رضوی

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हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और फ़िदक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़िदक का वास्तविक्ता क्या है? और क्या फ़िदक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़िदक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर बहस करें।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और फ़िदक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़िदक का वास्तविक्ता क्या है? और क्या फ़िदक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।

हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़िदक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर बहस करें।

यह लेख केवल प्रस्तावना भर है जिसमें हम वह सारी बहसें जो फ़िदस से सम्बंधित हैं और जिनके बारे में हम बहस करेंगे उनको आपके सामने बयान करेंगें, और फ़िदक के बारे में अपने दावों और अक़ीदों को स्पष्ट करें।

सूरा असरा आयत 26 में ख़ुदा फ़रमाता हैः

وَآتِ ذَا الْقُرْ‌بَىٰ حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ

हे पैग़म्बर अपने परिजनों का हक दे दो

मोतबर रिवायतों में आया है कि इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) को आदेश होता है कि फ़िदक को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) को दें।फ़िदक विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण मसला है जिनमें से एक उसका इतिहास है

फ़िदक इतिहास के पन्नों में:

इस बहस में सबसे पहली बात या प्रश्न यह है कि फ़िदक क्या है? और क्यों फ़िदक का मसला महत्वपूर्ण है?

यह फ़िदक मीरास था या एक उपहार था? जिसमें पैग़म्बर को आदेश दिया गया था कि फ़ातेमा को दिया जाए।

पैग़म्बर (स) की वफ़ात के बाद फ़िदक का क्या हुआ? यह फ़िदक क्या वह सम्पत्ति थी जिसकों मुसलमानों के बैतुल माल में वापस जाना चाहिए था या हज़रत ज़हरा का हक़ था?

यहां पर बहुस सी शंकाए या प्रश्न भी पाए जाते हैं जैसे यह कि फ़ातेमा ज़हरा (स) जो कि पैग़म्बर की बेटी हैं जो संसारिक सुख और सुविधा से दूर थी, जो मासूम है, जिनकी पवित्रता के बारे में आयते ततहीर नाज़िल हुई है, वह क्यों फ़िदक को प्राप्त करने के लिए उठती हैं? और वह प्रसिद्ध ख़ुत्बा जिसको "ख़ुत्बा ए फ़िदक" कहा जाता है आपने बयान फ़रमाया। आख़िर एसा क्या हुआ कि वह फ़ातेमा (स) जो नमाज़ तक पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं जाती थीं आपने मस्जिद में जाकर यह ख़ुत्बा दिया। जो आज हमारे हाथों में एक एतिहासिक प्रमाण के तौर पर हैं।

इस्लामिक इतिहास में फ़िदक के साथ कब क्या हुआ? हम अपनी इस बहस यानी फ़िदक तारीख़ के पन्नों में बयान करेंगे। और वह शंकाएं जो फ़िदक के बारे में हैं उनको बिना किसी तअस्सुब के बयान और उनका उत्तर देंगे।

हमने अपने पिछले लेख़ों में फ़ातेमा ज़हरा की उपाधियों और उनके स्थान को बयान किया है, फ़ातेमा (स) वह हैं जिनकों पैग़म्बर ने अपनी माँ कहा है, जिनकी मासूमियत और पवित्रता की गवाही क़ुरआन दे रहा है, यही कारण है कि यह फ़िदक का मसला हमारे अक़ीदों से मिलता है कि वह फ़ातेमा (स) जो मासूम हैं उनकी बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

हज़रत ज़हेरा (स) वह हैं जिनके बारे में शिया और सुन्नी एकमत है कि उनका क्रोध ईश्वर का क्रोध है और उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता है, फ़ातेमा (स) वह है जिनको दुश्मनों के तानों के उत्तर में कौसर बना कर पैग़म्बर को दिया था।

ख़ुदा हज़रत ज़हरा (स) मापदंड हैं, कि पैग़म्बर की शहादत के बाद जो घटनाएं घटी उनमें फ़ातेमा (स) ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई, आपने जो प्रतिक्रिया दिखाई आज को युग में हमारे लिए हक़ को बातिल और सच को झूठ से अलग करने वाला है।

सवाल यह है कि आज हम किस सोंच का अनुसरण करें, उस सोंच का जो हज़रत अली (अ) को पैग़म्बर के बाद उनका जानशीन और ख़लीफ़ा मानती है या उस सोंच का जो पैग़म्बर के बाद सक़ीफ़ा में चुनाव के माध्यम से ख़लीफ़ा बनाती है, या उन मज़हबों का अनुसरण करें जिनके इमाम पैग़म्बर की मौत के दसियों साल बाद पैदा हुए?

हज़रत ज़हरा (स) पैग़म्बर की शहादत के बाद किसकों उनके बाद के इमाम के तौर पर स्वीकार करती है (याद रखिए कि इमामत की बहस इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया है कि जो अपने ज़माने के इमाम को ना पहचाने उसकी मौत जाहेलियत (यानी क़ुफ़्र) की मौत है) क्या वह पहले ख़लीफ़ा को इमाम मानती है? या नहीं।

फ़िदक एक बहाना है इस बात का ताकि लोगों को जगा सकें लोगों को जागरुक बना सकें, अगर क़ुरआन इब्राहीम द्वारा इमामत के सवाल के उत्तर में कहता है कि ज़ालिम को इमामत नहीं मिल सकती है, तो फ़ातेमा (स) जब खड़ी होती हैं और कहती हैं कि यह फ़िदक मेरा हक़ है और मुझ से छीना गया है। उनकी यह प्रतिक्रिया हमको और आपको क्या समझा रही है? यह बता रही है कि फ़ातेमा (स) पर ज़ुल्म हुआ है और ज़ालिम रसूल का ख़लीफ़ा नहीं  हो सकता है

फ़ातेमा ज़हरा (स) का क़याम केवल ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं था, बल्कि आपका यह क़याम उन सारे लोगों को जगाने के लिए था जो ग़दीर के मैदान में मौजूद थे और जिन्होंने अली (अ) की बैअत की थी।

एक ऐसा युग आरम्भ हो गया था कि जब पैग़म्बर के कथन से मुंह फिरा लिया गया था,  और ऐसे युग में फ़ातेमा (स) का फ़िदक को वापस मांगना वास्तव में विलायत, इमामत और अली (अ) की ख़िलाफ़त का मांगना था।

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, सुन्नियों के प्रसिद्ध आलिम इब्ने अबिलहदीद ने यही प्रश्न अपने उस्ताद से किया। वह कहता है कि मैंने अपने उस्ताद से प्रश्न कियाः क्या फ़िदक के बारे में फ़ातेमा (स) का दावा सच्चा था?

उस्ताद ने कहाः हां

मैंने कहाः तो क्यों पहले ख़लीफ़ा ने फ़िदक फ़ातेमा को नहीं दिया, जब्कि उनको पता था कि फ़ातेमा सच बोल रही है।

तो उस्ताद मुस्कुराए और कहाः अगर अबू बक्र फ़ातेमा के दावा करने पर फ़िदक उन को दे देते, तो वह कल उनके पास आतीं और अपने पति के लिए ख़िलाफ़त का दावा करती, और उनको सत्ता से हटा देतीं और उनके पास कोई जवाब भी ना होता, क्योंकि उन्होंने फ़िदक को दे कर यह  स्वीकार कर लिया होता कि फ़ातेमा जो दावा करती हैं वह सच होता है।

इसके बाद इब्ने अबिलहदीद कहता हैः यह एक वास्तविक्ता है अगरचे उस्ताद ने यह बात मज़ाक़ में कहीं थी।

इब्ने अबिलहदीद की यह बात प्रमाणित करती है कि फ़िदक की घटना एक सियासी घटना थी जो ख़िलाफ़त से मिली हुई थी और फ़ातेमा (स) का फ़िदक का मांगना केवल एक ज़मीन का टुकड़ा मांगना नहीं था।

यही कारण है कि फ़ातेमा (स) की बात स्वीकार नहीं की गई पैग़म्बर के नफ़्स अली की बात स्वीकार नहीं की गई, उम्मे एमन जो कि स्वर्ग की महिलाओं में से हैं उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।

हम अपनी बहसों में यही बात प्रमाणित करने की कोशिश करेंगे किः

मार्गदर्शन और हिदायत का मापदंड हज़रते ज़हरा (स) हैं, हमको देखना होगा कि आपने किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार।

आख़िर क्यों हज़रत ज़हरा (स), इमाम अली (अ) और उम्मे एमन की बात को स्वीकार नहीं किया गया?

हम अपनी बहसों में साबित करेंगे कि पैग़म्बर ने अपने जीवनकाल में ही ईश्वर के आदेश से फ़िदक को हज़रते ज़हरा (स) को दिया था और आपने पैग़म्बर के जीवन में उसको अपनी सम्मपत्ति बनाया था।

फ़ातेमा ज़हरा (स) ने कुछ लोगों की वास्तविक्ता को साबित करने और इमामत को उसके वास्तविक स्थान पर लाने के लिए क़याम किया जिसका पहला क़दम फ़िदक है।

यह इमामत का मसला छोटा मसला नहीं है, ख़ुदा ने हमारे लिए पसंद नहीं किया है कि जो हमारा इमाम और रहबर हो वह मासूम ना हो, लेकिन हमने इसका उलटा किया मासूम को छोड़कर गै़र मासूम को अपना ख़लीफ़ा बना लिया।

अगर हज़रत ज़हरा (स) फ़िदक को वापस ले लेती तो जिस तर्क से फ़िदक वापस लेती उसी तर्क से ख़िलाफ़ को भी अली (अ) के लिए वापस ले लेतीं और यही कारण है कि आप अपने दावे तो प्रमाणित करने के लिए ख़ुद गवाही देती हैं, अली (अ) गवाही देते हैं उम्मे एमन गवाही देती हैं, लेकिन इस सबकी गवाही रद कर दी जाती है।

जब हज़रत ज़हरा (स) देखती हैं कि फ़िदक को हदिया और पैग़म्बर का दिया हुआ उपहार यह लोग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो वह मीरास का मसला उठाती है, कि अगर तुम लोग उपहार मानने के लिए तैयार नहीं हो तो कम से कम पैग़म्बर की मीरास तो मानों जो मुझको मिलनी चाहिए।

और यही वह समय था कि जब इस्लामी दुनिया में सबसे पहली जाली हदीस गढ़ी गई और कहा गया कि पैग़म्बर ने फ़रमाया हैः

نحن معاشر الانبياء لا نورث

हम पैग़म्बर लोग मीरास नहीं छोड़ते हैं।

हज़रते ज़हरा (स) साबित करती है किः  इस हदीस को किसी ने नहीं सुना है यह हदीस क़ुरआन के विरुद्ध है। क्योंकि क़ुरआन में साफ़ साफ़ शब्दों में पैग़म्बरों की मीरास के बारे में बयान किया गया है कि वह मीरास छोड़ते हैं।

और एक समय वह भी आता है कि जब हज़रत ज़हरा (स) को फ़िदक के दस्तावेज़ वापस दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों की साज़िश के बाद दोबारा फ़िदक फ़ातेमा (स) से छीन लिया जाता है।

इसके बाद हज़रत ज़हरा (स) नया कदम उठाती है, वह ज़हरा (स) जिसका घर उसकी मस्जिद थी वह अपने छीने हुए हक़ के लिए क़याम करती हैं और मस्जिद में आती है और एक महान ख़ुत्बा देती हैं जो ज्ञान से भरा हुआ है ताकि आज जो हम और आप बैठे है ताकि जान सकें कि इमाम अली (अ) और उनके बाद ग्यारह इमामों की इमामत का मसला कोई कम मसला नहीं है बल्कि यह एक सोंच और रास्ता है जन्नत का जान सकें और उसका अनुसरण कर सकें।

और अंत में हज़रत ज़हरा (स) अंसार को सहायता के लिए बुलाती हैं।

और उसके बाद आप एक और क़दम उठाती हैं और आप वसीयत करती हैं किः "हे अली मुझे रात में ग़ुस्ल देना रात में कफ़न पहनाना और रात में दफ़्न करना और मेरी क़ब्र का निशान मिटा देना और मैं राज़ी नहीं हूँ कि जिन लोगों ने मुझे परेशान किया और दुख का कारण बने वह मेरे जनाज़े में समिलित हों"।

क्या आपने कभी सोंचा है कि पैग़म्बर की शहादत के बाद क्यों हदीस को बयान करने और उसको लिखने से रोका गया?  

इसका कारण यही था कि अगर पैग़म्बर की हदीसों को नहीं रोका गया तो वास्तविक्ता प्रकट हो जाएगी और उनका भेद खुल जाएगा।

यही कारण था कि पहले दौर में हदीस को बयान करने से रोका गया, उसका बाद के दौर में हदीसों को जलाया गया, और उसके बाद के दौर में जाली हदीसें गढ़ी गईं।

 

इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का सातवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:

अरब समाज मे औरत का मक़ाम

अल्लामा तबातबाई लिखते हैं कि अरब समाज में कुछ ऐसे परिवार भी थे जो अपनी बेटियों को शादी के मामले में कुछ हद तक अधिकार देते थे, यानी उनकी रज़ामंदी और पसंद का एहतराम करते थे। यह रवैया ज़्यादातर उन परिवारो में पाया जाता था जो उच्च वर्ग के तरीक़ों से प्रभावित थे।

कुल मिला कर अरबों का औरतों के साथ बर्ताव तहज़ीबयाफ़्ता और वहशी क़बीलों के रवैयों का एक अजीब सा मेल था।

औरतों को क़ानूनी इख़्तियार न देना
उन्हें सियासी और सामाजिक मामलों में — जैसे हुकूमत, जंग, या फिर अपने निकाह पर भी — शामिल न करना, यह सब उन असरात में से था जो अरबों ने रोम और ईरान जैसी ताक़तवर क़ौमों से लिए थे।
जबकि औरतों को क़त्ल करना, ज़िंदा दफ़्न कर देना या उन पर ज़ुल्म ढाना ये रवैये उन्होंने वहशी और बर्बर क़बीलों से अपनाए थे।
तो इस तरह औरत की वंचना का ताल्लुक घर के सरबराह की ख़ुदाई से नहीं था, बल्कि ताक़तवर का कमज़ोर को दबा लेने और अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने का नतीजा था।

क़बीलों का अजीब अक़ीदा “अपने ख़ुदा को खा जाना”
अरब समाज का कुल मिलाकर हाल यह था कि वे बुतपरस्त थे। मर्द और औरत दोनों बुतों की पूजा करते थे। उनका अक़ीदा सितारों और फ़रिश्तों के बारे में वही था जो क़दीम साबियों का था। अलग-अलग क़बीले अपनी पसंद और चाहत के मुताबिक़ अलग-अलग बुत बनाते थे।

कुछ क़बीले सितारों और फ़रिश्तों की (जिन्हें वे ख़ुदा की बेटियाँ समझते थे) मूर्तियाँ बनाते और उनकी पूजा करते थे। बुत कभी पत्थर के, कभी लकड़ी के और कभी मिट्टी के होते थे।

हद तो तब हुई जब क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत (सूखे) के ज़माने में खजूर, कश्क (सूखा दही), चरबी और आटे से एक बुत बनाया और सालों उसकी पूजा करते रहे। लेकिन जब शदीद भूख लगी तो उन्होंने अपने ही “ख़ुदा” को खा लिया!

इस वाक़े पर एक शायर ने तंज़ किया “क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत के ज़माने में अपने परवरदिगार को खा लिया; न अपने माबूद से डरे और न ही इस अंजाम-ए-बद से ख़ौफ़ खाया।”

कुछ क़बीले जब नया सुंदर पत्थर देख लेते थे तो पुराने बुत को छोड़कर नए को ख़ुदा बना लेते थे। और अगर कुछ न मिलता तो मिट्टी का ढेला बना लेते, उस पर बकरी का दूध दुहते और उसी के चारों तरफ़ तवाफ़ शुरू कर देते!

औरतों की फ़िक्री कमज़ोरी और ख़ुराफ़ात का फैलाव
इस सामाजिक ज़ुल्म और महरूमी ने औरतों में शदीद ज़हनी कमज़ोरी पैदा कर दी थी। वे तरह-तरह के वहमों, गुमानों और ख़ुराफ़ात का शिकार हो गई थीं। तारीख़ी किताबों में ऐसी बहुत सी मिसालें दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर की औरतें हादसों और रोज़मर्रा ज़िंदगी के मामलात के बारे में अजीब-ओ-ग़रीब तसव्वुरात रखती थीं।

यह था ज़माना-ए-जाहिलियत और इस्लाम के ज़ुहूर से पहले मुख़्तलिफ़ क़ौमों के समाजों में औरत की हालत का एक मुख़्तसर ख़ाका।

(जारी है…)

(स्रोत: तरजुमा तफ़्सीर अल-मीज़ान, भाग 2,  पेज 404)

 

शहीद एडवार्डो आनीली तारीख़ में सिर्फ़ एक नाम नहीं बल्के एक ज़िंदा और बेदार हक़ीक़त है; ऐसी हक़ीक़त जो ईरान और पूरी दुनियाए-इस्लाम में मुक़ावमत की अलामत है और इटली के लिए भी आलमी इस्तिकबार की ग़ुलामी से निज़ात का रोशन नमूना बन सकती है।

एडवार्डो आनीली (1954-2000) की शहादत के पचीसवें साल में भी हक़ीक़त ज़िंदा है और माजरा के नए पहलू वाज़ेह होते जा रहे हैं।

इटली के मशहूर सनअती ख़ानदान का यह फ़र्ज़ंद, एडवार्डो आनीली जो फ़िएट इटली की सबसे बड़ी गाड़ी बनाने वाली कंपनी जैसी आलमी शोहरत याफ़्ता कंपनी का वारिस बन सकता था एक मुख़्तलिफ़ रास्ते पर गामज़न हुआ; ईमान का रास्ता, आज़ादी का रास्ता और ज़ुल्म व इस्तिकबार के मुक़ाबले डट जाने का रास्ता।

एक चहारुम सदी गुज़र गई कि शहीद महदी एडवार्डो आंदेली ने मज़लूमाना और ग़रीबाना तरीक़े से जाम-ए-शहादत नोश किया।

एडवार्डो आनीली ने इस्लाम क़ुबूल करके मज़हब-ए-अहल-ए-बैत अ.स. और इन्क़िलाब-ए-इस्लामी की पैरवी इख़्तियार की, और न सिर्फ़ अपने ख़ानदान के रिवायती रास्ते से दूर हुआ बल्कि इटली और इस्लाम-ए-नाब-ए-मुहम्मदी स.अ.व. के दरमियान मआनवी पुल बन गया।

उसने सिदक़ और शुजाअत के साथ, शदीद दबाव के बावजूद, अपनी इस्लामी और इन्क़िलाबी शनाख़्त को दुनिया के फ़ायदों के लिए क़ुर्बान न किया।

उनकी शहादत जो एक मुनज़्ज़म मन्सूबे के तहत वक़ूअ पज़ीर हुई आज भी कई सवालात को जनम देती है।

नए शवाहिद इस हक़ीकत की तरफ़ इशारा करते हैं कि उसे फ़िएट की जानशिनी से दूर करना किसी बड़े प्लान का हिस्सा था ऐसा मन्सूबा जो एक मुसलमान और शिया वारिस की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकता था।

आज भी एडवार्डो की याद एक रोशन चराग़ की तरह क़ुलूब और अफ़्कार को मुनव्वर करती है।

वह मिल्लतों और तहज़ीबों के दरमियान एक मज़बूत पुल है; ज़ुल्म के मुक़ाबले इस्तेक़ामत और हक़ व अदालत के दिफ़ा का इन्क़िलाबी दाई था।

शहीद एडवार्डो आनीली तारीख़ में सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि एक ज़िंदा और बेदार हक़ीक़त है ऐसी हक़ीक़त जो ईरान और पूरी दुनियाए-इस्लाम में मुक़ावमत की अलामत है और इटली के लिए भी आलमी इस्तिकबार की ग़ुलामी से निजात का रोशन नमूना बन सकती है।

 

इंडोनेशिया ने घोषणा की है कि वह गज़्ज़ा में शांति बनाए रखने के लिए 20 हजार सैनिक भेजने के लिए तैयार है।

इंडोनेशिया के रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की है कि यह देश गाजा में शांति बनाए रखने के लिए 20 हजार सैनिक भेजने के लिए तैयार है।

रक्षा मंत्री जाफरी शम्सुद्दीन के अनुसार, यदि ये सैनिक भेजे गए तो उनका प्राथमिक मिशन इलाज, पुनर्निर्माण और मानवीय सहायता उपलब्ध कराना होगा।

यह घोषणा ऐसे समय में सामने आया है जब जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला द्वितीय जकार्ता के दौरे पर हैं और उन्होंने इंडोनेशिया के राष्ट्रपति से गाजा के भविष्य के लिए डोनाल्ड ट्रम्प की 20-सूत्रीय योजना पर बातचीत की है।

इस योजना के तहत गाजा में युद्धविराम को स्थिर करने के लिए एक बहुराष्ट्रीय सेना तैनात की जाएगी।

अमेरिका अब तक इंडोनेशिया, मिस्र, अज़रबैजान, संयुक्त अरब अमीरात और कतर सहित कई देशों से इस सेना में शामिल होने के लिए बातचीत कर चुका है, जबकि इज़राइल ने तुर्की की शामिल होने का विरोध किया है।

 

 

जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।

जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया

डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।

उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:

(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।

(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।

(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।

रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।

रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।

इनकी पहचान के तरीके

  • अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
  • नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
  • दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
  • लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।

नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।

उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।

 

जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।

जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया

डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।

उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:

(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।

(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।

(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।

रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।

रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।

इनकी पहचान के तरीके

  • अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
  • नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
  • दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
  • लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।

नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।

उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।

 

जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।

जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया

डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।

उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:

(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।

(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।

(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।

रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।

रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।

इनकी पहचान के तरीके

  • अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
  • नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
  • दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
  • लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।

नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।

उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।

 

अमीरुल मोमेनीन इमाम अली (अ) ने एक रिवायत में बुरे अखलाक़ की विशेषताएँ बताई हैं।

निम्नलिखित रिवायत "ग़ेरर अल हिकम" पुस्तक से ली गई है। इस रिवायत का पाठ इस प्रकार है:

قال امیرالمؤمنين عليه السلام:

أَلسَّيِّئُ الْخُلُقِ كَثيرُ الطَّيْشِ مُنَغَّصُ الْعَيْشِ

अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ) ने फ़रमाया:

बद अख़लाक़ व्यक्ति बहुत क्रोधी होता है और जीवन को कड़वा और अप्रिय बना देता है।

ग़ेरर अल हिकम, हदीस 1604

 

इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया (ICV) ने अपनी आधी सदी के सेवा कार्यों का जश्न एक गरिमामय समारोह में मनाया, जिसमें ऑस्ट्रेलिया भर के उलेमा, मंत्रियों, संसद सदस्यों और समुदाय प्रतिनिधियों ने भाग लेकर संस्था की धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सेवाओं को श्रद्धांजलि अर्पित की।

मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया में इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया (आईसीवी) की 50 वर्षीय सेवाओं की मान्यता में एक भव्य समारोह आयोजित किया गया, जिसने ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय की एकता, सक्रियता और सामाजिक जागरूकता का सुंदर प्रदर्शन पेश किया। विभिन्न मसलक के उलेमा, सरकारी अधिकारी, समुदाय नेता और गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति ने समारोह के महत्व को और बढ़ा दिया।

समारोह की अध्यक्षता आईसीवी के अध्यक्ष श्री मोहम्मद मोईनुद्दीन ने की, जबकि ऑस्ट्रेलियन फेडरेशन ऑफ इस्लामिक काउंसिल्स (ICV) के अध्यक्ष डॉ. रातिब जुनैद मुख्य अतिथि थे। इस अवसर पर शिया उलेमा काउंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया के अध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैय्यद अबुल कासिम रिजवी, इमाम मोहम्मद नवास और अन्य समुदाय हस्तियां भी मौजूद थीं।

ICV पिछले पचास वर्षों से ऑस्ट्रेलिया में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व और सेवा करने वाले सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में से एक है। इसके तहत सत्तर से अधिक मस्जिदें और इस्लामिक केंद्र सक्रिय हैं, जहां शिक्षा और प्रशिक्षण, सामाजिक कल्याण, युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन, अंतर-धर्म सद्भाव और समुदाय विकास जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निरंतर सेवाएं प्रदान की जा रही हैं।

समारोह में वक्ताओं ने ICV की आधी सदी तक फैली सेवाओं का विवरण प्रस्तुत किया और ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय की प्रगति और स्थिरता में संस्था की सक्रिय भूमिका की सराहना की। इस्लामोफोबिया की बढ़ती चुनौतियों, युवाओं के चरित्र निर्माण, कुरआनी शिक्षाओं के प्रसार और सीरत-ए-नबवी सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम के व्यावहारिक क्रियान्वयन जैसे विषयों पर भी विस्तृत चर्चा हुई। प्रस्तुत की गई विशेष प्रस्तुति ने सभी प्रतिभागियों को अत्यंत प्रभावित किया।

समारोह को संबोधित करते हुए हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैय्यद अबुल कासिम रिजवी ने आईसीवी को आधी सदी पूरी करने पर बधाई दी और संस्था की निरंतर सेवाओं की सराहना की। उन्होंने कहा: हमारी जिम्मेदारी है कि युवा पीढ़ी का सही मार्गदर्शन करें, बेहतर भविष्य की नींव रखें और प्रेम, सम्मान, मानवता की सेवा और शांति के संदेश को व्यापक रूप से फैलाएं।

प्रतिभागियों ने इस समारोह को मेलबर्न के समुदाय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और यादगार अध्याय करार दिया, जिसने सहयोग, एकता और साझा सेवा की भावना को मजबूती प्रदान की।

इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया की पचास वर्षीय सेवाएं निश्चित रूप से ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय के लिए प्रकाश और मार्गदर्शन का स्रोत हैं और यह संस्था भविष्य में भी उसी जोश और उत्साह के साथ धर्म और मानवता की सेवा जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है।

 

लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में एक इज़रायली ड्रोन के गिरने की घटना ने एक बार फिर दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण हालात को सुर्खियों में ला दिया है।

लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में एक इज़रायली ड्रोन के गिरने की घटना ने एक बार फिर दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण हालात को सुर्खियों में ला दिया है। स्थानीय सूत्रों ने बताया कि यह बिना पायलट वाला विमान लेबनान की अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट स्थित कफ़रकला क्षेत्र में शनिवार दोपहर अचानक नीचे गिर गया, जिसके बाद इसे तुरंत लेबनानी सुरक्षा बलों ने अपने कब्ज़े में ले लिया।

अल जाज़ीरा के अनुसार, लेबनान में यह पहली बार नहीं है जब इज़रायल का कोई ड्रोन या लड़ाकू विमान लेबनानी हवाई क्षेत्र में देखा गया हो। पिछले कई वर्षों से लेबनान लगातार संयुक्त राष्ट्र को शिकायत दर्ज कराता रहा है कि इज़रायल उसके हवाई क्षेत्र का बार-बार उल्लंघन करता है।

लेबनान का कहना है कि, यह कदम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1701 का सीधा उल्लंघन है, जो 2006 में 33-दिवसीय इज़रायल-लेबनान युद्ध के बाद पारित किया गया था। इस प्रस्ताव में साफ़ तौर पर कहा गया है कि लेबनान और फ़िलिस्तीन के हवाई या ज़मीनी क्षेत्र में किसी भी प्रकार का सैन्य अतिक्रमण प्रतिबंधित है।

इस प्रस्ताव के तहत दक्षिणी लेबनान में संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना (UNIFIL) भी तैनात है, जिसका उद्देश्य सीमा पर शांति बनाए रखना और किसी भी तरह की सैन्य गतिविधि की निगरानी करना है। इसके बावजूद, लेबनान का कहना है कि इज़रायली ड्रोन और लड़ाकू विमान अक्सर क्षेत्र में गश्त करते रहते हैं। कई घटनाओं में लेबनानी सेना ने इन उड़ानों का ज़िक्र अपनी मैदानी रिपोर्टों में किया है।

कुछ मौकों पर लेबनान की सुरक्षा एजेंसियों ने गिरे हुए ड्रोन से ऐसे उपकरण और इलेक्ट्रॉनिक हिस्से भी बरामद किए हैं, जिनसे उनके जासूसी मिशन पर काम करने की पुष्टि होती है। नवीनतम घटना ने भी इस शक को और मज़बूत किया है कि, इज़रायल सीमा क्षेत्रों में निगरानी गतिविधियाँ तेज़ कर रहा है। लेबनान सरकार इस मुद्दे को फिर से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की तैयारी कर रही है।