رضوی
मुश्केलात मे इमाम ज़माना (अ) से मदद और राब्ता कैसे हासिल करे?
मुशकेलात को क़बूल करना, ख़ास दुआओं और ज़ियारतों का एहतमाम करना, नमाज़-ए-इस्तेग़ासा और इमाम-ए-ज़माना (अ) की मारफ़त में इज़ाफ़ा ये सब बातें दिल को सुकून देती हैं और दुनिया की सख्तियों को बर्दाश्त करना आसान बना देती हैं, क्योंकि इमाम (अ) की मौजूदगी और इनायत इंसान के लिए मुश्किलों से गुज़रने का रास्ता हमवार करती है और रूहानी आराम पैदा करती है।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन महदी यूसुफ़ियान, मरकज़-ए-तखस्सुसी महदवियत के माहिर ने “इमाम-ए-ज़माना (अज्) से राब्ता करने का तरीका; मुश्किलात में सुकून” के मौज़ू पर गुफ़्तगू की है, जो आपकी ख़िदमत में पेश है।
बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम
इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत (तौक़ीअ) के बारे में कुछ अहम बातें क़ाबिले तवज्जोह हैं। आम तौर पर इमाम महदी अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत के लिए “तौक़ीअ” (यानी लिखित जवाब या दस्तख़तशुदा ख़त) का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है।
इमाम ज़माना (अज्) के तौक़ीआत दो क़िस्म के हैं:
- वो ख़त जो लोग इमाम को लिखते थे।
- ये ख़त नव्वाब-ए-ख़ास (इमाम के खास प्रतिनिधियो) के ज़रिए इमाम तक पहुंचाए जाते थे। फिर इमाम अलैहिस्सलाम उन ख़तों के नीचे जवाब लिखते और नव्वाब उन्हें वापस लोगों तक पहुंचाते थे।
- वो ख़त जो खुद इमाम महदी अलैहिस्सलाम की तरफ़ से जारी होते थे।
- ये ख़ुतूत सीधे इमाम की तरफ़ से होते और लोगों तक पहुंचाए जाते थे।
मरहूम शेख़ मुफ़ीद नव्वाब-ए-ख़ास के ज़माने में मौजूद नहीं थे; वे कई साल बाद पैदा हुए। इसलिए सवाल पैदा होता है कि इमाम के ख़ुतूत शेख़ मुफ़ीद तक कैसे पहुंचे?
तहक़ीक़ात से मालूम होता है कि ज़माने-ए-नियाबत-ए-ख़ास में भी कभी-कभार इमाम अलैहिस्सलाम अपनी मसलहत से सीधे कुछ अफ़राद को ख़ुतूत रसूल फरमाते थे।
इसलिए शेख़ मुफ़ीद की तरफ़ मंसूब ख़ुतूत भी शायद इसी क़िस्म के हैं।
इमाम अलैहिस्सलाम को शेख़ मुफ़ीद के इल्म, मरतबे और शिया समाज पर उनके असर की वजह से उनसे ख़ास मोहब्बत थी। यही वजह थी कि उनकी वफ़ात के बाद एक तौक़ीअ आम लोगों तक पहुंची और मशहूर हुई।
अगरचे कुछ लोग दो सौ साल के फासले और नव्वाब-ए-ख़ास के ना होने की वजह से इन ख़ुतूत पर शक करते हैं, मगर तारीखी शवाहिद इमाम की ख़ास इनायत की ताइद करते हैं।
सवाल: हम इमाम ज़माना (अज्) से कैसे राब्ता कायम करें ताकि मुश्किल हालात आसानी से बर्दाश्त हो सकें?
जवाब:
- दुनिया की सख्तियों को हकीकत समझ कर क़बूल करना।
- इमाम ज़माना (अज्) का ज़हूर या उनसे राब्ता ये मतलब नहीं कि सारी समस्याएं खत्म हो जाएं, बल्कि ये दिल को ताक़त देता है कि हम उन सख्तियों को बेहतर अंदाज़ में बर्दाश्त कर सकें।
- इमाम ज़माना (अज्) हमारा राब्ता हैं खुदा से।
- इमाम खुदा के ख़लीफ़ा और उसकी हुज्जत हैं। वो हमें खुदा से जोड़ने के लिए रहनुमाई करते हैं। इसलिए इमाम की तवज्जो और तालीमात मुश्किल वक़्त में हमारे लिए बड़ी मददगार साबित होती हैं।
- दुआ और ज़ियारत का सहारा।
- ज़ियारत-ए-आले-यासीन जैसी ज़ियारतें पढ़ने से दिल को सुकून मिलता है। सिर्फ़ इमाम को सलाम कहना भी दिल को इत्मिनान देता है। नमाज़-ए-इस्तेग़ासा बिहज़रत-ए-इमाम ज़माना (दो रकअत) और उसके बाद एक मुख़्तसर दुआ इंसान के अंदर रूहानी सुकून और इमाम से क़ल्बी वाबस्तगी पैदा करती है।
- मआरिफ़त-ए-इमाम को बढ़ाना।
- इमाम से गहरा राब्ता मआरिफ़त का मोहताज है। मआरिफ़त इंसान के दिल में मोहब्बत, यक़ीन और इख़लास पैदा करती है, जिससे आमाल भी खुदा की रज़ा के लिए ज़्यादा ख़ालिस हो जाते हैं।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम का एक खुबसूरत इरशाद है:
एक शख़्स सख्त एहसास और तकलीफ़ में मुबतला था।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: “अगर तुम यक़ीन रखते हो कि अल्लाह सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है और वो हमेशा बंदों के लिए सबसे बेहतर चाहता है, तो ये हालत जिसमें तुम हो — तुम्हारे लिए इसी वक्त सबसे बेहतर फ़ैसला है।”
इस हकीकत को समझ लेने से इंसान मुश्किलात को आसानी से बर्दाश्त कर लेता है, क्योंकि उसे यक़ीन होता है कि इमाम ज़माना (अज्) उसके साथ हैं, और बहुत सी बलाएँ और तकलीफ़ें इमाम की इनायत से हम तक पहुंचने से पहले ही टल जाती हैं।
नतीजा:
दुआ, ज़ियारत और इमाम ज़माना (अज्) के साथ रूहानी तवज्जो के ज़रिए दिल को सुकून और मआरिफ़त में इज़ाफ़ा होता है।
जब इंसान ये हकीकत समझ लेता है कि इमाम की निगाह-ए-लुत्फ़ हर लम्हा उस पर है, तो दुनिया की सारी सख्तियाँ बहुत हल्की महसूस होने लगती हैं।
पुत्रि को अपमान और अवैद बेटे का सम्मान
इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।
तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का छठा हिस्सा पेश किया जा रहा है:
अरब में औरत की हैसियत और उस दौर का माहौल
(वही माहौल जिसमें क़ुरआन नाज़िल हुआ)
अरब बहुत पहले से जज़ीरा-ए-अरब के ख़ुश्क (सूखे), बे-आब-ओ-गयाह और सख़्त गर्म इलाक़ों में आबाद थे। उनमें से ज़्यादा लोग रेगिस्तान में रहने वाले, ख़ाना-बदोश और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से दूर थे। उनका गुजर-बसर ज़्यादातर लूटमार और अचानाक हमलों पर होती थी।
अरब एक तरफ़ उत्तर पूर्व में ईरान से, उत्तर में रोम से, दक्षिण में हबशा के शहरों से और पश्चिम में मिस्र और सूडान से जुड़े हुए थे।इसीलिए उनके रस्म-ओ-रिवाज में जहालत और वहशियाना आदतें ग़ालिब थीं, अगरचे यूनान, रोम, ईरान, मिस्र और हिन्दुस्तान की कुछ रवायतों का असर कभी-कभार उनमें भी देखा जा सकता था।
औरत की कोई हैसियत नहीं थी
अरब औरत को न ज़िन्दगी में कोई इख़्तियार देते थे, न उसकी इज़्ज़त-ओ-हरमत के क़ायल थे। अगर एहतिराम होता भी था तो घराने और ख़ानदान के नाम का, औरत का ज़ाती नहीं। औरतें विरासत में हक़ नहीं रखती थीं। एक मर्द जितनी चाहे बीवियाँ रख सकता था — इस पर कोई हद नहीं थी, जैसे यहूदियों में भी यह रिवाज मौजूब था। तलाक़ का इख़्तियार सिर्फ़ मर्द के पास था; औरत को इसमें कोई हक़ हासिल न था।
बेटी का पैदा होना नंग समझा जाता था
अरब बेटी की पैदाइश को मनहूस और बाइस-ए-शर्म समझते थे। क़ुरआन ने इसी रवैये को बयान करते हुए फ़रमाया: “यतवारा मिनल क़ौमे मिम्मा बुश्शिर बिहि” यानी बेटी की खुशख़बरी सुनकर बाप लोगों से छुपने लगता था।
इसके बरअक्स, बेटे की पैदाइश पर — चाहे वह हक़ीक़ी हो या गोद लिया हुआ — वे बेहद खुश होते थे। यहाँ तक कि वे उस बच्चे को भी अपना बेटा बना लेते थे जो उनके ज़िना के नतीजे में किसी शादीशुदा औरत से पैदा होता। कभी ऐसा होता कि ताक़तवर अफ़राद एक नाजायज़ बच्चे पर झगड़ते और हर शख़्स यह दावा करता कि यह बच्चा मेरा है।
बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना
अरब समाज में बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना भी आम था। इस ख़ौफ़नाक रस्म की इब्तिदा बनू तमीम क़बीले में हुई। वाक़िआ यह था कि उनकी नुमान बिन मुनज़िर से जंग हुई, जिसमें उनकी कई बेटियाँ असीर हो गईं। यह क़बाइली ग़ैरत बर्दाश्त न कर सके और ग़ुस्से में आकर फ़ैसला किया कि आइन्दा अपनी बेटियों को खुद क़त्ल करेंगे ताकि वे दुश्मन के हाथ न लगें।
यूँ यह ज़ालिमाना रस्म आहिस्ता-आहिस्ता दूसरे क़बीलों में भी फैल गई।
(जारी है…)
(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 403)
भारत मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि ने दिल्ली में आतंकवादी हमले की कड़ी निंदा की
हिंदुस्तान में वली-ए-फ़क़ीह के प्रतिनिधि हुज्जतुउल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अब्दुल-मजीद हकीम इलाही ने दिल्ली में हुए दहशतगर्दाना हमले की सख़्त मज़म्मत करते हुए उसे इंसानियत के ख़िलाफ़ संगीन जुर्म क़रार दिया और मुतासिरीन के अहले-ख़ाना से दिली ताज़ियत का इज़हार किया।
दिल्ली में हुए हालिया दहशतगर्दाना हमले ने जहाँ कई बेगुनाह हिंदुस्तानियों की जानें लीं, वहीं मुल्क भर में ग़म व अँदोह का माहौल क़ायम कर दिया। इस अफ़सोसनाक सानेह पर हिंदुस्तान में वली-ए-फ़क़ीह के नमायंदे हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अब्दुल-मजीद हकीम इलाही ने एक ताज़ियती व मज़म्मती पैग़ाम जारी किया है।
उन्होंने कहा कि इंतिहाई अफ़सोस के साथ हमें इत्तिला मिली कि दिल्ली में दहशतगर्दों की जानिब से किए गए इस बुज़दिलाना हमले के बाइस मुतअद्दिद मुअज़्ज़ज़ शेहरी जान-बहक और ज़ख़्मी हुए, जिसने हमें शदीद रंज और तकलीफ़ में मुबतला कर दिया है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन हकीम इलाही ने अपने पैग़ाम में वाज़ेह किया कि दहशतगर्दी का हर इक़दाम नाक़ाबिल-ए-मआफ़ी जुर्म है, जो इंसानी, अख़लाक़ी और बैनेल-अक़वामी उसूलों की सरीह ख़िलाफ़वर्जी है। उन्होंने इस हमले को “मुजरिमाना और सफ़्फाक़ाना” क़रार देते हुए सख़्त तरीन अल्फ़ाज़ में मज़म्मत की।
उन्होंने कहा कि हमारा मौक़िफ़ हमेशा से वाज़ेह रहा है कि दहशतगर्दी ख़्वाह कहीं भी हो, क़ाबिल-ए-मज़म्मत है, और इसके तदारुक के लिए आलमी सतह पर मुश्तरका कोशिशें ना-गुज़ीर हैं। उन्होंने दहशतगर्द अनासिर और उनके सरग़नों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कारवाई को वक़्त की ज़रूरत क़रार दिया।
हिंदुस्तान में सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि ने भारत सरकार, जनता और ख़ास तौर पर पसमान्दगान से दिली ताज़ियत का इज़हार करते हुए ख़ुदावंद-ए-मुतआल से जान-बहक होने वालों के लिए मग़फ़िरत, ज़ख़्मियों की जल्द शिफ़ा और अहले-ख़ाना के लिए सब्र-ए-जमील की दुआ की।
अपने पैग़ाम के इख़्तिताम पर उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि हिंदुस्तान हमेशा अम्न, इस्तिहकाम और तरक़्क़ी का मरकज़ बना रहे।
ग़ज़्ज़ा युद्ध-विराम नाज़ुक और लगातार उल्लंघन का शिकारः एंटोनियो गुटेरेस
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम समझौते को नाज़ुक और बार-बार तोड़ा जाने वाला बताते हुए इसके पूर्ण सम्मान की अपील की है। उन्होंने कहा कि युद्ध-विराम, फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान का रास्ता खोल सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम समझौते को नाज़ुक और बार-बार तोड़ा जाने वाला बताते हुए इसके पूर्ण सम्मान की अपील की है। उन्होंने कहा कि युद्ध-विराम, फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान का रास्ता खोल सकता है।
न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गुटेरेस ने कहा,ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम नाज़ुक दौर में है, इसका बार-बार उल्लंघन होता है, लेकिन यह अभी भी लागू है। मैं मज़बूत अपील करता हूँ कि युद्ध-विराम का पूरा सम्मान किया जाए और इसे बातचीत के दूसरे चरण का आधार बनाया जाए, ताकि फ़िलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान के लिए परिस्थितियाँ तैयार हो सकें।
उन्होंने बताया कि मानवीय प्रतिबंधों के बावजूद ग़ज़्ज़ा में राहत कार्य बढ़ाए जा रही हैं। गुटेरेस ने कहा, “कुछ मुश्किलें और अवरोध अब भी मौजूद हैं, लेकिन हम ग़ज़्ज़ा में अपनी मानवीय सहायता को तेज़ी से बढ़ा रहे हैं।उन्होंने जोड़ा आगे संयुक्त राष्ट्र के कदमों का फ़ैसला निश्चित रूप से सुरक्षा परिषद ही करेगी।
अंत में उन्होंने कहा अक्टूबर 2023 से अब तक इज़रायल ने घिरे हुए ग़ज़्ज़ा पट्टी में लगभग 70 हज़ार फ़िलिस्तीनियों को मार दिया है, जिनमें बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की है। इज़रायल ने क्षेत्र के ज़्यादातर हिस्सों को मलबे में बदल दिया है और लगभग पूरी आबादी को बेघर कर दिया है।
दिल्ली मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि और जमात-ए-इस्लामी हिंद के अमीर के बीच महत्वपूर्ण बैठक
हिंदुस्तान मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन डॉ. अब्दुल-मजीद हकीम-इलाही ने अपने वफ्द के हमराह अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद, डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी से दिल्ली में अहम मुलाकात की। दोनों रहनुमाओं ने असर-ए-हाज़िर के चैलेंजेज़, नौजवान नस्ल के फ़िक्री मसाइल, इस्लामी दुनिया की मौजूदा हालत और मुस्तक़बिल के मुश्तरका इल्मी व तर्बियती मंसूबों पर तफ़सीली गुफ़्तगू की।
हिंदुस्तान में वली-ए-फकीह के प्रतिनिधि हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन डॉ. अब्दुल-मजीद हकीम-इलाही ने अपने हमराह वफ्द के साथ जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के मरकज़ी दफ्तर में अमीर-ए-जमाअत, डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी से अहम और मानीखेज मुलाकात की। यह मुलाकात दोनों इदारों के तवील फ़िक्री व समाजी तअल्लुक़ात को मज़ीद मज़बूत बनाने की समत मे एक फ़ैसला-कुन क़दम क़रार दी जा रही है।
मुलाकात का आग़ाज़ निहायत खुशगवार फ़ज़ा में हुआ। अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी ने वफ्द का ख़ैर-मक़दम करते हुए कहा कि सुप्रीम लीडर के दफ़्तर और "जमाअत-ए-इस्लामी हिंद" के बाहमी तअल्लुक़ात कई दहाइयों पर मुहीत हैं। उन्होंने इस अम्र पर ज़ोर दिया कि जमाअत-ए-इस्लामी हिंद मुअतदिल इस्लाम की तर्जुमान है और बैनेल-मज़ाहिब गुफ्तगू को अपनी फ़िक्री आसास का बुनियादी हिस्सा समझती है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन हकीम-इलाही ने अपनी गुफ्तगू में नौजवान नस्ल के फ़िक्री बहरान, सोशल मीडिया के वसी असरात और मग़रिबी तहज़ीबी यलगार के ख़तरात का तफ़सीली जाएज़ा पेश किया।
उन्होंने कहा कि आज सत्तर फ़ीसद नौजवान इंटरनेट से बराहे-रास्त अपनी फ़िक्री ग़िज़ा हासिल कर रहे हैं, ऐसे में दीऩी मराकिज़, उलेमा और जमाअत-ए-इस्लामी जैसे इदारों पर ज़िम्मेदारी पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ चुकी है।
उन्होंने आलमी सतह पर बढ़ती खुदकुशी की शरह, खांदानी निज़ाम के बिखरने और दीऩी शऊर की कमजोरी को संजीदा मसाइल क़रार देते हुए कहा कि इस्लामी इदारों को मौसर ऑनलाइन मौजूदगी इख़्तियार करना अब ना गुज़ीर हो चुका है।
हकीम-इलाही ने इस्लाम की मौजूदा तीन नमायां तअबीरत को वाज़ेह अंदाज़ में बयान किया:
- तकफ़ीरी इस्लाम — शिद्दत-पसंदी, फ़िर्क़ावारियत और तशद्दुद पर क़ायम फ़िक्र; जिसकी मिसाले दाइश, अल-कायदा और बोकोहहराम जैसे गिरोह हैं।
- लिबरल इस्लाम — इस्लामी तालीमात को मग़रिबी अफ़कार के ताबे करने की कोशिश, जिसके नतीजे में फ़िलस्तीन और ग़ज़्ज़ा जैसे मसाइल पर आलम-ए-इस्लाम कमज़ोर नज़र आता है।
- मुअतदिल इस्लाम — इंसाफ़, गुफ़्तगू, अमन और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मज़ाहमत पर क़ायम वो रास्ता जिससे ईरान, हिंदुस्तानी उलेमा और जमाअत-ए-इस्लामी हिंद इत्तेफ़ाक रखते हैं।
उन्होंने 12 रोज़ा ईरान–इस्राईल जंग के दौरान ईरान की हिमायत पर जमाअत-ए-इस्लामी हिंद का ख़ास शुक्रिया अदा किया।
मुलाकात में दोनों इदारों ने मुस्तकबिल के तआवुन के लिए मुतअद्दिद नुक्तों पर इत्तेफ़ाक किया, जिनमें मुश्तरका इल्मी व तहक़ीक़ी मंसूबों का आग़ाज़, फ़िक्री व सकाफ़ती प्रोग्राम, सेमिनार और कॉन्फ़्रेंसों का इनक़ाद, नौजवान नस्ल के लिए तर्बियती वर्कशॉप्स और ऑनलाइन तालीमी मवाद की मुश्तरका तैय्यारी शामिल है।
अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद, डॉ. सादतुल्लाह हुसैनी ने इस तआवुन का ख़ैर-मक़दम करते हुए कहा कि यह शेयरकत वक़्त की बुनियादी ज़रूरत है और जमाअत-ए-इस्लामी हिंद इसे पूरी संजीदगी से आगे बढ़ाएगी।
मुलाकात दोस्ताना और बावक़ार माहौल में इख़्तताम-पज़ीर हुई, जिसके बाद जमाअत-ए-इस्लामी हिंद ने वफ्द के अज़ाज़ में ज़ियाफ़त-ए-अशाइया का एहतमाम किया। इस मुलाक़ात को दोनों इदारों के दरमियान फ़िक्री हम-आहंगी, दीऩी तआवुन और मुश्तरका मंसूबों के एक नए बाब का आग़ाज़ क़रार दिया जा रहा है।
फ़ातिमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा की मारफ़त और मोहब्बत इस दुनिया और आख़िरत में खुशी का स्रोत है
तारागढ़ अजमेर के इमाम जुमा ने नमाज़-ए-जुमे के ख़ुतबों में अय्याम-ए-फ़ातिमिया की मुनासबत से जनाब सय्यदा फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) के फ़ज़ाइल बयान करते हुए कहा कि जनाब फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मारफ़त और मोहब्बत को अपनाना इंसान की सआदत का ज़रिया है। रिवायतों के मुताबिक़, किसी नबी की नबुव्वत उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हुई जब तक उन्होंने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मोहब्बत और फ़ज़ीलत का इकरार न किया।
हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना सैयद नकी महदी ज़ैदी ने तारागढ़ अजमेर, हिंदुस्तान में नमाज़-ए-जुमे के ख़ुतबों में नमाज़ियों को तक़वा-ए-इलाही की नसीहत के बाद, हसब-ए-साबिक़ इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के वसीयत-नामा की शरह व तफ़सीर करते हुए ख़वातीन के हुक़ूक़ का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि अय्याम-ए-अज़ा-ए-फ़ातिमिया (सला मुल्ला अलैहा) की मुनासबत को पेशे-नज़र रखते हुए बेहतर है कि इन दिनों में इस्लाम में ख़वातीन का मकाम और उनका ज़िक्र किया जाए।
उन्होंने मज़ीद कहा कि इस्लाम एक मुकम्मल तरीक़ा-ए-ज़िंदगी और ज़ाबिता-ए-हयात है, जो इंसान की तमाम पहलुओं में रहनुमाई करता है। इस्लाम में औरत का मकाम बहुत अहम है, जो इंसानी मुआशरत की बुनियाद है। इस्लाम ने औरत को वो हुक़ूक़ दिए हैं जो किसी दूसरे मज़हब या क़ौम में नहीं मिलते। मसलन, इस्लाम ने औरतों को पहले ही मीरास का हक़ दिया, वहां जहाँ दुनिया के दूसरे हिस्सों में औरतों को ऐसा हक़ हासिल नहीं था।
तारागढ़ के इमाम जुमा ने कहा कि औरत को इस्लाम में माँ, बीवी, बहन, बेटी और मुआशरे के एक अफ़राद के तौर पर अहम हुक़ूक़ दिए गए हैं। जैसा कि रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि जन्नत माँ के क़दमों तले है जो औरत के मकाम व मरतबा की अहमियत को बयान करता है। ज़ौजा (पत्नि) की हैसियत से मेहर और नान-ओ-नफ़क़ा के बारे में इस्लाम की तालीमात मौजूद हैं, और अगर बेटी है तो इस्लाम ने उसके लिए भी हक़-ए-मीरास तय किया है।
उन्होंने कहा कि औरत को उसके हुक़ूक़ से महरूम करना इस्लाम की तालीमात के खिलाफ़ है। इस्लाम ने औरतों के इन हुक़ूक़ को बयान करके उनकी अज़मत, हरमत और मकाम को वाज़ेह किया है।
हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना नकी महदी ज़ैदी ने कहा कि जनाब-ए-फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मा’रिफ़त और मोहब्बत को अपनाना इंसान की सआदत का ज़रिया है। रिवायतों के मुताबिक़ किसी नबी की नबुव्वत उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हुई जब तक उन्होंने हज़रत फ़ातिमा (सला मुल्ला अलैहा) की मोहब्बत और फ़ज़ीलत का इकरार न किया।
उन्होने कहा कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की शख्सियत इंसानी फहम व इद्राक़ की हदूद से ऊपर है। उनकी मोहब्बत, उनकी मा’रिफ़त और उनकी तालीमात को अपनाना हमारी मुआशरती और रूहानी तरक़्क़ी का ज़ामिन है।
उन्होंने मज़ीद तौक़ीद की कि अय्याम-ए-अज़ा-ए-फ़ातिमिया को पिछले सालों से ज़्यादा इस साल भी जोश-ओ-ख़रोश के साथ मनाया जाए, ताकि इस मुक़द्दस हस्ती की तालीमात नई नस्ल तक पहुँचा सकें और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की सीरत को नशर कर सकें।
तारागढ़ के इमाम जुमा हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना नकी महदी ज़ैदी ने दिल्ली में पेश आए बम ब्लास्ट के हादसे की सख़्त अल्फ़ाज़ में मज़म्मत करते हुए कहा कि हम इस अलमनाक व अफ़सोसनाक हादसे पर इंतिहाई दुख और अफ़सोस का इज़हार करते हैं और मुतासिरा ख़ानदानों के साथ हमदर्दी और यकजहती का इज़हार करते हुए, हम सब मिलकर मुल्क में अम्न-ओ-अमान और भाईचारे की दुआ करते हैं।
इराक़ के चुनाव की सफलता में जनता की इच्छा, जागरूकता और मरजईयत को अहमियत दी जाए
नजफ अशरफ़: इराक़ के इमाम ए जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैय्यद सदरुद्दीन क़बानची ने कहा कि इराक़ के हालिया संसदीय चुनाव पूर्ण शांति, व्यापक जनसहभागिता और बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होने के कारण देश के आधुनिक राजनीतिक इतिहास के सर्वश्रेष्ठ चुनाव साबित हुआ हैं।
नजफ अशरफ़ के इमाम-ए-जुमा हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैय्यद सदरुद्दीन क़बानची ने हुसैनिया आज़म फ़ातिमिया में नमाज़-ए-जुमआ के खुत्बे में इराक़ के हालिया संसदीय चुनावों को "इतिहास के सर्वश्रेष्ठ और सबसे सफल चुनाव" करार दिया। उन्होंने कहा कि जनता ने भरपूर भागीदारी और शांतिपूर्ण माहौल में अपनी इच्छा व्यक्त की और दुनिया ने इराक़ के इस बड़े राष्ट्रीय कर्तव्य को देखा।
उन्होंने चुनावी सफलता के तीन मूलभूत कारक गिनाए: पहला: जनता का मजबूत और दृढ़ संकल्प। दूसरा: जागरूकता, जिसके माध्यम से जनता ने राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया। तीसरा: मरजईत का मार्गदर्शन, जिसने चुनावी प्रक्रिया को सही दिशा दी।
उन्होंने इस सफलता को हज़रत साहिबुल अस्र इमाम मेंहदी अज्जलल्लाहु तआला फरजहुश शरीफ की कृपा और सहायता का परिणाम बताते हुए दुआ-ए-नुदबा के वाक्य उद्धृत किए और कहा कि यदि इमाम जमाना की दयादृष्टि न होती तो देश के दुश्मन मुश्किलें खड़ी कर देते।
इमाम-ए-जुमआ ने सभी इराक़ी जनता, युवाओं, महिलाओं, बुजुर्गों और चुनावी संस्थानों विशेषकर चुनाव आयोग का आभार व्यक्त किया और इसे कौम की महान जीत" करार दिया। उन्होंने कहा कि अब अगला चरण तीनों उच्च पदों (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद अध्यक्ष) के चुनाव का है, जिसमें किसी भी वर्ग को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
अपने दूसरे खुत्बे में उन्होंने कासिम बिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की पुण्यतिथि के अवसर पर अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की कब्रों की विभिन्न देशों में बिखरी होने का उल्लेख किया और यह अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की मजलूमियत है।
मोमिन की अलामत नामे हुसैन अ.स. सुनते ही दिल पिघल जाए और आंख नम हो जाए
मशहूर कुरआन शिक्षक और अख्लाक के प्रोफेसर हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन हुसैन अन्सारियान ने कहा कि सोच-समझकर और अर्थपूर्ण शब्द इंसान की तकदीर बदल देते हैं, जबकि बेमानी शब्दों की कोई कीमत नहीं है। मोमिन की पहचान यह है कि हुसैन अ.स. का नाम सुनते ही दिल पिघल जाए और आँख नम हो जाए।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अन्सारियान ने तेहरान के हुसैनिया हमदानी में इयाम-ए-फातिमिया के मौके पर संबोधित करते हुए "कलिमा" की हकीकत और उसकी असरअंदाजी पर बातचीत की। उन्होंने कहा कि वे शब्द जिनमें अर्थ होता है, जैसे कमाल, हया, ग़ैरत और मुरुव्वत, इंसान की शख्सियत को संवारते हैं, लेकिन बेमानी शब्द सिर्फ आवाज़ हैं और कोई कद्र व कीमत नहीं रखते।
उन्होंने हज़रत आदम और हव्वा (अ.स.) के वाक़िए का ज़िक्र करते हुए कहा कि कुरआन साफ कहता है कि शैतान ने उन्हें धोखे में डाला। उन्होंने इस गलत ख्याल की तरदीद की कि हव्वा की वजह से आदम जन्नत से निकले।यह कुरआन के खिलाफ और मादर-ए-इंसानियत की तौहीन है।
उन्होंने कहा कि यह वाक़िया इंसान को सिखाता है कि एक छोटी सी फिसलन भी बड़ी नेमतों से महरूम कर सकती है, और उम्मत-ए-मुहम्मदिया भी गुनाह के नतीजों से मुस्तसना नहीं है।
हुज्जतुल इस्लाम अन्सारियान ने आगे कहा कि हज़रत आदम ने जो "कलिमात" खुदा से सीखे, उन्हें पढ़ने से उनकी तौबा कुबूल हुई। यही कलिमात शरई हैं जिनकी बदौलत निकाह के कुछ शब्दों से दो गैर-महरम एक पल में महरम हो जाते हैं।
उन्होंने कहा कि हुसैन (अ.स.) का नाम सुनकर दिल का पिघल जाना मोमिन की निशानी है, यह एक कलिमे का असर है।
उस्ताद-ए-अखलाक़ ने कुरआन करीम को "कलिमातुल्लाह" का सबसे बड़ा मजमुआ करार देते हुए कहा कि इसके मानी का कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा कि इंसान भी खुदा का एक "कलिमा" है; मायने रखने वाला वह है जो ईमान, तक्वा और अमल-ए-सालेह रखता हो, और बेमानी वह है जो ज़िंदगी सिर्फ ख्वाहिशों में गुज़ार दे।
प्राचीन ग्रीस और रोम में महिलाओं की लाचारी और उत्पीड़न की कहानी
रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।
तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयत 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दूसरे क़ौमों व मज़हबों में औरत के हक़, हैसियत और समाजी मुक़ाम” पर विस्तृत चर्चा की हैं। नीचे उनके बयानात के ख़ुलासे का पाँचवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है।
औरत – रोमी समाज में एक “तुफ़ैली वुजूद”
रोमी समाज में औरत को एक बे‑इख़्तियार और पूरी तरह मर्दों के क़ब्ज़े में रहने वाला वजूद समझा जाता था।
उसकी ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों के असर में थी, और उसके फैसलों और इरादों की बागडोर घर के सरबराह के हाथ में होती थी — चाहे वह उसका बाप हो, शौहर हो या कोई और बड़ा मर्द।
घर का सरबराह औरत के साथ जो चाहे कर सकता था — चाहे उसे बेच दे, किसी को तोहफ़े में दे दे या कुछ वक्त की लज़्ज़त के लिए किसी और मर्द को उधार दे दे।
कई बार ऐसा भी होता था कि मर्द अपने क़र्ज़ या माली ज़िम्मेदारी अदा करने के लिए अपनी बहन या बेटी को क़र्ज़‑ख़्वाह के हवाले कर देता था।
अगर औरत कोई नापसंद बात कर दे, तो उसे मारा‑पीटा जाता था, बल्कि कभी‑कभी क़त्ल भी कर दिया जाता था।
औरत की मिल्कियत पर भी मर्दों का हक़ होता था — यहां तक कि अगर औरत को महर में कुछ माल मिले या वह अपनी इजाज़त से कुछ कमाए, उस पर भी मर्द क़ाबिज़ होता।
औरत को विरासत का हक़ नहीं था, और उसकी शादी या तलाक़ के सारे फैसले मर्द ही करते थे।
इस तरह कहा जा सकता है कि रोमी समाज में औरत की ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों की रहम‑ओ‑करम पर थी।
ग्रीस (यूनान) में औरत की हैसियत
ग्रीस के पुराने समाज में औरत की हालत लगभग वही थी जो रोमी औरत की थी।
वहाँ भी ख़ानदान और समाज की बुनियाद मर्दों पर रखी गई थी और औरत को सिर्फ़ एक कमज़ोर, मुताबिक़ और ज़रूरत‑मंद मख़्लूक समझा जाता था।
वह न अपनी मर्ज़ी से कुछ कर सकती थी, न किसी मामले में आज़ादी से फैसला ले सकती थी। हमेशा उसे किसी मर्द की सरपरस्ती में रहना पड़ता था।
मगर इन क़ौमों के क़ानूनों में एक अजीब तज़ाद पाया जाता था — अगर औरत को इख़्तियार और आज़ादी से महरूम समझा जाता था, तो उसकी ग़लती की ज़िम्मेदारी उसके सरपरस्त पर होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं था।
अगर औरत कोई नेक काम करती तो उसका फ़ायदा मर्द को मिलता; लेकिन अगर कोई जुर्म करती, तो सज़ा उसी को मिलती।
यह तज़ाद बताता है कि इन क़ौमों के नज़दीक औरत को एक बात‑शऊर इंसान नहीं, बल्कि एक मुअज़्ज़र, ख़तरनाक और नापसंद वजूद समझा जाता था — जैसे कोई वायरस जो समाज की सेहत को बिगाड़ देता है।
हाँ, क्योंकि इंसानी नस्ल औरत के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती थी, इसलिए उसे “ज़रूरी बुराई” समझकर बर्दाश्त किया जाता था।
वह औरत को ऐसे असैर की तरह देखते थे जैसे कोई शिकस्त‑ख़ुर्दा दुश्मन — जिसे ज़िंदा तो रखा जाए मगर हमेशा क़ैद में और मर्दों के मातहत।
अगर वह कोई ख़ता करे तो सख़्त सज़ा मिले, और अगर कोई नेक काम करे तो उसकी तारीफ़ का भी हक़दार न समझा जाए।
सिर्फ़ बेटे ही “नस्ल के वारिस”
यूनान और रोम के लोग यह मानते थे कि ख़ानदान की बक़ा सिर्फ़ मर्दों से है, और सिर्फ़ बेटे ही असल औलाद हैं।
अगर किसी शख़्स के यहाँ बेटा न होता, तो उसे “अजाक बंद” या “नस्ल‑मुंतक़े” यानी बिना वारिस वाला माना जाता।
इसी अकीदे की वजह से “फ़र्ज़ंद‑ख़्वानदगी” (तनब्बी) का रिवाज पैदा हुआ — जो मर्द बेटों से महरूम होते, वे किसी दूसरे के बेटे को अपना बेटा बना लेते ताकि उनकी नस्ल बाकी रहे।
यहाँ तक कि अगर किसी मर्द को यक़ीन हो जाता कि वह बाँझ है, तो वह अपने भाई या क़रीबी रिश्तेदार से कहता कि उसकी बीवी के साथ रिश्ते क़ायम करे ताकि पैदा होने वाला बच्चा उसका “क़ानूनी बेटा” समझा जाए और ख़ानदान बाक़ी रहे।
शादी और तलाक़ का निज़ाम
यूनान और रोम दोनों जगह “तअद्दुद‑ए‑अज़वाज” यानी एक से ज़्यादा शादियों की इजाज़त थी।
लेकिन यूनान में सिर्फ़ एक बीवी को क़ानूनी और रसमि हैसियत दी जाती थी, बाकी औरतें सिर्फ़ ग़ैर‑रसमि या सनवी हैसियत रखती थीं।
(जारी है…)
(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल‑मीज़ान, भाग २, पेज ४००‑४०१)
प्राचीन ग्रीस और रोम में महिलाओं की लाचारी और उत्पीड़न की कहानी
रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।
तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयत 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दूसरे क़ौमों व मज़हबों में औरत के हक़, हैसियत और समाजी मुक़ाम” पर विस्तृत चर्चा की हैं। नीचे उनके बयानात के ख़ुलासे का पाँचवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है।
औरत – रोमी समाज में एक “तुफ़ैली वुजूद”
रोमी समाज में औरत को एक बे‑इख़्तियार और पूरी तरह मर्दों के क़ब्ज़े में रहने वाला वजूद समझा जाता था।
उसकी ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों के असर में थी, और उसके फैसलों और इरादों की बागडोर घर के सरबराह के हाथ में होती थी — चाहे वह उसका बाप हो, शौहर हो या कोई और बड़ा मर्द।
घर का सरबराह औरत के साथ जो चाहे कर सकता था — चाहे उसे बेच दे, किसी को तोहफ़े में दे दे या कुछ वक्त की लज़्ज़त के लिए किसी और मर्द को उधार दे दे।
कई बार ऐसा भी होता था कि मर्द अपने क़र्ज़ या माली ज़िम्मेदारी अदा करने के लिए अपनी बहन या बेटी को क़र्ज़‑ख़्वाह के हवाले कर देता था।
अगर औरत कोई नापसंद बात कर दे, तो उसे मारा‑पीटा जाता था, बल्कि कभी‑कभी क़त्ल भी कर दिया जाता था।
औरत की मिल्कियत पर भी मर्दों का हक़ होता था — यहां तक कि अगर औरत को महर में कुछ माल मिले या वह अपनी इजाज़त से कुछ कमाए, उस पर भी मर्द क़ाबिज़ होता।
औरत को विरासत का हक़ नहीं था, और उसकी शादी या तलाक़ के सारे फैसले मर्द ही करते थे।
इस तरह कहा जा सकता है कि रोमी समाज में औरत की ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों की रहम‑ओ‑करम पर थी।
ग्रीस (यूनान) में औरत की हैसियत
ग्रीस के पुराने समाज में औरत की हालत लगभग वही थी जो रोमी औरत की थी।
वहाँ भी ख़ानदान और समाज की बुनियाद मर्दों पर रखी गई थी और औरत को सिर्फ़ एक कमज़ोर, मुताबिक़ और ज़रूरत‑मंद मख़्लूक समझा जाता था।
वह न अपनी मर्ज़ी से कुछ कर सकती थी, न किसी मामले में आज़ादी से फैसला ले सकती थी। हमेशा उसे किसी मर्द की सरपरस्ती में रहना पड़ता था।
मगर इन क़ौमों के क़ानूनों में एक अजीब तज़ाद पाया जाता था — अगर औरत को इख़्तियार और आज़ादी से महरूम समझा जाता था, तो उसकी ग़लती की ज़िम्मेदारी उसके सरपरस्त पर होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं था।
अगर औरत कोई नेक काम करती तो उसका फ़ायदा मर्द को मिलता; लेकिन अगर कोई जुर्म करती, तो सज़ा उसी को मिलती।
यह तज़ाद बताता है कि इन क़ौमों के नज़दीक औरत को एक बात‑शऊर इंसान नहीं, बल्कि एक मुअज़्ज़र, ख़तरनाक और नापसंद वजूद समझा जाता था — जैसे कोई वायरस जो समाज की सेहत को बिगाड़ देता है।
हाँ, क्योंकि इंसानी नस्ल औरत के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती थी, इसलिए उसे “ज़रूरी बुराई” समझकर बर्दाश्त किया जाता था।
वह औरत को ऐसे असैर की तरह देखते थे जैसे कोई शिकस्त‑ख़ुर्दा दुश्मन — जिसे ज़िंदा तो रखा जाए मगर हमेशा क़ैद में और मर्दों के मातहत।
अगर वह कोई ख़ता करे तो सख़्त सज़ा मिले, और अगर कोई नेक काम करे तो उसकी तारीफ़ का भी हक़दार न समझा जाए।
सिर्फ़ बेटे ही “नस्ल के वारिस”
यूनान और रोम के लोग यह मानते थे कि ख़ानदान की बक़ा सिर्फ़ मर्दों से है, और सिर्फ़ बेटे ही असल औलाद हैं।
अगर किसी शख़्स के यहाँ बेटा न होता, तो उसे “अजाक बंद” या “नस्ल‑मुंतक़े” यानी बिना वारिस वाला माना जाता।
इसी अकीदे की वजह से “फ़र्ज़ंद‑ख़्वानदगी” (तनब्बी) का रिवाज पैदा हुआ — जो मर्द बेटों से महरूम होते, वे किसी दूसरे के बेटे को अपना बेटा बना लेते ताकि उनकी नस्ल बाकी रहे।
यहाँ तक कि अगर किसी मर्द को यक़ीन हो जाता कि वह बाँझ है, तो वह अपने भाई या क़रीबी रिश्तेदार से कहता कि उसकी बीवी के साथ रिश्ते क़ायम करे ताकि पैदा होने वाला बच्चा उसका “क़ानूनी बेटा” समझा जाए और ख़ानदान बाक़ी रहे।
शादी और तलाक़ का निज़ाम
यूनान और रोम दोनों जगह “तअद्दुद‑ए‑अज़वाज” यानी एक से ज़्यादा शादियों की इजाज़त थी।
लेकिन यूनान में सिर्फ़ एक बीवी को क़ानूनी और रसमि हैसियत दी जाती थी, बाकी औरतें सिर्फ़ ग़ैर‑रसमि या सनवी हैसियत रखती थीं।
(जारी है…)
(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल‑मीज़ान, भाग २, पेज ४००‑४०१)













