नहीं।

इस्लाम में सम्मान और गरिमा किसी की निजी संपत्ति नहीं है, न तो पुरुष होने में कोई श्रेष्ठता है और न ही महिला होने में; असली श्रेष्ठता केवल तक़वा और परहेज़गारी में होती है।

कुरान इसे और भी स्पष्ट रूप से कहता है:

مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْیِیَنَّهُ حَیَاةً طَیِّبَةً ۖ وَلَنَجْزِیَنَّهُمْ أَجْرَهُمْ بِأَحْسَنِ مَا کَانُوا یَعْمَلُونَ मन अमेला सालेहन मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़ला नोहयेयंनहू हयातन तय्यबन व लानज्ज़ेयन्नहुम अजरहुम बेअहसने मा कानू यअमलून "जो कोई पुरुष या महिला भले कर्म करे और वह ईमान वाला हो, हम उसे अच्छी ज़िंदगी देंगे और उसके अच्छे कर्मों के अनुसार अज्र देंगें।" 

इसी तरह एक और आयत कहती है:

مَنْ عَمِلَ سَیِّئَةً فَلَا یُجْزَیٰ إِلَّا مِثْلَهَا ۖ وَمَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَٰئِکَ یَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ یُرْزَقُونَ فِیهَا بِغَیْرِ حِسَابٍ मन अमेला सय्येअतन फ़ला युज्ज़ा इल्ला मिस्लहा, व मन अमेला सालेहन मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़ुलाएका यदख़ोलूनल जन्नता युरज़क़ूना फ़ीहा बेग़ैरिन हिसाब "जिसने बुराई की, उसे उसी के बराबर बदला मिलेगा; और जो पुरुष या महिला नेक काम करेगा और ईमानदार होगा, वे जन्नत में प्रवेश करेंगे और वहां बिना हिसाब के रज़क़ पाएंगे।"

और एक और आयत में कहा गया है:

وَمَنْ یَعْمَلْ مِنَ الصَّالِحَاتِ مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَٰئِکَ یَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ وَلَا یُظْلَمُونَ نَقِیرًا मन यअमल मिनस सालेहाते मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़उलाएका यदख़ोलूनल जन्नता वला युज़लमूना नक़ीरा "जो पुरुष या महिला ईमान के साथ नेक काम करेगा, वे जन्नत में प्रवेश करेंगे और उन पर जरा भी अन्याय नहीं किया जाएगा।"

अरब अज्ञानता की महिला शत्रुता की कुरआन मे निंदा

इन आयतो के अलावा क़ुरआन मे विभिन्न स्थानो पर अरब अज्ञानता की महिला से लापरवाही और घृणा के व्यवहार को कठोरता के साथ रद्द किया गया है। जैसेः

وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُمْ بِالْأُنْثَیٰ ظَلَّ وَجْهُهُ مُسْوَدًّا وَهُوَ کَظِیمٌ؛ یَتَوَارَیٰ مِنَ الْقَوْمِ مِنْ سُوءِ مَا بُشِّرَ بِهِ أَیُمْسِکُهُ عَلَیٰ هُونٍ أَمْ یَدُسُّهُ فِی التُّرَابِ أَلَا سَاءَ مَا یَحْکُمُونَ व इज़ा बुश्शेरा अहदोहुम बिल उंसा ज़ल्ला वज्होहू मुस्वद्दन व होवा कज़ीमुन, यतावारा मेनल क़ौमे मिन सूइन मा बुश्शेरा बेहि अयुम्सेकहू अला हूनिन अम यदुस्सोहू फ़ित तुराबे अला साआ मा यहकोमूना "उस दौर में जब किसी को बेटी होने की खबर मिलती तो उसका चेहरा काला पड़ जाता और वह ग़ुस्से में भर जाता था। वह इस बुरी खबर से इतने दुखी होता कि लोगों से छुपता फिरता और सोचता था कि इस बच्ची को अपमानित करके रखूँ या मिट्टी में दबा दूँ। देखो कैसा बुरा फ़ैसला था जो वो करते थे।"

आरेबों के लिए बेटी की पैदाइश शर्म की बात होती थी क्योंकि वे सोचते थे कि जब लड़की बड़ी होगी तो वह युवकों के ताने सुनने और छल में पड़ने वाली होगी, जिससे परिवार का अपमान होगा। यही सोच उन्हें अपनी बेटियों को ज़िंदा दफनाने जैसे निर्दय कृत्य तक ले गई।

कुरान ऐसी कृत्यों की निंदा इस आयत में करता है وَإِذَا الْمَوْءُودَةُ سُئِلَتْ؛ بِأَیِّ ذَنْبٍ قُتِلَتْ व इज़ल मौऊदतो सोऐलत, बेअय्ये जम्बिन क़ौतेलत कि जब ज़िंदा दफन की गई बच्ची से पूछा जाएगा कि वह किस अपराध में मारी गई।

इस्लाम आने के बाद भी यह सोच पूरी तरह खत्म नहीं हुई और कुछ गलत विचार पीढ़ी दर पीढ़ी मुस्लिम समाज में बने रहे।

उदाहरण के लिए, अगर कोई पुरुष और महिला ज़िना करें तो बदनामी अधिकतर महिला के सिर डाली जाती है चाहे वह तौबा कर ले जबकि पुरुष को अक्सर बदनाम नहीं माना जाता है, हालांकि इस्लाम दोनों को समान दोषी मानता है और दोनों को समान सजा देता है। 

(जारी है…)
(स्रोत: तर्ज़ुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 409)

सुप्रीम लीडर के संदेश के अनुसार, "फिलॉसफी और इसकी सोशल कंटिन्यूटी" विषय पर छठे आइडिया प्रोसेसिंग सेशन में हौज़ा ए इल्मिया और हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन और इंडिपेंडेंट फिलॉसफी कोर्स के टीचरों ने आयतुल्लाह आराफ़ी के सामने अपनी चिंताएं और सुझाव रखे।

सुप्रीम लीडर के संदेश के अनुसार, "फिलॉसफी और इसकी सोशल कंटिन्यूटी" विषय पर छठा आइडिया प्रोसेसिंग सेशन मदरसे में एजुकेशनल मामलों के हेड की देखरेख में और क़ुम में मौजूद सेंटर और दूसरे एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन के सहयोग से हुआ।

सेशन का विषय "फिलॉसफी और इसकी सोशल कंटिन्यूटी" था, जो इंटेलेक्चुअल और कल्चरल फील्ड के बुनियादी और ज़रूरी विषयों में से एक है और सुप्रीम लीडर के समझदारी भरे बयानों से लिया गया है।

सुप्रीम लीडर ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि "फिलॉसफी अपना असली मकसद तभी हासिल कर सकती है जब वह सिर्फ सोच के दायरे से बाहर निकलकर आने वाली पीढ़ियों की ज़िंदगी और मॉडर्न इस्लामिक सभ्यता को साकार करने में अपनी भूमिका निभाए।" यह मीटिंग, असल में, समाज के इंटेलेक्चुअल विकास और इस्लामिक कल्चरल सिस्टम पर फिलॉसफी के असर के पहलुओं को साफ करने का एक शानदार मौका था।

हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख आयतुल्लाह आराफ़ी मौजूदगी में हुए इस 3 घंटे के करीबी सेशन और एकेडमिक मीटिंग में, कई टीचर्स और एक्सपर्ट्स ने इस बारे में अपने सुझाव और अपनी चिंताएं बताईं।

हौज़ा ए इल्मिया में एजुकेशनल अफेयर्स के सुपरवाइज़र, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अबुल-कासिम मुकीमी हाजी ने मीटिंग की शुरुआत में कहा: यह मीटिंग फिलॉसफी की सोशल कंटिन्यूटी के टॉपिक पर तालमेल बिठाने की दिशा में एक कदम है। हम इस्लामिक फिलॉसफी कोर्स के टॉपिक्स और सिलेबस का रिव्यू करने की कोशिश कर रहे हैं।

उन्होंने आगे कहा: पिछले कुछ सालों में, फिलॉसफी के टॉपिक्स और लेसन का रिव्यू किया जा रहा है और हम सम्मानित टीचर्स से इस बारे में अपनी राय देने की रिक्वेस्ट करते हैं। हौज़ा ए इल्मिया के डेवलपमेंट और इसके अलग-अलग इश्यूज पर स्पेशल सेशन की एक सीरीज़ की शुरुआत है। हमने तय किया है कि इस मीटिंग से, हम स्पेशल साइंस का भी रिव्यू करेंगे और फिलॉसफी इसके लिए शुरुआती पॉइंट होगी।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मुकीमी हाजी ने आगे कहा: स्पेशल एजुकेशनल कमेटियों में दी गई राय का रिव्यू किया जाएगा और उनके आधार पर फिलॉसफी में नए कोर्स और टॉपिक डिजाइन किए जाएंगे। इसका मकसद यह है कि इस चर्चा का मदरसे की एजुकेशनल और रिसर्च पॉलिसी पर असली असर पड़े, न कि सिर्फ़ एक आइडियोलॉजिकल बहस।

इमाम खुमैनी (र) एजुकेशनल और रिसर्च इंस्टीट्यूट की एकेडमिक कमेटी के सदस्य हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मुज्तबा मिस्बाह यज़्दी ने हज़रत फातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की शहादत के दिनों पर दुख जताने के बाद इस मीटिंग में अपनी स्पीच में कहा: मदरसे को दुश्मन के इंटेलेक्चुअल खतरों में सबसे आगे रहना चाहिए। मरहूम अल्लामा तबातबाई (र) की बरसी इस्लामिक सभ्यता को साकार करने में फिलॉसफी की भूमिका पर सोचने का एक सही मौका है।

इस मदरसे और यूनिवर्सिटी टीचर ने आगे कहा: क़ोम मदरसे की स्थापना की सौवीं सालगिरह के मौके पर सुप्रीम लीडर के मैसेज के मुताबिक, मदरसे को दुश्मन के इंटेलेक्चुअल खतरों का सामना करने में सबसे आगे रहना चाहिए। मदरसा सोशल सिस्टम में इस्लाम की इंटेलेक्चुअल व्याख्या का सेंटर है और कल्चरल इनोवेशन का सबसे बड़ा सोर्स है।

उन्होंने आगे कहा: मदरसे के एजुकेशनल प्रोग्राम में ज्यूरिस्प्रूडेंस के साथ-साथ समाज को शामिल करने वाली फिलॉसफी की जानकारी और जवाबदेही शामिल होनी चाहिए। "ज्यूरिस्प्रूडेंस, फिलॉसफी और थियोलॉजी" की तीन एकेडमिक ब्रांच पवित्र कुरान की समझ और व्याख्या के आधार पर डेवलप होनी चाहिए।