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ईरान के हौज़ा ए इल्मिया के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुफीद हुसैनी कोहसारी ने कहा कि 12 दिन की जंग के बाद पूरी दुनिया के दिमाग़ और दिल, इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर की तरह, इस्लामी गणराज्य ईरान की ओर माएल हुए हैं।

हौज़ा ए इल्मिया ईरान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुफीद हुसैनी कोहसारी ने बलाग़-ए-मुबीन मीडिया कमेटी की एक बैठक में हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की शहादत के दिनों पर ताज़ियत पेश करते हुए साल 1447 हिजरी क़मरी को “पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद स.अ.व की पैदाइश के 1500वें साल” के रूप में मनाने की तैयारियों और उसकी अहमियत पर बात की।

उन्होंने कहा,पैग़ंबर-ए-अकरम स.अ.व को 40 साल की उम्र में नुबुव्वत मिली और आपने 13 साल मक्का में गुज़ारे। यानी जब आपने मक्का से मदीना हिजरत की, तो आपकी उम्र 53 साल थी। वही साल हमारी तक़रीब का साल है। इसलिए हिजरी कैलेंडर चाहे शम्सी हो या क़मरी, हिजरत से शुरू होता है। अब 1447 में 53 जोड़िए तो 1500 होता है इसी हिसाब से यह गणना तय की गई।

उन्होंने आगे कहा,यह विषय कैसे आम और मज़बूत हुआ? शुरुआत में देश में कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया कि ‘साल 1447 पैग़ंबर (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है क्या इस पर कोई बड़ा काम नहीं होना चाहिए? इन्हीं सवालों और तवज्जो ने इन तैयारियों की शुरुआत की। फिर हमने देखा कि क्या यह हिसाब दुनिया के दूसरे इस्लामी विद्वानों के लिए भी क़ाबिले-क़बूल है या नहीं।

उन्होंने बताया,चूंकि यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ सकता था इसलिए ज़रूरी था कि इसे इस्लामी और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी मान्यता मिले। इसी सिलसिले में ईरान की विदेश मंत्रालय ने सऊदी अरब में मौजूद मशहूर इस्लामी संस्था ‘जिद्दा फ़िक़्ही असेंबली’ से आधिकारिक तौर पर पत्राचार किया।

उन्होंने लिखित जवाब दिया कि हाँ, यह हिसाब सही है यह साल वास्तव में पैग़ंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है। उन्होंने यह भी कहा कि पूरे इस्लामी जगत को इस अवसर पर जश्न और कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। जिद्दा असेंबली ने इस पर एक सर्वसम्मत और मज़बूत बयान जारी किया।

कोहसारी ने कहा,यह एक ऐतिहासिक और रणनीतिक मौक़ा है। जिस तरह हाल के वर्षों में अरबाईन और ग़दीर जैसे मौक़ों ने बड़ी तरक़्क़ी की है, उसी तरह अब पैग़ंबर-ए-अकरम (स.अ.व) की शख्सियत पर आधारित प्रोग्रामों और कॉन्फ़्रेंसेज़ की ज़रूरत है।

उन्होंने इज़राईली अत्याचारों और दुनिया पर उनके असर की ओर इशारा करते हुए कहा,12 दिन की जंग और ख़ास तौर पर ‘तूफ़ान-उल-अक़्सा’ और ग़ाज़ा की तबाही के बाद दुनिया को एक बहुत अहम पैग़ाम मिला जिसे हमने गंभीरता से नहीं लिया। सब समझ गए कि इस्राईल ज़ालिम है, और हक़ की नहीं बल्कि बातिल की तरफ़ है।

यह बातचीत या कानून को नहीं मानता न इंसानियत, न धर्मों की क़दर करता है। ग़ाज़ा पर बेरहम हमलों ने इस्राईल को दुनिया में रुसवा कर दिया है। जनमत से लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक सबने पूछा,इसका क्या मतलब है? 60 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं! तो फिर संयुक्त राष्ट्र? हेग कोर्ट? मानवाधिकार कहाँ हैं?

अंत में उन्होंने कहा,12 दिन की जंग के बाद पूरी दुनिया के दिल और दिमाग इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर की तरह ईरान की तरफ़ झुक गए हैं। यहाँ तक कि वहाबी, सलफ़ी, और ज़ायोनी ईसाई जिन्हें यह बताया गया था कि ‘ईरान और इस्राईल अंदर से मिले हुए हैं’ अब पूछ रहे हैं: ‘तो फिर ईश्वर की मर्ज़ी क्या थी?’ और कुछ इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ईश्वर की मर्ज़ी इस्राईल की हिफ़ाज़त नहीं, बल्कि उसके पतन में है।

 हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद अली रंजबर ने कहा,इस्लामी गणतंत्र ईरान की विदेश नीति धार्मिक तर्कशक्ति और न्यायशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित है।

बाकिरूल उलूम यूनिवर्सिटी, क़ुम के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख और विश्वविद्यालय के फैकल्टी सदस्य हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद अली रंजबर ने नेतृत्व और राष्ट्रीय कूटनीति शीर्षक से आयोजित एक शैक्षणिक सत्र में हौज़ा और विश्वविद्यालय के शिक्षकों और शोधकर्ताओं की उपस्थिति में इस्लामी गणतंत्र की विदेश नीति की संरचना को समझाते हुए कहा,संविधान के अनुच्छेद 110 के अनुसार, सभी क्षेत्रों सहित विदेश नीति के प्रमुख नीतिगत मामलों का निर्धारण व्यवस्था के नेता की जिम्मेदारी है।

उन्होंने विदेश नीति के शासन ढांचे को विस्तार से समझाते हुए नेतृत्व संस्थान और सलाहकार संस्थानों की भूमिका स्पष्ट की और कहा,ईरान की विदेश नीति दो भागों से मिलकर बनी है: घोषित नीति, जिसे विदेश मंत्रालय लागू करता है और परिचालन नीति, जो देश की अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों की वास्तविक प्रकृति को दर्शाती है और वह अंततः इस्लामी क्रांति के नेता और संबंधित विशेष संस्थानों के अधिकार में होती है।

इस्लामिक प्रोपेगेशन ऑफिस, हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप-निदेशक ने वार्ता प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए इसके पाँच मुख्य चरणों यानी वार्ता प्रक्रिया से पहले से लेकर वार्ता की बहाली तक का विश्लेषण प्रस्तुत किया और कहा,इस्लामी गणतंत्र ईरान ने सभी चरणों में दुश्मन के मुकाबले रणनीतिक जानकारी की सुरक्षा और इसके बुद्धिमान प्रबंधन पर जोर दिया है और इस्लामी व्यवस्था के प्रत्येक सैन्य, राजनयिक और सलाहकार संस्थान ने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्रगति में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाई है।

बाकिरूल उलूम यूनिवर्सिटी के इस शिक्षक ने कहा, इस्लामी गणतंत्र ईरान की विदेश नीति तीन सिद्धांतों ,सम्मान, बुद्धिमत्ता और हितसाधन - पर आधारित है और इन सिद्धांतों का पालन राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा और वैश्विक स्तर पर ईरान की स्थिति को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है।

उल्लेखनीय है कि सत्र के अंत में एक प्रश्नोत्तर सत्र भी आयोजित किया गया, जिसमें विदेश नीति के कार्यान्वयन की प्रक्रिया, जनता और प्रमुख बुद्धिजीवियों की भूमिका और नीति निर्माण में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों के पालन जैसे विषयों पर चर्चा की गई।

आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद सईदी ने कहा,दुनियावी मंसब और नेमतें ख़ुदा की अमानत हैं और हर ज़िम्मेदार क़यामत के दिन अपने अमल के बारे में जवाबदेह होगा।

इमाम-ए-जुमआ क़ुम और मुतवल्ली-ए-हरम-ए-मुतह्हर हज़रत मासूमा सल्लल्लाहु अलैहा आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद सईदी ने अदालत के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन ग़ुलाम हुसैन मोहसिनी एजेई की मौजूदगी में होने वाली प्रांतीय प्रशासनिक परिषद की बैठक में गुफ़्तगो के दौरान कहा,जो भी शख्स किसी ज़िम्मेदारी के मंसब पर फ़ाइज़ होता है, उसे जान लेना चाहिए कि यह मक़ाम एक इलाही अमानत है और कोई नेमत ऐसी नहीं जिसके बारे में सवाल न किया जाए। इंसान को चाहिए कि वक़्त गुज़रने से पहले खिदमत के मौक़ों की क़द्र करे।

उन्होंने रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही व सल्लम के एक फ़रमान की तरफ इशारा करते हुए कहा, हसरत के वक़्त आने से पहले इंसान को ग़ौर करना चाहिए कि कौन से काम उसे करने चाहिए थे और वह छोड़ बैठा है और पशेमानी से पहले इस्लाह का मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

कुम के इमाम-ए-जुमआ ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के फ़रमान की रोशनी में कहा, अक़्लमंद इंसान वह है जो पशेमानी से पहले इस्लाह-ए-नफ्स और दुरुस्त अमल की तरफ मुतवज्जह हो और खिदमत के मौक़ों से फ़ायदा उठाए।

ज़िम्मेदारी एक इलाही नेमत है जिसकी क़द्र करना ज़रूरी है क्योंकि एक दिन हम सबसे उन इमकानात और मौक़ों के बारे में सवाल होगा जो हमें अता किए गए।

आयतुल्लाह सईदी ने अपनी गुफ़्तगो के दौरान इमाम सादिक अलैहिस्सलाम की सीरत का हवाला देते हुए कहा,हक़ीकी ज़िक्र और याद-ए-ख़ुदा यह है कि इंसान लोगों की मुश्किलात को हल करे और उनकी खिदमत को इबादत समझे। बाज़ ओकात बन्दगां-ए-ख़ुदा की हाजत-रवाई ज़ाहिरी इबादतों से भी ज़्यादा बाफ़ज़ीलत होती है क्योंकि ख़ुदा की खुशनुदी बन्दों की खिदमत में मुज़म्मर है।

शहर बीरजंद में आयोजित एक कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह महमूद रजबी ने कहा कि हक़ और बातिल का टकराव इंसान की पैदाइश के आगाज़ से ही शुरू हो गया था और क़यामत तक जारी रहेगा।

शहर बीरजंद में आयोजित एक कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह महमूद रजबी ने कहा कि हक़ और बातिल का टकराव इंसान की पैदाइश के आगाज़ से ही शुरू हो गया था और क़यामत तक जारी रहेगा। उन्होंने कुरआन मजीद की आयतों की रोशनी में बताया कि अल्लाह ने इंसान को दोनों रास्ते दिखा दिए, मगर शैतान ने ऐलान किया कि वह सीधे रास्ते पर घात लगाकर इंसान को गुमराह करेगा।

आयतुल्लाह रजबी ने कहा कि इस जद्दोजहद के दो मैदान हैं: एक व्यक्ति का आंतरिक मैदान, जहाँ इंसान अपनी ख्वाहिशों और बुराइयों से लड़ता है। और दूसरा सामाजिक मैदान, जहाँ समाज को गुमराह करने के लिए बाहरी साजिशों और दबाव का सामना होता है।उन्होंने कहा कि जो शख्स अपने अंदर की बुराइयों पर काबू न पा सके, वह सामाजिक मैदान में भी कामयाब नहीं हो सकता।

उन्होंने साफ़ किया कि दुश्मन ने जब सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक शैबों में नाकामियाँ देखीं तो उसने पूरी तवज्जो फिक्री और सांस्कृतिक जंग पर मरकूज़ कर दी, जहाँ वह नौजवान नस्ल को निशाना बना रहा है। इस खतरे का मुकाबला सिर्फ़ तब मुमकिन है जब समाज के मुख़्तलिफ तबके एक मजबूत फिक्री और सांस्कृतिक नेटवर्क की शक्ल में मुत्तहिद हो जाएँ।

आयतुल्लाह रजबी ने बताया कि दुश्मन की ताकत जाल की मानिंद मुनज्जिम है, इसका तोड़ भी जाल की मानिंद हम आहंगी से ही मुमकिन है। उन्होंने सांस्कृतिक व फिक्री नेटवर्क को मौजूदा दौर की सबसे अहम हिक्मत-ए-अमली क़रार दिया और कहा कि यह नेटवर्क उसी वक्त मूअस्सिर होगा जब इसकी बुनियाद इमाम ख़ुमैनी (रह.) और रहबर-ए-इंकेलाब के नज़रियए-ए-मुक़ाविमत पर क़ायम हो।

उन्होंने याद दिलाया कि इमाम ख़ुमैनी रह. इंकेलाब से पहले ही इस्तकबार और सहयोनी मंसूबों के मुक़ाबले मुज़ाहिमत पर ज़ोर देते रहे थे, और रहबर-ए-मोअज़्ज़म ने इसी रास्ते को मजबूत करते हुए आज मुक़ावमती मोर्चे को बेमिसाल क़ुव्वत बना दिया है।

आयतुल्लाह रजबी ने आइम्मा-ए-अतहार अ.स. की सीरत का हवाला देते हुए कहा कि आइम्मा (अ.स.) ने भी हर दौर में अपने नुमाइंदों और साहिब-ए-फिक्र अफराद का मजबूत नेटवर्क क़ायम किया, ताकि हक़ का पैगाम लोगों तक पहुँचता रहे। आज भी इसी तर्ज पर हलक़ाय ए फिक्र, इल्मी नशिस्तें और मुसलसिल राबता ज़रूरी है, ताकि फिक्री यलग़ार का मुकाबला किया जा सके।

उन्होंने आल्लामा मिस्बाह यज़्दी रह. के दो बुनियादी उसूल भी बयान किए: हर काम खालिस निय्यत से होना चाहिए, और अहले-बैत (अ.स.) से तौस्सुल कभी तर्क नहीं होना चाहिए यही कामयाबी और इस्तिक़ामत का राज़ है।

इस्लामी गणतंत्र ईरान के विदेश मंत्री और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री ने टेलीफोनिक वार्ता में द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व वैश्विक मुद्दों पर चर्चा की है।

इस्लामी गणतंत्र ईरान के विदेश मंत्री और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री ने इस टेलीफोनिक वार्ता में ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराकची और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अलसानी ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए आपसी प्रयास जारी रखने पर ज़ोर दिया।

रिपोर्ट के अनुसार दोनों नेताओं ने गाज़ा की ताज़ा स्थिति और सुरक्षा परिषद में पेश की गई अमेरिका की हालिया प्रस्तावित प्रस्ताव पर चर्चा की और फिलिस्तीनियों के वैध और कानूनी अधिकारों के हनन को रोकने, खास तौर पर उनके भाग्य के निर्धारण के अधिकार के संबंध में भी विचार-विमर्श जारी रखने पर ज़ोर दिया।

ईरान और क़तर के विदेश मंत्रियों ने पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बीच बढ़ती तनाव पर भी चिंता जताते हुए क्षेत्र में शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय देशों के प्रयासों के जारी रहने के महत्व पर बल दिया।

ईरान के मशहूर खतीब, कुरआन के शिक्षक और हौज़ा ए इल्मिया के उस्ताद हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अंसारियान ने कहा कि जो व्यक्ति अपने जीवन को कुरआन, पैगंबर मुहम्मद स.अ.व.व. और अहले बैत (अ.स.) की विलायत के अनुसार नहीं बिताता, वह दुनिया में भी बेकदर रहता है और क़यामत में भी उसकी कोई हैसियत नहीं रहेगी।

ईरान के मशहूर खतीब, कुरआन के शिक्षक और हौज़ा ए इल्मिया के उस्ताद हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अंसारियान ने कहा कि जो व्यक्ति अपने जीवन को कुरआन, पैगंबर मुहम्मद स.अ.व.व. और अहले बैत (अ.स.) की विलायत के अनुसार नहीं बिताता, वह दुनिया में भी बेकदर रहता है और क़यामत में भी उसकी कोई हैसियत नहीं रहेगी।

हज़रत फातिमा ज़हरा (स.अ.) की शहादत के दिनों के अवसर पर तेहरान के हुसैनिया हमदानिय्यह की महफिल में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अल्लाह ने हर मख्लूक को एक मकसद के साथ पैदा किया है, लेकिन इंसान वह एकमात्र मखलूक है जिसे अपनी कदर व कीमत खुद पहचाननी होती है। अगर वह अल्लाह की हिदायत और पैगंबर इस्लाम स.अ.व.व. के रास्ते को इख्तियार न करे, तो उसकी ज़िंदगी ला हासिल बन जाती है।

उन्होंने कुरआन की आयतفَلَا نُقِیمُ لَهُمْ یَوْمَ الْقِیَامَةِ وَزْنًا

(सूराह कहफ, 105) पढ़ते हुए कहा कि कुछ लोग ऐसे होंगे जिनके अमल तोलने के लिए कोई तराजू ही नहीं लगाया जाएगा, क्योंकि उनके वजूद में कोई क़दर, कोई सच्चाई और कोई भलाई मौजूद नहीं होगी। क़यामत के दिन असली मापदंड कुरआन, रसूल अकरम (स.अ.व.व.) और हज़रत अली (अ.स.) से मोहब्बत होगी।

उस्ताद अंसारियान ने कहा कि ज्ञान वाले इंसान का दिल ईमान, यक़ीन, बेहतर अख़लाक और नेक अमल से रोशन होता है, जबकि बिना ज्ञान वाले लोग खोखले और बेबुनियाद होते हैं। उन्होंने उवैस क़रनी, मालिक अश्तर और कुमैल जैसे लोगों की मिसाल देते हुए कहा कि हक़ीकत को समझने के लिए हमेशा देखना ज़रूरी नहीं, कभी एक सच्चा कलमा ही इंसान को मंज़िल तक पहुंचा देता है।

उन्होंने अफसोस ज़ाहिर किया कि दुनिया की बड़ी तादाद कुरआन की अज़ीम नेमत से फायदा नहीं उठाती, हालांकि अल्लाह ने इसे इंसानों की रहनुमाई के लिए उतारा है। कुरआन साफ लफ्ज़ों में फर्क बताता है कि नेक और बद बराबर नहीं हो सकते।

आखिर में उन्होंने कहा कि मोमिन कब्र और क़यामत में भी अकेला नहीं होता, क्योंकि अल्लाह के साथ होता है। इंसान चाहे तो खुद को नेकी और रोशनी की राह पर डाल सकता है, और चाहे तो अपनी ज़िंदगी बेमकसद और बेवज़न बना सकता है।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा)  एक मिसाली पत्नी के तौर पर तमाम मुसलमान ख़्वातीन के लिए एक कामिल नमूना हैं, जिनकी घरेलू ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार और वफ़ादारी से भरी थी।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा)  एक मिसाली पत्नी के तौर पर तमाम मुसलमान ख़्वातीन के लिए एक कामिल नमूना हैं, जिनकी घरेलू ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार और वफ़ादारी से भरी थी।

  1. शौहर की मदद और साथ देना

जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम जिहाद या मैदान-ए-जंग से वापस आते, तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाहे अलैहा बहुत गर्मजोशी से उनका इस्तेक़बाल फरमातीं। आप उनकी तलवार लेकर साफ़ करतीं और घर में सुकून और मोहब्बत का माहौल पैदा करतीं। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा न सिर्फ़ घरेलू कामों में बल्कि इमाम अली अलैहिस्सलाम के तमाम समाजी और दینی कामों में भी शरीक रहतीं। आपकी हमफ़िक्री और हमदर्दी हज़रत अली के लिए तस्कीन-ए-क़ल्ब का बाइस बनती थी।

  1. शौहर के लिए ज़ेबह और आराइश

इस्लामी तालिमात में मियां-बीवी दोनों को एक-दूसरे के लिए ख़ुशनुमा रहना पसंद किया गया है। हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की ज़िंदगी में भी यह उसूल साफ़ नज़र आता है। रिवायत है कि रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि वा आलेहि वसल्लम ने उनकी शादी की रात के लिए सबसे बेहतरीन ख़ुशबूदार अतर का इंतज़ाम फरमाया था, और हज़रत ज़हरा हमेशा अपने घर में पाकीज़गी और ख़ुशबू को पसंद फरमातीं।

  1. क़नाअत और शौहर की रज़ा की तलाश

एक मौक़े पर जब अमीरुल-मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "ऐ फ़ातिमा! क्या कोई खाना है ताकि मैं अपनी भूख मिटाऊँ?"

हज़रत ने जवाब दिया: "दो दिन से घर में खाना नहीं, जो कुछ था वो मैंने आप और अपने बेटों हसन और हुसैन अलैहिमस्सलाम को दे दिया।"

इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "फ़ातिमा! तुमने मुझसे क्यों न बताया ताकि मैं कुछ इंतज़ाम करता?"

इस पर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने हया से सर झुकाकर फरमाया: "ऐ अबल-हसन! मुझे अपने रब से शर्म आती है कि आपसे वो चीज़ मांगूँ जो आपके बस में न हो।"

यह जुमला हज़रत ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की ग़ैर-मामूली क़नाअत, सब्र और शौहर की रज़ामंदी की तलाश का ज़बरदस्त मज़हर है — आप न सिर्फ़ एक नेक बीवी थीं बल्कि कामिल इंसानियत का नमूना भी थीं।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की इज़्दिवाजी ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार, दींदारी और समझ-बूझ से लबरेज़ थी। आपने अमली तौर पर दिखाया कि एक मिसाली शरीक-ए-हयात वो है जो मोहब्बत के साथ ज़िम्मेदारी निभाए, शौहर का सहारा बने और दुनियावी ख़्वाहिशात के बजाय रज़ा-ए-इलाही को तरजीह दे।

 इंसान बहुत सारी चीजों का ज़रूरतमंद है, इन ज़रूरतों से छुटकारा पाने और इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए किससे कहें? अल्लाह से क्योंकि वह हमारी ज़रूरतों को जानता है, अल्लाह जानता है कि आप क्या चाहते हैं, क्या ज़रूरी है; और कौन सी चीज़ आप उससे मांग रहे हैं और सवाल कर रहे हैं तो अपने अल्लाह से मांगिए।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,इंसान सिर से पांव तक ज़रूरतमंद है, इन ज़रूरतों से छुटकारा पाने और इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए किससे कहें? अल्लाह से; क्योंकि वह हमारी ज़रूरतों को जानता है, अल्लाह जानता है कि आप क्या चाहते हैं, क्या ज़रूरी है; और कौन सी चीज़ आप उससे मांग रहे हैं और सवाल कर रहे हैं तो अपने अल्लाह से मांगिए।

अल्लाह फ़रमाता हैः मुझसे दुआ करो। यानी मुझको पुकारो मैं तुमको जवाब देता हूं, अलबत्ता यह जवाब देना, ज़रूरत पूरी कर देने के मानी में नहीं है, फ़रमाता हैः मैं तुमको जवाब देता हूं और लब्बैक कहता हूं।

मैं तुम्हारी दुआ क़ुबूल करुंगा” निश्चित तौर पर अल्लाह की तरफ़ से जवाब बहुत से मौक़ों पर हाजत पूरी होने और जो कुछ आपने अल्लाह से चाहा है उसके पूरे होने के साथ है। (अल्लाह अपने बंदों को दूसरों का मोहताज देखना पसंद नहीं करता)

 हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख़ नईम क़ासिम ने कहा है कि, अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान की ‘मुक़ावमत’ यानी प्रतिरोध की भूमिका को ख़त्म करना चाहता है। बेरूत में शहीद दिवस के मौके पर उन्होंने नारे जब हम शहीद होते हैं तब जीतते हैं के तहत भाषण दिया और कहा कि यह दिन लेबनान में एक आम उत्सव की तरह मनाया जाएगा।

हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख़ नईम क़ासिम ने कहा है कि, अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान की ‘मुक़ावमत’ यानी प्रतिरोध की भूमिका को ख़त्म करना चाहता है। बेरूत में शहीद दिवस के मौके पर उन्होंने नारे जब हम शहीद होते हैं तब जीतते हैं के तहत भाषण दिया और कहा कि यह दिन लेबनान में एक आम उत्सव की तरह मनाया जाएगा।

नईम क़ासिम ने कहा कि हिज़्बुल्लाह की बुनियाद , इज़्ज़त, लेबनान की गरिमा और फ़िलिस्तीन की मदद पर रखी गई थी। उन्होंने कहा कि सन 2000 से 2023 तक हम “रोकथाम की स्थिति में थे। “पहली जंग” इज़रायल की घुसपैठ के खिलाफ़ एक दीवार बनी जिसने दक्षिण लेबनान की सीमाओं पर दुश्मन को रोक दिया।

उन्होंने बताया कि अक्टूबर समझौता (October Agreement) लेबनानी सेना की दक्षिण लितानी नदी के नीचे तैनाती से संबंधित है, जो प्रतिरोध के लिए स्वीकार्य है। “हम इसलिए विजयी हैं क्योंकि आज लेबनानी सेना दक्षिण लितानी में मौजूद है वे हमारे ही बेटे हैं। सरकार ने अपना रोल निभाने का वादा किया, जबकि अमेरिका ने अपने वादे पूरे नहीं किए क्योंकि अगर इज़रायल पीछे हटता है तो लेबनान अपनी आज़ादी और इज़्ज़त वापस पा लेगा।

शेख़ क़ासिम ने कहा कि अमेरिका और इज़रायल, लेबनान के भविष्य में दखल देते हैं  उसकी सेना, अर्थव्यवस्था, राजनीति और नीतियों को नियंत्रित करते हैं।अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान के प्रतिरोध को ख़त्म करना चाहता है और देश को दुश्मन के हमलों के सामने खुला छोड़ देना चाहता है।उन्होंने कहा,हम न हथियार डालेंगे और न झुकेंगे।

उन्होंने याद दिलाया कि 1982 में इज़रायल ने यह दावा करते हुए लेबनान पर हमला किया था कि, वह फ़िलिस्तीनी समूहों को निकालना चाहता है, लेकिन वह 2000 तक देश पर क़ाबिज़ रहा। इज़रायल ने पहले “फ़्री लेबनान आर्मी” बनाई और फिर उसका नाम “साउथ लेबनान आर्मी” रख दिया ताकि यह दिखा सके कि, समस्या लेबनान के अंदरूनी स्तर पर है, जबकि असल में यह उसकी खुद की योजना थी।

उन्होंने आगे कहा कि, नवंबर समझौता भी प्रतिरोध के हक़ में है क्योंकि इसमें लेबनानी सेना की दक्षिण लितानी में तैनाती शामिल है।वे हमारे ही बच्चे हैं, इसलिए हम इस तैनाती से लाभ उठा रहे हैं। क़ासिम ने कहा कि “अमेरिका ने अपने वादे पूरे नहीं किए, क्योंकि अगर इज़रायल पीछे हटेगा तो लेबनान स्वतंत्र और सम्मानित हो जाएगा।

उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका और इज़रायल, लेबनान की सरकार पर दबाव डालते हैं ताकि वह रियायतें दे, लेकिन बदले में उसे कुछ नहीं मिलता बस फसाद और इज़रायल को खुली छूट।

उन्होंने कहा कि इज़रायल चाहता है कि, लेबनान उसके नियंत्रण में आ जाए, और यह देश “ग्रेटर इज़रायल” की योजना का हिस्सा बन जाए।हर दिन नए बहाने बनाए जाते हैं कभी हथियार डालने का, कभी मुक़ावमत की फंडिंग रोकने का जबकि असली समस्या सिर्फ़ प्रतिरोध का अस्तित्व है।

शेख़ क़ासिम ने फ़िलिस्तीनी जनता और उनके प्रतिरोध को सलाम किया और कहा,उन्होंने दुनिया को सिखाया कि अपने हक़ के लिए कैसे डटे रहना चाहिए। आख़िर में उन्होंने यमन के लोगों और इराक की जनता व क़बीलों को सलाम पेश करते हुए कहा,आप आज़ादी के मोर्चे पर अगुवा हैं।

तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा पाकिस्तान के ज़ेरे-एहतमाम सालाना वहदत-ए-उम्मत कांफ्रेंस "ग़ज़्ज़ा के मैदान में उम्मत का इम्तेहान" फैसलाबाद में आयोजित हुई; जिसकी अध्यक्षता तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा के सरबराह आलिमा सय्यद जवाद नक़वी ने की।

"तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा पाकिस्तान" के ज़ेरे-एहतमाम सालाना "वहदत-ए-उम्मत" कांफ्रेंस, जिसका उनवान था "ग़ज़्ज़ा के मैदान में उम्मत का इम्तेहान", फैसलाबाद में आयोजित हुई। इसकी अध्क्षता तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा के सरबराह आलिमा सैयद जवाद नक़वी ने की। इस मौके पर मुख़्तलिफ़ मज़हबी और सियासी जमाअतों के क़ाइदीन, जईद उलमा-ए-कराम, मशाइख, माहिरीन-ए-तालिम, वुकला, सहाफीयों और दूसरे तबक़ात ने बड़ी तादाद में शिरकत की।

साबिक़ अमीर जमाअत-ए-इस्लामी पाकिस्तान सिराजुल हक़, सज्जादा नशीन आस्ताना आलिया ओवैसिया अलीपुर छठ्ठा पीर ग़ुलाम रसूल ओवैसी, सदारत इत्तहाद-उल-मदारिस-उल-अरबिया पाकिस्तान मुहम्मद ज़ुबैर फहीम, ज़िला सदर उलमा काउंसिल मिन्हाज-उल-कुरआन आलिमा अख़्तर हुसैन असद, अमीर मुत्तहिदा जमीअत अहल-ए-हदीस फैसलाबाद डिवीजन मौलाना आलिमा सिकंदर हयात ज़की, अमीर जमाअत-ए-इस्लामी ज़िला फैसलाबाद महबूब-उज़-ज़मान बट, सूबाई जनरल सेक्रेटरी पंजाब जमीअत-उल-उलमा-ए-पाकिस्तान (नूरानी) मौलाना मंज़ूर साक़ी, मोहतमिम मरकज़ अहल-ए-हदीस फैसलाबाद मुफ़्ती नसरुल्लाह अज़ीज़ वग़ैरह ने ख़िताब किया।

मरकज़ी ख़िताब में आलिमा सैयद जवाद नक़वी ने कहा कि "ग़ज़ा की सरज़मीन आज इंसानियत के ईमान, ग़ैरत और जम़ीर का आईना बन चुकी है। वहां बहने वाला हर क़तरा-ए-ख़ून उम्मत के सुकूत पर सवाल है।"

उन्होंने कहा कि आलमी इदारों, इंसानी हक़ूक़ के दावा करने वालों और ज़्यादातर मुस्लिम हुक्मरानों ने इस इम्तेहान में बुरी तरह नाकामी का मुज़ाहिरा किया है, जहां सिर्फ़ कुछ बाहीमत क़ौमें ही हैं जिन्होंने सदा-ए-हक़ बुलंद की।

आलिमा जवाद नक़वी ने कहा कि दो अरब मुसलमानों की मौजूदगी के बावजूद उम्मत ने कुरआन के तक़ाज़ों के मुताबिक किरदार अदा नहीं किया। अगर उम्मत के फ़िक्री और तालीमी मराकज़ ने कुरआन को अपने निज़ाम का मरकज़ बनाया होता, तो आज उम्मत ज़िल्लत और इज़्तिराब की इस इंतहा तक न पहुँचती।

उन्होंने कहा कि "ग़ज़ा के बच्चे, खवातीन और अवाम अपनी इस्तेक़ामत से ईमान की ज़िंदा तफ़सीर बन चुके हैं।"

आलिमा जवाद नक़वी ने हमास, हिज़्बुल्लाह, यमन के  

मुजाहिदीन और ईरान की क़ियादत को अमली मुक़ावमत और ईमानी ग़ैरत की अलामत क़रार देते हुए कहा कि यही वो क़ुव्वतें हैं जो इस्लाम की हरारत को ज़िंदा रखे हुए हैं।

उन्होंने इसराईल और अमरीका-नवाज़ पालिसियों को उम्मत के ज़वाल की जड़ क़रार दिया और कहा कि जो हुक्मरान अपने अवाम के जज़्बात और मज़लूमों के ख़ून का सौदा करके इख़्तियार बचाते हैं, वो दरअस्ल उम्मत के ज़मीर के मुजरिम हैं।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी क़ौम के अंदर ग़ैरत, ईमान और बेदारी की सलाहियत मौजूद है, बस ज़रूरत इस अम्र की है कि ये मिल्लत सालेह क़ियादत और कुरआनी निज़ाम की रौशनी में मुत्तहिद होकर मज़लूमों का साथ दे। अगर क़ौम ने अपने अस्ल की तरफ़ रुजू किया तो तारीख़ के धारों को बदला जा सकता है।