رضوی

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रविवार, 07 अप्रैल 2024 17:56

बंदगी की बहार- 27

वित्र रमज़ान को ख़त्म होने में कुछ दिन बचे हैं। इस महीने के दिन दूसरे महीनों के दिन से बहुत भिन्न हैं।

यूं तो रमज़ान के दिन विदित ख़ुशियों से दूर नज़र आते हैं लेकिन इस महीने में भीतरी ख़ुशी हासिल होती है। वास्तव में हम सभी ने ईश्वरीय उपासना का अद्वितीय अनुभव हासिल किया। सुबह जल्दी उठ कर प्रार्थना करना, पवित्र क़ुरआन की तिलावत, पापों का प्रायश्चित, सहरी का दस्तरख़ान इत्यादि, इन सब बातों से मिलने वाले आनंद को शब्दों में बयान करना कठिन है। वास्तव में रमज़ान के इन दिनों और रातों में रोज़ेदार ईश्वर का मेहमान होता और किसी जश्न में बुलाए गए मेहमान की तरह जश्न के मीठे क्षणों का आनंद लेता है। ईश्वर से आशा है कि बाक़ी बचे हुए दिनों में वह हम सब पर अपनी कृपा की वर्षा करेगा।

ख़ुशी यूं तो चेहरे पर मुस्कुराहट, गहमा गहमी व हुल्लड़ के रूप में प्रकट होती है लेकिन उसका स्रोत भीतरी होता है। मनोविज्ञान की नज़र में इंसान के व्यवहार व भावना के पीछे उसके विचार होते हैं। चूंकि धर्म की बुनियाद इंसान के भीतर को सुधारना है, इसलिए धर्म इंसान की उत्तेजनाओं व जोश को शोधित करता है। एक संपूर्ण धर्म के रूप में इस्लाम एक ओर इंसान को अपने ज़ाहिर को साफ़ सुथरा रखने और शिष्ट व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है तो दूसरी ओर इंसान के भीतर के प्रशिक्षण के लिए उसे एकेश्वरवाद, अपने और सृष्टि के बारे में चिंतन मनन से परिचित कराता है।

धर्म का एक अहम उद्देश्य इंसान को वास्तविक जीवन तक पहुंचाना है। इसी लिए धार्मिक शिक्षाओं में इंसान की हमेशा के लिए समाप्ने का विचार नहीं है बल्कि धर्म इंसान के जीवन को अमर मानता है। पवित्र क़ुरआन की नज़र में पूरी सृष्टि हरकत में है। अगर इस दृष्टि से इस्लाम को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि सभी शिक्षाओं व धार्मिक विषयों में जीवन के लक्ष्ण मौजूद हैं। धर्म का ज्ञान से अटूट संबंध है। जिन्होंने उपासना की दुनिया की सैर की है वह ऐसे आनंदायक माहौल का आभास करते हैं जिसमें दुख दर्द का कोई स्थान नहीं होता बल्कि सिर्फ़ आनंद ही आनंद होता है। जो उपासना करते हैं वे अपने मन में ईश्वर से प्रेम को महसूस करते हैं और उनके सामने आत्मज्ञान का द्वार खुल जाता है। इस्लाम ऐसा धर्म है जिसमें व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों प्रकार के नियम हैं जिन पर अमल करके इंसान संतुष्टि का आभास करता है। नमाज़, रोज़ा, हज, ख़ुम्स और ज़कात जैसे अनिवार्य कर्मों और उपासना संबंधी दूसरे कर्मों का इंसान के मन पर बहुत अच्छा असर पड़ता है। यहां तक कि इस्लाम की सामाजिक शिक्षाएं भी समाज और ईश्वरीय रचनाओं की सेवा, ईश्वर की उपासना और वंदना से अलग नहीं है। सामाजिक मामलों में इस्लाम की अनुशंसाओं पर अमल से इंसानों के बीच मेल जोल, दोस्ती व समरसता बढ़ेगी। जब किसी समाज के इंसान एक दूसरे की सेवा करते हैं तो उस समाज का माहौल सौहार्दपूर्ण बन जाता है और उस समाज के लोग अपने जीवन के हर क्षण का आनंद उठाते हैं।

इंसान को ख़ुश करने वाली चीज़ों की समीक्षा में दो प्रकार की चीज़े सामने आती हैं। एक भौतिक और दूसरी आध्यात्मिक। जिन चीज़ों से आध्यात्मिक आनंद मिलता है ज़रूरी नहीं है कि उनसे भौतिक फ़ायदा भी मिले। इस तरह के आनंद बाक़ी रहते और व्यापक रूप से असर डालते हैं लेकिन भौतिक आनंद और ख़ुशियां इंसान के भौतिक जीवन से जुड़ी होती हैं और उनका असर अल्पावधि का होता है और कभी कभी तो उनका असर बहुत ही नुक़सानदेह होता है। जैसा कि ईश्वर पवित्र क़ुरआन के ताहा सूरे की आयत नंबर 124 में फ़रमाता हैः जो भी ईश्वर की याद से मुंह मोड़े उसके सामने कठिनाइयां होंगी। इस विषय को अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि ईश्वर की याद का फ़ायदा यह है कि इंसान उन चीज़ों से दूर हो जाता है जो उसके मन में तनाव पैदा करती हैं। ईश्वर से निकट संबंध से इंसान परिपूर्णतः की ओर बढ़ता है नतीजे में अपने जीवन को लक्ष्यपूर्ण बनाता है। यही वजह है कि जब हम धार्मिक आस्था व मूल्यों का पालन करने वालों लोगों को देखते हैं तो पाते हैं कि वे कठिन से कठिन हालात में भी आशा नहीं छोड़ते और उनकी आस्था पर कोई असर नहीं पड़ता।                         

आपको ऐसे लोगों का अवश्य सामना हुआ होगा जो भौतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध लगते हैं। लेकिन इसके बावजूद जीवन के संबंध में शिकायत करते हैं। इसके मुक़ाबले में ऐसे लोग भी होते हैं जो भौतिक दृष्टि से इतने समृद्ध नहीं होते लेकिन ख़ुशियों भरा जीवन बिताते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ख़ुद को सौभाग्यशाली समझने की भावना का संबंध बहुत हद तक भौतिक संसाधन से नहीं है। चूंकि इंसान के कल्याण का संबंध बहुत हद तक जीवन के अध्यात्मिक मामलों से जुड़ा है इसलिए ईश्वरीय धर्म इंसान को अध्यात्मिक आनंद की ओर प्रेरित करते हैं। ईश्वर पर भरोसा रखने वाले व्यक्ति की नज़र में किसी चीज़ का आनंद ईश्वर की वंदना से अधिक नहीं है यही वजह है कि धर्म परायण लोग नमाज़, रोज़ा और वंदना में आनंद महसूस करते हैं और इस तरह के लोग सांसारिक व परालौकिक जीवन की आशा में बहुत सी कठिनाइयों का मुक़ाबला करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया हैः "मेरी नज़र में आधी रात में दो रकअत नमाज़ जो कुछ दुनिया में मूल्यवान चीज़ें हैं उनसे अधिक मूल्य रखती है।"

नए शोध दर्शाते हैं कि इस्लाम में रोज़ा एक सार्थक कार्यक्रम है और बहुत आयाम से इंसान के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। रोज़ा दूसरी उपासनाओं की तरह मन को आनंदित करता और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। चूंकि इंसान रोज़े में ईश्वर की याद में होता है, इसलिए उसके ख़ुश रहने के अधिक साधन मुहैया होते हैं। रोज़ेदार व्यक्ति ईश्वर की प्रसन्नता में खाने पानी से दूर रहता और पवित्र क़ुरआन की तिलावत करता है जिससे उसके मन में ईश्वर पर भरोसा बढ़ता है, वह अपने भीतर आनंद महसूस करता है और उसके भीतर से दुख चला जाता है। वास्तव में पवित्र रमज़ान में रोज़ा रखने वाला अपने मन में अधिक आनंद का आभास करता है। जैसा कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः रोज़ा रखने वाले के लिए दो प्रकार की ख़ुशी हैः एक इफ़्तार के समय और दूसरी प्रलय में ईश्वर से मुलाक़ात के समय। इस तरह पवित्र रमज़ान में आध्यात्मिक संपर्क से मन को बहुत अधिक सुकून मिलता है।                    

पवित्र रमज़ान में रोज़ादारों को ख़ुशी देने वाला एक और तत्व सुबह सवेरे सहरी के लिए उठना है। सुबह सवेरे उठने का एक फ़ायदा ईश्वर की निष्ठापूर्ण प्रार्थना है। यह प्रार्थना कभी नमाज़े शब नामक विशेष नमाज़ के रूप में प्रकट होती है जिससे मन को बहुत आनंद मिलता है। यह देखा गया है कि जो लोग सुबह सवेरे उठते हैं वह प्रफुल्लित रहते हैं। सुबह सवेरे उठने का एक फ़ायदा यह है कि इंसान की कार्यकुशलता बढ़ती है। रात में सोने की वजह से सहरी के समय उठने से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक दृष्टि से अधिक तय्यार रहता है। यही वजह है कि इस्लाम में बल दिया गया है कि सुबह सवेरे उठने से रोज़ी व आजीविका बढ़ती है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया हैः "सुबह सवेरे अपनी रोज़ी रोटी और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए निकलो। सुबह उठना बर्कत व विभूतियां लाता है।" सुबह उठने के विशेष शिष्टाचार हैं। एक शिष्टाचार मिस्वाक या दातुन करना है। इसी तरह पवित्र क़ुरआन की तिलावत और नमाज़े शब पढ़ना अन्य उपासनाएं हैं जिन पर बल दिया गया है। यद्यपि पवित्र क़ुरआन को कभी भी पढ़ सकते हैं लेकिन सुबह के वक़्त इसे पढ़ने का अलग ही आनंद है। जैसा कि एक मसल हैः अगर तुम अपने सिर पर सेब की एक टोकरी लेकर गलियों व बाज़ारों में फिरो तो ऐसा करने से तुम्हें किसी तरह की ऊर्जा नहीं मिलेगी बल्कि तुम्हारी शारीरिक ऊर्जा ही कम होगी लेकिन अगर उस टोकरी में से एक सेब खालो तो तुम्हें ऊर्जा व प्रफुल्लता मिलेगी। पवित्र क़ुरआन भी सेब की टोकरी की तरह है। अगर उसकी आयतें व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर असर कर जाए और उसे अपने जीवन में उतार ले तो उसे ऊर्जा व आत्मज्ञान मिलेगा।

आध्यात्मिक आयाम से भी ख़ुशी का धर्म के साथ निकट संबंध है। मिसाल के तौर पर ईश्वर से प्रार्थना, पवित्र क़ुरआन की तिलावत या रोज़ा रखने से व्यक्ति जो महसूस करता है ये उसी की मिसाल है। धार्मिक शिक्षाओं में दर्शन करने या यात्रा पर जाने को भी सुकून देने वाला कारक बताया गया है। अलबत्ता जीवन के प्रति इंसान के मन में जितना सार्थक दृष्टिकोण होगा उतना अधिक वह संतुष्टि का आभास करेगा। यद्यपि लोग अलग अलग चीज़ों से ख़ुश होते हैं लेकिन अहम बात यह है कि इंसान ख़ुश व आशावान रहे और भला जीवन बिताए।  

कार्यक्रम के इस भाग में आपको 27वीं रमज़ान को पढ़ी जाने वाली दुआ के एक भाग से परिचित कराने जा रहे हैं। इस दुआ के एक टुकड़े में प्रार्थी ईश्वर से कहता है कि इस महीने में हमारे काम को आसान कर दे। ईश्वर कभी नहीं चाहता कि इंसान कठिनाई उठाए बल्कि वह इंसान के लिए आसानी व सुकून चाहता है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के बक़रा सूरे की आयत नंबर 185 में ईश्वर कहता हैः "ईश्वर तुम्हारे लिए आसानी चाहता है, तुम्हारे लिए कठिनाई नहीं चाहता।" लेकिन भौतिक जीवन के आनंद कठिनाई से हासिल होते हैं। अलबत्ता इन कठिनाइयों को कुछ उपायों से आसान कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर निर्धनों व अनाथों की मदद से जीवन यापन की कठिनाइयां कम होती हैं। रिवायत में है कि एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम के पास आया और उसने कहाः हे ईश्वरीय दूत मेरा हाथ पैसों से ख़ाली है। जीवन बहुत कठिनाइयों में है। पैग़म्बरे इस्लाम ने उस व्यक्ति से फ़रमायाः दान कर। उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने आपकी सेवा में अर्ज़ किया कि मेरा हाथ पैसों से ख़ाली है और आप दान करने के लिए कह रहे हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः दान करो कि दान रोज़ी को अपनी ओर खींच कर लाता है।

ईश्वर की एक और विशेषता यह है कि वह बंदों के पापों को क्षमा कर देता है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के ज़ुमर सूरे की आयत नंबर 53 में ईश्वर अपनी क्षमाशीलता के बारे में कहता हैः "हे अपने ऊपर अत्याचार करने वाले मेरे बंदो! ईश्वर की कृपा से निराश मत हो कि ईश्वर सभी पाप को क्षमा कर देगा। वह बहुत ही क्षमाशील व मेहरबान है।" इस आयत में ईश्वर ने सभी के लिए अपनी क्षमाशीलता का दामन खोल दिया है ताकि वे अपने पापों का प्रायश्चित कर उसकी ओर पलट आएं।

 

समूचे ब्रह्मांड का नक्शा दयालु ईश्वर की इच्छानुसार है, ईश्वर आसमान से लेकर ब्रह्मांड की हर चीज़ का नक्शा तैयार करता है।

महान ईश्वर जब किसी व्यक्ति या गुट को सज़ा देना चाहता है तो पहले से नक्शा तैयार करता है इसका भी स्रोत महान ईश्वर की रहमत व दया है।

पवित्र कुरआन के बड़े व्याख्याकर्ता आयतुल्लाहिल उज़्मा जवाद आमुली ने सूरे रहमान की व्याख्या में अपने दर्स में महान ईश्वर की रहमत, न्याय और अज़ाब के बारे में कुछ बिन्दुओं को बयान किया।

उन्होंने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के अनुसार महान ईश्वर की रहमत के बारे में जानना चाहिये कि समूचा ब्रह्मांड दयालु ईश्वर की इच्छानुसार है। आसमान से लेकर समूचे ब्रह्मांड की हर वस्तु को वह व्यवस्थित करता है। महान ईश्वर जब किसी व्यक्ति या गुट को सज़ा देना चाहता है तो पहले से उसका नक्शा तैयार करता है कि यह खुद उसकी असीम दया का परिणाम है।

वह कहते हैं अगर महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में फरमाया है कि "हे बुद्धिमान लोग क़ेसास में तुम्हारे लिए ज़िन्दगी है" तो जी हां ऐसा ही है। यह क़ेसास और हत्यारे को दंडित करना दर्दनाक है किन्तु साथ ही समाज के लिए न्याय और दया भी है।

महान ईश्वर जब किसी को दंडित करना चाहता है तो वास्तव में वह बदला लेना या दुश्मनी नहीं निकालना चाहता है बल्कि वह उसे जगाना चाहता है या उससे किसी के अधिकार को लेना चाहता है! ऐसा नहीं है कि उसकी तरफ से एक हिंसा या दर्द है वह मात्र न्याय है और न्याय भी रहमत व दया है।

आयतुल्लाह जवाद आमुली इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सूरे रहमान अरूसे कुरआन के नाम से मशहूर है। अब इस सूरे का नाम रहमान है अरूसे कुरआन है। उसकी वजह यह है कि महान ईश्वर हर चीज़ को उसकी जगह पर रखता व व्यवस्थित करता है। ऐसा नहीं है कि महान ईश्वर केवल जन्नत और उसकी नेअमतों की प्रशंसा करता है और जहन्नम के बारे में उदाहरण के तौर पर कहे कि धैर्य करो! दोनों प्रशंसनीय हैं। इस सूरे में अज़ाब व दंड की आयतें कम नहीं हैं। अगर जहन्नम न होती तो ब्रह्मांड में कमी थी। दुनिया में इतने सारे ज़ालिम हैं और मज़लूमों का हक़ उन्होंने ले लिया है किस तरह न्याय स्थापित किया जाता? इस आधार पर महान ईश्वर एक जगह जन्नत को बनाता है और एक जगह जहन्नम को बनाता है और दोनों का आधार दया और न्याय है।

इमाम ख़ुमैनी के मत में सबसे पहले जो चीज़ नज़र आती है वह 'शुद्ध मोहम्मदी इस्लाम' पर ताकीद और अमरीकी इस्लाम को नकारना है। इमाम ख़ुमैनी ने शुद्ध इस्लाम को अमरीकी इस्लाम के विपरीत क़रार दिया है। अमरीकी इस्लाम क्या है। हमारे दौर में, इमाम ख़ुमैनी के ज़माने में और हर दौर में जहाँ तक हमारी जानकारी है, मुमकिन है भविष्य में भी यही रहे कि अमरीकी इस्लाम की दो शाखाएं हैं। एक है नास्तिकतावादी इस्लाम और दूसरा रूढ़ीवादी इस्लाम। इमाम ख़ुमैनी ने उन लोगों को जो नास्तिकतावादी विचार रखते थे यानी धर्म को, समाज को, इंसानों के सामाजिक संबंधों को इस्लाम से अलग रखने के समर्थक थे, हमेशा उन लोगों की श्रेणी में रखा जो धर्म के संबंध में रूढ़िवादी नज़रिया रखते हैं। यानी धर्म के बारे में ऐसा रूढ़ीवादी नज़रिया जो नई सोच के इंसान की समझ के बाहर हो। इमाम ख़ुमैनी इन दोनों नज़रियों के लोगों का एक श्रेणी में ज़िक्र करते थे।

आज अगर आप ग़ौर कीजिए तो देखेंगे कि इस्लामी जगत में इन दोनों शाखाओं के नमूने मौजूद हैं और दोनों को दुनिया की विस्तारवादी ताक़तों और अमरीका का समर्थन का हासिल है। आज भटके हुए गुटों जैसे दाइश और अलक़ाएदा वग़ैरह को भी अमरीका और इस्राईल का समर्थन हासिल है और इसी तरह ऐसे हल्क़ों को भी अमरीका की सरपरस्ती हासिल है जिनका नाम तो इस्लामी है लेकिन इस्लामी व्यवहार और इस्लामी शरीअत व धर्मशास्त्र से उनका दूर का भी कोई नाता नहीं है। हमारे महान नेता की निगाह में शुद्ध इस्लाम वह है जिसकी बुनियाद क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम का जीवन है।

दूसराः इमाम ख़ुमैनी के उसूलों में से एक है अल्लाह की मदद पर भरोसा। अल्लाह के वादों की सच्चाई पर भरोसा, दूसरी ओर दुनिया की साम्राज्यवादी ताक़तों पर अविश्वास है। अल्लाह ने मोमिनों से वादा किया है और जो लोग इस वादे पर यक़ीन नहीं रखते, क़ुरआन में उन पर धिक्कार किया गया हैः "जो लोग अल्लाह के बारे में बुरे गुमान करते हैं, बुराई की गरदिश उन्हीं पर है। अल्लाह उनसे नाराज़ है और उन पर लानत करता है और उनके लिए जहन्नम तैयार रखी है और वह बहुत बुरा अंजाम है।"  अल्लाह के वादे पर यक़ीन, अल्लाह के वादे की सच्चाई पर यक़ीन। इमाम ख़ुमैनी के मत का एक स्तंभ यह है कि अल्लाह के वादे पर यक़ीन और भरोसा किया जाए।

तीसराः अवाम की इच्छा शक्ति और उनकी सलाहियत पर भरोसा करना तथा सराकारों से आस लगाने की मुख़ालेफ़त। यह इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन का अहम उसूल है। उन्हें अवाम पर बड़ा भरोसा था। आर्थिक मामलों में भी अवाम पर बहुत भरोसा था और रक्षा के क्षेत्र में भी अवाम पर उन्हें बहुत भरोसा था। आपने आईआरजीसी फ़ोर्स और स्वयंसेवी फ़ोर्स का गठन किया। रक्षा क्षेत्र को जनता का मैदान बना दिया। प्रचारिक क्षेत्र में भी अवाम पर भरोसा और सबसे बढ़ कर मुल्क में चुनाव का मामला और मुल्क व राजनैतिक व्यवस्था को चलाने में अवाम की राय और मत पर भरोसा।

चौथा उसूलः मुल्क के आंतरिक मामलों से संबंधित है। इमाम ख़ुमैनी वंचित व दबे कुचले तबक़े का साथ देने पर बहुत बल देते थे। आर्थिक असमानता के बहुत ख़िलाफ़ थे। ऐश पसंदी के विचार को बड़ी बेबाकी से रद्द कर देते थे।

पांचवा बिन्दु विदेशी मामलों से संबंधित है। इमाम ख़ुमैनी खुले तौर पर विश्व साम्राज्य और अंतर्राष्ट्रीय ग़ुन्डागर्दी के ख़िलाफ़ सक्रिय मोर्चे का हिस्सा थे और इस बारे में कभी भी लचक नहीं दिखाते थे। यही वजह थी कि हमेशा दुनिया की ज़ालिम व साम्राज्यवादी ताक़तों तथा अंतर्राष्ट्रीय ग़ुन्डों के मुक़ाबले में पीड़ितों का साथ देते थे, पीड़ितों के समर्थन में खड़े नज़र आते थे।

इमाम ख़ुमैनी के मत का एक और बुनियादी उसूल मुल्क की स्वाधीनता पर ताकीद और विदेशी वर्चस्व को नकारना है। यह भी बहुत अहम चैप्टर है।

इमाम ख़ुमैनी की विचारधारा का एक और अहम उसूल क़ौमी एकता का मामला है। फूट की साज़िश चाहे वह धर्म व मत के नाम पर हो, शिया-सुन्नी मतभेद के नाम पर हो या जातीय बुनियादों पर, फ़ार्स, अरब, तुर्क, कुर्द, लुर और बलोच के नाम पर हो, पूरा ध्यान रहना चाहिए। फूट दुश्मन की बहुत बड़ी चाल है और इमाम ख़ुमैनी ने शुरू से ही क़ौमी एकता और अवाम में एकता पर बहुत ज़्यादा ध्यान दिया और यह आपके अहम उसूलों में है। अमरीकियों की इतनी हिम्मत बढ़ गयी है कि सीधे तौर पर शिया और सुन्नी का नाम लेते हैं। शिया इस्लाम और सुन्नी इस्लाम, फिर इन में से एक का समर्थन और दूसरे की आलोचना करते हैं, जबकि इस्लामी गणराज्य ईरान ने पहले दिन से दोनों समुदायों के संबंध में समान नीति अपनायी। फ़िलिस्तीनी भाइयों के साथ जो सुन्नी है बिल्कुल वैसा ही बर्ताव किया जैसा बर्ताव हम ने लेबनान के हिज़्बुल्लाह के साथ किया जो शिया संगठन है। हमने हर जगह एक ही अंदाज़ से काम किया है।  इमाम ख़ामेनेई

इस्लाम में पड़ोसी के अधिकारों पर बहुत ज़ोर दिया गया है। पड़ोसियों स अच्छा बर्ताव अच्छा माहौल पैदा करता है जिसमें एक मुहल्ले के लोग अच्छा विकास करते हैं और समाज अच्छ होता है।

सबसे पहले हम पड़ोसी के हक़ के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का कथन बयान करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने सहाबियों से पूछा कि जानते हो कि पड़ोसी का क्या हक़ होता है?

सहाबियों ने जवाब दिया कि नहीं!

पैग़म्बर ने फिर पड़ोसियों का हक़ इस तरह बयान कियाः

एक पड़ोसी का दूसरे पड़ोसियों पर हक़ है कि अगर बीमार पड़ जाए तो उसे देखने जाएं अगर उसकी मौत हो जाए तो उसके अंतिम संस्कार में शामिल हों, अगर तुमसे क़र्ज़ मांगे तो उसे दे दो, उसकी ख़ुशी में मुबारकबाद दो और ग़म के समय सांत्वना दो, अपनी इमारत उसकी इमारत से ऊंची न बनाओ कि हवा का बहाव रुक जाए, अगर फल ख़रीदो तो थोड़ा उसे तोहफ़े में दो अगर उसे नहीं दिया तो फल अपने बच्चों को न दो कि वो खाएं और पड़ोसी के बच्चे मुंह देखें, अच्छे खानों की ख़ुशबू से पड़ोसी को परेशान न करो, हां यह हो सकता है कि उसमें से खाना उसके लिए भेजो।

बेहारुल अनवार जिल्द 79 पेज 93

 

 

ईरान के राष्ट्रपति सैय्यद इब्राहिम रईसी ने विश्व कुद्स दिवस रैलियों में लोगों की व्यापक भागीदारी की सराहना की है।

राज्य के राष्ट्रपति ने बताया कि फ़िलिस्तीनियों के गौरव और बहादुरी के लिए धन्यवाद, यह सभी के लिए स्पष्ट हो गया है कि ज़ायोनीवाद बहुत कमज़ोर है और अपनी कमज़ोरी में ईरानियों की भागीदारी से भी बदतर है रैलियों में इतने बड़े पैमाने पर लोगों का आना वैश्विक अहंकार के लिए एक संदेश है, और वह यह है कि क्रूरता, हिंसा और आक्रामकता के साथ-साथ आम नागरिकों के नरसंहार से कोई सफलता नहीं मिल सकती है, और उत्पीड़ितों का उचित संघर्ष होना चाहिए सफल होंगे और यह दुनिया ईश्वरीय वादे की पूर्ति और ज़ायोनी उत्पीड़क के विनाश का गवाह बनेगी।

लेबनान में हिज़्बुल्लाह के हमलों के डर से इक्यासी प्रतिशत ज़ायोनी निवासी उत्तरी अधिकृत फ़िलिस्तीन लौटने को तैयार नहीं हैं।

अल-मयादीन टीवी की रिपोर्ट के अनुसार, ज़ायोनी मीडिया सूत्रों की समीक्षाओं में कहा गया है कि हिज़्बुल्लाह के हमलों के कारण इक्यासी प्रतिशत से अधिक ज़ायोनी निवासी उत्तरी अधिकृत फ़िलिस्तीन छोड़ चुके हैं। लेबनान में। इन सूत्रों का कहना है कि ज़ायोनी उत्तरी अधिकृत फ़िलिस्तीन में तब तक लौटने के लिए तैयार नहीं हैं जब तक कि हिज़्बुल्लाह लितानी नदी के दूसरी ओर वापस नहीं चला जाता। गाजा युद्ध शुरू होने के बाद लेबनान में हिजबुल्लाह ने लगातार ज़ायोनी सैन्य ठिकानों पर हमले किए हैं, जिसके कारण हज़ारों कब्ज़ा करने वाले ज़ायोनी उत्तरी कब्जे वाले फ़िलिस्तीन को छोड़कर चले गए हैं।

रॉयटर्स समाचार एजेंसी ने भी अधिकृत फ़िलिस्तीन के बारे में एक रिपोर्ट में कहा है कि पिछले साल अक्टूबर से लेबनान में हिज़्बुल्लाह के हमलों के कारण लगभग 60,000 ज़ायोनी उत्तरी अधिकृत फ़िलिस्तीन छोड़ चुके हैं, जबकि ज़ायोनी प्रधान मंत्री नेतन्याहू भी हिज़्बुल्लाह का सामना करने में डर और दहशत में हैं

लेबनान में हिज़्बुल्लाह के प्रमुख ने तेहरान द्वारा फ़िलिस्तीन के उत्पीड़ित लोगों के समर्थन को संयुक्त राज्य अमेरिका और ज़ायोनी सरकार की इस्लामी गणराज्य ईरान के प्रति शत्रुता का मुख्य कारण बताया है।

हमारे संवाददाता की रिपोर्ट के अनुसार, लेबनान में हिज़्बुल्लाह के प्रमुख सैय्यद हसन नसरल्लाह ने दहिया में अंतर्राष्ट्रीय क़ुद्स दिवस के अवसर पर अपने भाषण में क्षेत्र में ज़ायोनी सरकार की विफलता की ओर इशारा किया और कहा कि इस्लामी गणतंत्र ईरान अपनी स्थिति पर कायम है और कब्जाधारियों की तुलना में दृढ़ता का समर्थन करता रहा है।

सैय्यद हसन नसरल्लाह ने जोर देकर कहा कि अल-अक्सा तूफान ऑपरेशन क्षेत्र में एक मील का पत्थर है और ज़ायोनी सरकार के अस्तित्व को खतरे में डालता है, उन्होंने कहा कि गाजा युद्ध के छह महीने बाद भी, ज़ायोनी प्रधान मंत्री नेतन्याहू अपने किसी भी लक्ष्य में नहीं हैं। सफल नहीं हो सका.

सैय्यद हसन नसरल्लाह ने इस बात की ओर इशारा करते हुए कहा कि प्रतिरोध के मोर्चे ने ज़ायोनी शासन के खिलाफ युद्ध में एक बड़ी जीत हासिल की है, नेतन्याहू और उनके गठबंधन के पास गाजा में युद्ध को रोकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

मुस्लिम देशों में बहिष्कार से तंग आकर मैकडॉनल्ड्स ने कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में इजरायली कंपनी से अपनी सभी फ्रेंचाइजी वापस ले ली हैं।

शेयरों में गिरावट के बाद अमेरिकी फास्ट फूड कंपनी ने इजरायली फ्रेंचाइजी एलोनल से दो सौ पच्चीस रेस्तरां वापस ले लिए। अधिकांश अमेरिकी खाद्य श्रृंखला रेस्तरां स्थानीय स्वामित्व में हैं। एल्विनल द्वारा इजरायली सैनिकों को मुफ्त भोजन वितरित करने के बाद मध्य पूर्व में अमेरिकी रेस्तरां की बिक्री गिर गई।

पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया सहित विभिन्न मुस्लिम देशों में बहिष्कार के कारण अमेरिकी रेस्तरां की बिक्री प्रभावित हुई है। कंपनी ने जनवरी में घोषणा की थी कि वह पहली तिमाही के बिक्री लक्ष्य से चूक गई है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने एक बार फिर गाजा में संघर्ष विराम और इजरायली हमलों को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया है.

प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने एक बार फिर गाजा में युद्धविराम की आवश्यकता और इजरायली हमलों को समाप्त करने पर जोर दिया, लेकिन कब्जा करने वाली ज़ायोनी सरकार, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय मानकों पर क्रूर आक्रामकता और अमानवीय अपराध फ़िलिस्तीनी नागरिकों के ख़िलाफ़ निंदा की चिंता किए बिना जारी है।

आईआरएनए की रिपोर्ट के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने पिछले छह महीनों से गाजा के खिलाफ क्रूर आक्रामकता के बाद पत्रकारों से बातचीत में कहा है कि उन्होंने एक बार फिर गाजा में मानवीय युद्धविराम, इजरायली हमलों को समाप्त करने और सभी कैदियों की रिहाई, बिना शर्त रिहाई, नागरिकों की सुरक्षा और गाजा में निर्बाध मानवीय सहायता हस्तांतरण का आह्वान।

रमज़ान महीने के आख़िरी जुमे और क़ुद्स विश्व दिवस के अवसर पर हर साल की तरह इस साल भी ईरान के सभी शहरों में फ़िलिस्तीन के समर्थन में विशाल रैलियों का आयोजन किया गया।

ग़ौरतलब है कि ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी ने रमज़ान महीने के आख़िरी जुमे को क़ुद्स विश्व दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी, ताकि विश्व भर के न्याय प्रेमी लोग ज़ायोनी शासन की जातिवादी नीतियों की निंदा कर सकें।

इस साल, क़ुद्स विश्व दिवस ऐसी स्थिति में मनाया गया, जब पिछले 6 महीने से ग़ज़ा के लोगों पर ज़ायोनी शासन ने ज़ुल्म का पहाड़ ढा रखा है। ग़ज़ा पर इस्राईल के बर्बर हमलों ने जहां 33,000 से ज़्यादा लोगों की जान ले ली है, वहीं पूरा ग़ज़ा तहस-नहस हो गया है और लोग भुखमरी का शिकार हैं। दुनिया भर में इस्राईल के अत्याचारों के ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ती जा रही है और फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में लगातार वृद्धि हो रही है।

पिछले 6 महीनों के दौरान, ग़ज़ा पट्टी में 33,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं, जिनमें अधिकांश संख्या बच्चों और महिलाओं की है, वहीं 75 से ज़्यादा लोग घायल हुए हैं।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने एक साज़िश के तहत 1917 में अवैध ज़ायोनी शासन की बुनियाद रखने की साज़िश रची थी। इस साज़िश के तहत विभिन्न देशों से यहूदियों को लाकर फ़िलिस्तीन में बसाया गया और 1948 में ज़ायोनी शासन की स्थापना की घोषणा की गई। उसके बाद से पूरे फ़िलिस्तीन को हड़पने और फ़िलिस्तीनियों के जातीय सफ़ाए की साज़िश पर अमल हो रहा है।