رضوی
हज़रत मासूमा स.ल.की ज़ियारत का फल जन्नत
मासूमीनीन अ.ल. के अनुसार, हज़रत फ़ातिमा मासूमा (स) की ज़ियारत स्वर्ग की गारंटी है। वह एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने अपनी उपासना, भक्ति और सिफ़ारिश के पद के कारण शिया धर्म के इतिहास में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है।
जब इमाम रज़ा (अ) ने मामून अब्बासी के दबाव में संरक्षकता स्वीकार की और खुरासान के लिए प्रस्थान किया, तो उनकी बहन हज़रत फ़ातिमा मासूमा (स), जो अपने पिता मजीद इमाम काज़िम (अ) की शहादत के बाद अपने आदरणीय भाई की छत्रछाया में शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, उनसे दूरी सहन नहीं कर सकीं। कुछ ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार, यह यात्रा भी इमाम रज़ा (अ) के अनुरोध पर की गई थी।
वर्ष 201 हिजरी में हज़रत मासूमा (स) अपने भाइयों, रिश्तेदारों और साथियों के साथ मदीना से खुरासान के लिए रवाना हुईं। जब मामून को यह खबर मिली, तो उन्होंने अपने दूतों को आदेश दिया कि वे कारवां को आगे न बढ़ने दें। सवाह के पास सरकारी सेना ने कारवां पर हमला कर दिया, जिसमें कई भाई और साथी शहीद हो गए।
इतिहासकारों के अनुसार, हज़रत की बीमारी के दो कारण बताए गए हैं: एक, अपने प्रियजनों की शहादत का गहरा दुःख, और दूसरा, उनके दुश्मनों द्वारा जहर दिया जाना। हालाँकि, शारीरिक दुर्बलता के कारण वे अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सके और इसीलिए उनकी मृत्यु को "शहादत" कहा जाता है।
इसी बीच, क़ुम के बुज़ुर्ग मूसा बिन ख़ज़रज उनकी सेवा में आए और उन्हें सवाह से क़ुम ले आए। वे अपने घर में, जिसे बाद में "बैतुन नूर" कहा गया, 17 दिनों तक रहे और निरंतर इबादत और भक्ति में अपना समय बिताया। फिर उनका देहांत हो गया और उन्हें बड़े सम्मान के साथ क़ोम में दफ़नाया गया। आज, उनका पवित्र दरगाह न केवल क़ोम की पहचान है, बल्कि संपूर्ण शिया जगत के लिए ज्ञान और समझ का केंद्र भी है।
हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत का महत्व
हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के प्रोफ़ेसर, हुज्जतु इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद हुसैन मोमेनी बताते हैं कि हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत को आइम्मा ए मासूमीन (अ) द्वारा बहुत महत्व दिया जाता था। इमाम रज़ा (अ) ने स्वयं उनके लिए ज़ियारतनामा पढ़ाया और उसमें उनकी स्थिति और मर्तबे पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि अहले बैत (अ) के वंशजों में केवल तीन महान व्यक्ति हैं जिनके लिए विशेष ज़ियारतनामा लिखा गया है: हज़रत अब्बास (अ), हज़रत अली अकबर (अ), और हज़रत फ़ातिमा मासूमा (स) यह उनके उच्च पद का प्रमाण है।
परंपराओं के अनुसार, जो कोई हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत करेगा, उसके लिए जन्नत अनिवार्य होगी। यह इस महान महिला के उच्च पद का प्रतीक है।
क़ुम: अहले बैत (अ) का हरम
आइम्मा ए मासूमीन (अ) ने बार-बार क़ुम और उसके निवासियों की प्रशंसा की है। इमाम सादिक (अ) और इमाम रज़ा (अ) ने क़ुम को "अहले-बैत का पवित्र स्थान" घोषित किया और कठिन परिस्थितियों में विश्वासियों को इस शहर की ओर रुख करने की सलाह दी।
ऐतिहासिक रूप से, क़ुम के लोगों ने भी हज़रत मासूमा (स) का असाधारण स्वागत किया। शाम और कूफ़ा की कड़वी घटनाओं के विपरीत, क़ोम के लोगों ने उनके आगमन को सम्मान और आदर के साथ मनाया।
ज़ियारत और सिफ़ारिश के निशान
इमाम रज़ा (अ) द्वारा अपनी बहन के साथ ज़ियारत नामा साझा करना इस बात का प्रमाण है कि उनकी ज़ियारत केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि ज्ञान और ईश्वर के साथ निकटता का एक साधन है। परंपराओं में कहा गया है कि हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत का सवाब ऐसा है मानो सभी इमामों (अ) की ज़ियारत हो गई हो।
क़यामत के दिन यह महिला सिफ़ारिश करेंगी और उनकी सिफ़ारिश के ज़रिए शिया जन्नत में दाखिल होंगे। इसीलिए धार्मिक नेता हमेशा हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं। उदाहरण के लिए, आयतुल्लाह मरशी नजफ़ी रोज़ सुबह सबसे पहले इस दरगाह पर जाते थे और उन्होंने वसीयत की थी कि उनका अंतिम संस्कार हज़रत मासूमा (स) की ज़ियारत के बगल में किया जाए।
हज़रत मासूमा (स) की बरकत
विद्वानों और बुज़ुर्गों ने भी अपनी शैक्षणिक समस्याओं के समाधान के लिए हज़रत मासूमा (स) से मदद मांगी है। इतिहास गवाह है कि मुल्ला सदरा और अल्लामा तबातबाई जैसे विचारकों ने अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक कठिनाइयों के दौरान इस दरगाह से मदद मांगी थी।
हज़रत ज़हरा (स) की क़ब्र के लिए अल्लाह ने जो महानता निर्धारित की थी, लेकिन उनके क़ब्र के छिपे होने के कारण प्रकट नहीं हो पाई, वह हज़रत मासूमा (स) की क़ब्र में स्थापित हो गई।
निष्कर्ष
हज़रत फ़ातिमा मासूमा (स) के प्रवास और मृत्यु ने क़ुम को एक नई पहचान दी और इसे सदियों तक शिया शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र बना दिया। उनके दर्शन करने से जन्नत का वादा होता है और क़यामत के दिन, वह ईमान वालों के लिए सिफ़ारिश करेंगी। आज भी, यह पवित्र स्थान ईमान वालों के लिए एक आश्रय स्थल और ज्ञान एवं आध्यात्मिकता का एक प्रकाश स्तंभ है।
हज़रत मासूमा स.ल. की ज़ियारत करने वालो के लिए जन्नत का वादा शर्त के साथ है या बिना शर्त?
हज़रत इमाम जाफर सादिक अ.स.ने फरमाया,فمن زارھا وجبت لہ الجنۃ का अर्थ यह है कि जिसने भी उनकी ज़ियारत की, उसके लिए जन्नत वाजिब हो गई।लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है यह वादा बिना शर्त नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति उनकी ज़ियारत करने के बाद चाहे जो भी बड़े से बड़ा पाप करे फिर भी उसके लिए जन्नत सुनिश्चित रहेगी।
10 रबीउस्सानी को हज़रत फातिमा मासूमा (स.) के यौमे वफात के मौके पर आयतुल्लाह मकारिम शीराजी ने एक विशेष बयान दिया है।
उन्होंने कहा कि इमाम जाफर सादिक (अ.स.) की एक प्रसिद्ध हदीस के अनुसार,जल्द ही मेरी संतान में से एक महिला क़ुम में दफन होंगी। 'फमन ज़ारहा वजबत लहुल जन्नह' - यानी जिसने भी उनकी ज़ियारत की उसके लिए जन्नत वाजिब हो गई।
हालाँकि, आयतुल्लाह मकारिम शीराजी ने स्पष्ट किया कि यह वादा बिना शर्त नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा,इसका मतलब यह नहीं है कि ज़ियारत करने वाला व्यक्ति चाहे जो भी पाप करता रहे उसके लिए जन्नत सुनिश्चित हो गई है। बल्कि जन्नत का वाजिब होना मशरूत है।
उन्होंने इस बात को स्पष्ट करने के लिए इतिहास का एक उदाहरण दिया,सहाबा में कुछ ऐसे लोग भी थे जिनके लिए एक दिन जन्नत वाजिब थी, लेकिन बाद में उन्होंने इमाम अली (अ.स.) के खिलाफ विद्रोह किया, बहुत से लोगों को मार डाला और खुद भी मारे गए। इस तरह उनके लिए जहन्नम वाजिब हो गई। इसलिए जन्नत का वाजिब होना शर्तों के अधीन है।
उन्होंने कहा कि हज़रत मासूमा (स.ल.) का महत्व केवल इमाम की बेटी बहन या फुफी होने तक सीमित नहीं है, बल्कि उनका अल्लाह के यहाँ बहुत ऊँचा मकाम है जो उनके जीवन के अध्ययन और ज़ियारतनामे में इस्तेमाल हुए विशेष शब्दों से स्पष्ट होता है।
इमाम ए ज़माना अ.ज. की मारेफत नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं।
अमीर ए क़लाम, अमीर-ए-बयान, मौला-ए-मुत्तक़ियान अमीरुल मोमिनीन इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,हर इंसान की क़द्र व क़ीमत उसकी मारेफत के हिसाब से है।
अमीर ए क़लाम, अमीर-ए-बयान, मौला-ए-मुत्तक़ियान अमीरुल मोमिनीन इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,हर इंसान की क़द्र व क़ीमत उसकी मारेफत के हिसाब से है।
यानि जिसके पास जितनी मारेफत है उसकी उतनी ही क़द्र व क़ीमत है। अब सवाल ये उठता है कि ये मारेफ़त (पहचान) है क्या? इसका जवाब भी अहलेबैत (अ.स.) की रवायतों में मौजूद है। जैसा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:"ऐ लोगो! अल्लाह ने बंदों को सिर्फ़ इस लिए पैदा किया है कि वो उसकी मारेफत हासिल करें। (उसे पहचान लें) जब वो उसे पहचान लें तो उसकी इबादत करें और जब उसकी इबादत करें तो ग़ैर (-ए-ख़ुदा) की इबादत से बेनियाज़ हो जाएं।
एक शख़्स ने पूछा:ऐ रसूल के बेटे! अल्लाह की मारेफत (पहचान) क्या है?तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया:हर दौर के लोगों के लिए उस दौर के इमाम की मारेफत (पहचान) है जिसकी इताअत (फ़रमांबरदारी) उन पर लाज़िम है।" (इललुश-शरायअ ज1, स9)
इन दोनों हदीसों से साफ़ होता है कि ग़ैबत-ए-कुबरा के ज़माने में इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) बेहद ज़रूरी है। क्योंकि जिसे इमाम-ए-वक़्त की मारेफत नहीं उसे अल्लाह की मारेफत नहीं, और जिसे अल्लाह की मारेफत नहीं वो अल्लाह की इबादत नहीं कर सकता। ऐसा इंसान ग़ैर-ख़ुदा से बेनियाज़ और बेज़ार भी नहीं हो सकता और ऐसे इंसान की न तो कोई क़द्र व क़ीमत है और न ही कोई अहमियत है।
चूंकि इमामत का अकीदा सिर्फ़ दुनिया में ही काम नहीं आता बल्कि आख़ेरत में भी काम आएगा। अगर किसी का अक़ीदा ए इमामत सही नहीं है, यानी उसे इमाम-ए-वक़्त की पहचान नहीं है तो वो दुनिया में भी घाटा उठाएगा और आख़ेरत में भी घाटा उठेगा।
इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया:
"लोगों पर तीन चीज़ें लाज़िम हैं: इमामों की पहचान, उनके सामने तस्लीम हो जाना (सर झुका देना) और जिस मसअले में इख़्तिलाफ़ हो उसे उन्हीं के हवाले करना।" (वसाइलुश-शिया, ज27, स67)
इसी तरह रवायत है कि:
"जिसने चार चीज़ों में शक किया उसने अल्लाह की सारी नाज़िल की हुई चीज़ों का इंकार किया। इनमें से एक है हर दौर के इमाम की पहचान है, कि ख़ुद इमाम को उनके सिफ़ात (गुण) के साथ पहचाने।" (बिहारुल-अनवार, ज69, स135)
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से रवायत है कि रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया:
"जिसने मेरे बेटे क़ायेम (अ.ज.) का उसकी ग़ैबत के वक़्त में इंकार किया तो वो जाहिलियत की मौत मरा।" (सदूक़, ज2, स412)
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से ही रवायत है:
"जो शख़्स ऐसी हालत में रात गुज़ारे कि अपने दौर के इमाम को न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।" (नोमानी, स127)
यानि अगर किसी के पास इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) नहीं है तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है और ऐसे शख़्स का आख़ेरत में घाटा ही घाटा है। दुनिया में भी उसका नुक़सान होगा, क्योंकि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) का इंकार सिर्फ़ उनका इंकार नहीं बल्कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) का इंकार है। जैसा कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया: "जिसने मेरे बेटे क़ायेम (अ.ज.) का इंकार किया उसने मेरा इंकार किया।" (कमालुद्दीन, ज2, स412)
यानि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) का मुंकिर रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) का मुंकिर है। और जो रसूल का इंकार करे वो इस्लाम के दायरे में नहीं है। उस पर इस्लाम के अहकाम लागू नहीं होंगे! ऐसे इंसान का ज़ाहिर भी नापाक है और बातिन भी।
इसलिए ज़रूरी है कि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) हासिल की जाए ताकि ईमान और इस्लाम बाक़ी रह सके।
मारेफ़त-ए-इमाम के बारे में रवायतें बहुत हैं जिनमें से एक यह है कि हिशाम बिन सालिम ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से रवायत की कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया: "क़ायम मेरी औलाद में से है। उसका नाम मेरा नाम होगा और उसकी कुन्नियत मेरी कुन्नियत होगी।
वो शक्ल व सूरत और रंग-रूप में मेरे जैसा होगा। महदी मेरी सुन्नत के साथ ज़हूर करेगा, लोगों को मेरी मिल्लत और शरीअत की तरफ़ बुलाएगा और उन्हें किताबुल्लाह (क़ुरआन) की तरफ़ दावत देगा। जिसने उसकी इताअत की उसने मेरी इताअत की और जिसने उसकी नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की।
जिसने उसकी ग़ैबत का इंकार किया उसने मेरा इंकार किया, जिसने उसे झुटलाया उसने मुझे झुटलाया और जिसने उसकी तस्दीक़ की उसने मेरी तस्दीक़ की। मैं अल्लाह के सामने उन लोगों की शिकायत करूंगा जो उसके बारे में मेरी कही बातों को झुटलाएँगे और मेरी उम्मत को उसके रास्ते से भटकाएँगे। और जल्द ही ज़ालिम अपने अंजाम को देख लेंगे।" (कमालुद्दीन, ज2, स411)
इस हदीस से साफ़ होता है कि जो भी इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) के बारे में कोताही करेगा, इंकार करेगा, उनके बारे में हदीस-ए-नबवी का इंकार करेगा, लोगों को उनके रास्ते से हटाएगा और गुमराही का रास्ता दिखाएगा, वो ज़ालिमों में शामिल होगा।
और कुरआन के मुताबिक़ ज़ालिम न तो लायक़-ए-हिदायत हैं और न ही क़ाबिल-ए-क़ियादत। उनका ठिकाना जहन्नम है। जहन्नमियों की न कोई क़द्र व क़ीमत हैं और न ही कोई अहमियत। इसलिए ये साबित होता है कि अगर इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं।
हज़रत फ़ातिमा मासूमा स.ल.कि शहदत के मौके पर पूरे ईरान में शोक का माहौल
ईरान और विशेष रूप से क़ुम अलमुकद्देसा में आठवें इमाम अली रज़ा अ.स. की बहन हज़रत फ़ातिमा मासूमा शहादत के मौके पर मोमनिन ने ग़म मानते हुए अजादारी की।
हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत फ़ातिमा मासूमा स.अ. 10 रबीउस्सानी की बरसी का दिन था हज़रत मासूमा का स्वर्गवास क़ुम में हुआ था और इसी शहर में उनका रौज़ा स्थित है।
हज़रत मासूमा का रौज़ा शिया मुसलमानों के पवित्र स्थलों में से एक है और हर साल लाखों लोग उनके रौज़े की ज़ियारत करने क़ुम जाते हैं।
उनके स्वर्गवास की बरसी के अवसर पर भी पूरे ईरान और पूरी दुनिया से पैग़म्बरे इस्लाम (स.ल.व.) के चाहने वाले बड़ी संख्या में क़ुम पहुंचे हैं और अज़ादारी कर रहे हैं।
क़ुम में मातमी दस्ते मातम करते हुए और नौहा पढ़ते हुए हज़रत मासूमा के रौज़े में पहुंचकर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं।
क़ुम के उपनगरीय इलाक़े जमकरान में स्थित जमकरान मस्जिद में भी बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हैं और शोक सभाएं आयोजित कर रहे हैं।
ईरानी पार्लियामेंट के स्पीकर की मराजय ए कराम से मुलाकात विभिन्न मुद्दों पर चर्चा
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान की मजलिस-ए-शूरा-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मोहम्मद बाकिर क़ालीबाफ ने अपनी यात्रा के दौरान पवित्र शहर क़ुम का दौरा किया और हज़रत फातिमा मासूमा स.ल. के हरम की ज़ियारत की तथा वरिष्ठ धार्मिक नेताओं मराजय ए इकराम से मुलाक़ातें कीं।
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान की मजलिस-ए-शूरा-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मोहम्मद बाकिर क़ालीबाफ ने अपनी यात्रा के दौरान पवित्र शहर क़ुम का दौरा किया और हज़रत फातिमा मासूमा स.ल. के हरम की ज़ियारत की तथा वरिष्ठ धार्मिक नेताओं मराजय ए इकराम से मुलाक़ातें कीं।
क़ालीबाफ ने इस अवसर पर आयतुल्लाहिल उज़मा शुबैरी जंजानी, आयतुल्लाहिल उज़मा मकारिम शीराजी, आयतुल्लाहिल उज़मा जाफर सुभानी और आयतुल्लाहिल उज़मा जवादी आमोली से अलग-अलग मुलाकात की और देश एवं धर्म के मामलों पर विचार-विमर्श किया। वह आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली सिस्तानी की पत्नी के निधन पर आयोजित शोक सभा में भी शामिल हुए।
अपने दौरे के दौरान आयतुल्लाहिल उज़मा जवादी आमली से मुलाकात में महान व्यक्तित् ने इमाम हसन अलअस्करी (अलैहिस्सलाम) के जन्मदिन की बधाई देते हुए कहा कि ईरानी राष्ट्र की सबसे बड़ी नेमत अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से वाबस्तगी है।
उन्होंने कहा,हम अली अलैहिस्सलाम और औलाद-ए-अली अलैहिमुस्सलाम के पैरोकार हैं, जबकि दुनिया के दूसरे लोग इस नेमत से महरूम हैं। हालांकि, अगर समाज से फसाद (भ्रष्टाचार), इख्तिलास और बद-ए-इंतिज़ामी खत्म नहीं किया गया, तो दूसरे समाज हमसे आगे निकल जाएंगे।
उन्होंने जोर देकर कहा कि देश की इस्लाह तभी संभव है जब सक्षम और सालेह (योग्य) लोगों को ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ। "देश की पाकीज़गी (पवित्रता) का राज़ हाकिमों (शासकों) और मुंतज़िमीन की तहारत (पवित्रता) में है।
आयतुल्लाहिल उज़मा जवादी आमोली ने ईरान के प्राकृतिक संसाधनों का ज़िक्र करते हुए कहा, हमारा देश खुदाई नेमतों से मालामाल है। उत्तरी ईरान के जंगलात, माज़ंदरान की सरसब्ज वादियाँ और दमावंद की बुलंद चोटियों को देखकर यह कहना कि बिजली और ऊर्जा के मसले हल नहीं हो सकते, दुरुस्त नहीं है।
बार-बार ज़िम्मेदारों से कहा गया है कि उत्तरी पानी को बर्बाद होने से रोकें और डैम बनाएँ। जब अवाम को यक़ीन होगा कि मंसूबों (परियोजनाओं) के फ़ायदे उन्हीं को मिलेंगे, तो वह उसी तरह मैदान में आएंगे जैसे आमोल के हज़ार सेंगर वाक़े में आए थे।
अमीरुल मोमनीन अ:स. के हरम में इराक़ में मरज ए आली क़द्र के वकीलों और ट्रस्टियों की ग्यारहवीं आम सभा
केंद्रीय कार्यालय नजफ़ अशरफ़ की देख़रेख़ में और हज़रत अमीरुल मोमनीन अ:स के हरम में,इराक़ में मरज ए आली क़द्र के वकीलों और ट्रस्टियों का ग्यारहवीं आम सभा आयोजित की गई।
केंद्रीय कार्यालय नजफ़ अशरफ़ की देख़रेख़ में, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के प्रांगण, हरम हज़रत अमीरुल मोमनीन (अ:स) में मरज ए आली क़द्र (दाम ज़िल्लो हुल्-वारिफ़) के इराक़ में वकीलों और ट्रस्टियों का ग्यारहवीं सभा “समाज की तामीर हमारी इज्तेमाई ज़िम्मेदारी” के विषय पर आयोजित हुई।
केंद्रीय कार्यालय के निदेशक, हुज्जतुल इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने सभा को संबोधित किया। उन्होंने सभी प्रतिभागियों का स्वागत किया और सभा की शुरुआत पर शुभकामनाएँ दी।
उन्होंने कहा कि यह सभा हर साल होती है ताकि आपसी सलाह से ऐसे असरदार रास्ते तय किए जा सकें जो हमारे धार्मिक, राष्ट्रीय और प्रिय इराक़ी लोगों की ज़िम्मेदारियों को बेहतर तरीके से निभाने में मदद करें।
हुज्जतुल इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने कई अहम मसलों और साझा रुचि के मुद्दों पर चर्चा की, जिन्हें सही तरह से समझना बहुत ज़रूरी है, ताकि हर समस्या का उचित हल निकाला जा सके। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि मौजूदा कठिन हालात से निकलने के लिए हमें एकजुट सोच अपनानी होगी, जो तुरंत कार्रवाई और स्पष्ट, व्यावहारिक योजना की मांग करती है।
उन्होंने कहा कि सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस योजना बनाना ज़रूरी है और ऐसे कदम उठाने चाहिए जो धर्म और देश की सुरक्षा के मूल सिद्धांतों को मज़बूत करें। उन्होंने कहा कि हमें अपने प्रचार और संदेश पहुँचाने के काम में पूरी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और जो मेहनत हमने शुरू की है, उसे गंभीर, लगातार और ठीक तरीके से पूरा करना चाहिए।
इसका मक़सद यह है कि हमारी कोशिशें सभी मोमेनीन के साथ मिलकर हों, ताकि सब एकजुट होकर ऐसा नेक समाज तैयार करें जो अंबिया और औलिया की महान रिसालत के लायक हो।
हुज्जतुल इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने इस बात की आवश्यकता पर भी रोशनी डाली कि केंद्रीय कार्यालय के वकील और ट्रस्टी, जो विद्वान और योग्य हैं, ने हाल के समय में ख़ासकर अज़ीम-उल-शान मिल्युनि ज़ियारतों के मौके पर जो मेहनत की, वह बहुत काबिले-तारीफ़ है।
इसी तरह धर्म की प्रचार-प्रसार गतिविधियाँ, मोमिन नौजवानों का समर्थन, उन्हें मरजइयत-ए-रशीदा से जोड़ना, गर्मियों में ट्रेनिंग कोर्स और इल्मी व क़बाइली मजलिसों में उनकी मौजूदगी यह सभी प्रयास एकजुट संदेश फ़ैलाने के लिए हैं।
उन्होंने कुछ अहम राष्ट्रीय मुद्दों का भी ज़िक्र किया, जिनमें नौजवानों और नई पीढ़ी से लगातार जुड़े रहने और अहलेबैत (अ:स) के ज्ञान को आम करने पर ज़ोर दिया, क्योंकि यह ज्ञान सोच-विचार और फिक्री विकास के लिए बहुत ज़रूरी है चाहे वह इल्मी और शोध मंच हों या हुसैनी मिम्बर। उन्होंने साफ़ कहा कि नौजवानों को करीब लाने और उनकी राह से बुराइयों को दूर करने के लिए एक उद्देश्यपूर्ण प्रोग्राम के विषय में काम करना चाहिए, ताकि पूरा समाज इसका लाभ उठा सके।
अहले इल्म व फ़ज़्ल ने कई तकरीरें की हैं, जिनमें उन्होंने समाजी मसाएल और इस्लाम-ए-मुहम्मदी के परचम को बुलंद करने के लिए जारी कोशिशों पर रोशनी डाली। ये सभी गतिविधियाँ अज़ीज़ इराक़ी लोगों की सेवा में की जा रही हैं, ख़ासकर प्रचार-प्रसार, धार्मिक, नैतिक, अक़ाएद और अन्य क्षेत्रों में।
उन्होंने हुज्जतुल इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) का शुक्रिया अदा किया जिन्होंने इस सभा की देख़रेख़ की और इसकी सफ़लता में गहरी रुचि और सक्रिय भागीदारी निभाई।
धार्मिक शिक्षाओं को बढ़ावा देने में हौज़ा ए इल्मिया की ज़िम्मेदारी आज पहले से कहीं ज़्यादा गंभीर
हुज्जतु इस्लाम वल मुस्लेमीन हामिद मलिकी ने अहले बैत (अ) की शिक्षाओं को बढ़ावा देने में मीडिया क्षमताओं के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया और कहा: धार्मिक शिक्षाओं को बढ़ावा देने में हौज़ा ए इल्मिया की ज़िम्मेदारी पहले से कहीं ज़्यादा गंभीर हो गई है।
हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप प्रबंधक हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन हामिद मलिकी ने हौज़ा ए इल्मिया के पहले पॉडकास्ट उत्सव के समापन समारोह में धार्मिक प्रचार के क्षेत्र में आधुनिक साधनों के इस्तेमाल की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए कहा: आज के युवा नए परिवेश से ज़्यादा जुड़े हुए और परिचित हैं, इसलिए धर्म का संदेश उन तक इसी माध्यम से पहुँचाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा: जब लाउडस्पीकर का आविष्कार हुआ था, उस समय के समय और स्थान से वाकिफ़ विद्वानों ने अपनी आवाज़ श्रोताओं तक पहुँचाने के लिए इसका इस्तेमाल किया था। बाद में, रेडियो के आविष्कार के साथ, यह प्रवृत्ति जारी रही और आज भी, संचार के नए-नए साधन प्रतिदिन सामने आ रहे हैं। इसलिए, धर्म प्रचारकों का भी यह कर्तव्य है कि वे इन माध्यमों को पहचानें और धर्म का संदेश पहुँचाने के लिए इनका लाभ उठाएँ।
हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप प्रबंधक ने कहा: पैगम्बरों का कार्य ईश्वर का संदेश लोगों तक पहुँचाना था। पवित्र क़ुरआन कहता है: 'निःसंदेह, तुम पर केवल स्पष्ट संचार है', अर्थात् पैगम्बर पर संदेश अनिवार्य है। आज भी, धर्म प्रचारकों को अपने श्रोताओं के समक्ष धर्म का संदेश अत्यंत सुंदर और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए।
उन्होंने कहा: शैतान हर बुरे तरीके का लाभ उठाता है, इसलिए धर्म का संदेश विषयवस्तु की दृष्टि से सुंदर होना चाहिए और उसे सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया जाना चाहिए ताकि श्रोताओं के हृदय पर आवश्यक प्रभाव डाला जा सके। हम विद्वानों को, जो पैगम्बरों के मार्ग का विस्तार हैं, आधुनिक संचार माध्यमों से सुसज्जित होना चाहिए और उच्च स्वर्गीय वास्तविकताओं को एक नई भाषा में समाज तक पहुँचाना चाहिए।
उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं के प्रचार में भाषा और समय को समझने की आवश्यकता पर बल दिया और कहा: धर्म के क्षेत्र में प्रभावी होने के लिए, भाषा पर अधिकार, समय को समझना और संदेश पहुँचाने का तरीका जानना आवश्यक है।
उन्होंने नहजुल बलाग़ा का उल्लेख करते हुए कहा: अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) ने इस महान पुस्तक में इस्लाम के महान पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का वर्णन इस प्रकार किया है कि किसी अन्य व्यक्ति में ऐसा करने की शक्ति नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि इस्लाम के पैगम्बर (स) ने लोगों को इस्लाम की ओर मार्गदर्शन करने में बुद्धिमतापूर्ण, सटीक और सुविचारित शब्दों और शैली का प्रयोग किया।
ग्लोबल स्मूद फ्लोटिला' पर इज़रायल के हमले ने उसका "बर्बर चेहरा" उजागर कर दिया है। तुर्की के राष्ट्रपति
तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन ने कहा है कि गाज़ा के लिए रवाना 'ग्लोबल स्मूद फ्लोटिला' पर इज़रायल का हमला इस शासन का बर्बर चेहरा दिखाता है।
तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन ने कहा है कि गाज़ा के लिए रवाना 'ग्लोबल स्मूद फ्लोटिला' पर इज़रायल का हमला इस शासन का बर्बर चेहरा दिखाता है।
तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन ने कहा है कि गाज़ा के लिए रवाना 'स्मड फ्लोटिला' पर इजरायल का हमला इस शासन का बर्बर चेहरा दिखाता है।
एर्दोआन ने यह भी कहा कि तुर्की सरकार काफिले में मौजूद तुर्की कार्यकर्ताओं की सुरक्षा और किसी भी नुकसान से बचने के लिए सभी आवश्यक कदम उठा रही है। उन्होंने यह भी कहा कि इजरायल का यह हमला साफ करता है कि नेतन्याहू की कैबिनेट शांति की किसी भी संभावना को खत्म कर रही है।
ग्लोबल स्मूद फ्लोटिला के वैश्विक प्रबंधन ने घोषणा की कि इजरायल ने इस बेड़े के सभी जहाजों पर कब्जा कर लिया है, सिवाय एक के जो अभी भी गाज़ा की ओर बढ़ रहा है। इस कार्रवाई में 440 से अधिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, जायोनी सेना के सैकड़ों अधिकारियों ने बुधवार को स्मड बेड़े के 41 जहाजों पर हमला किया, जिनमें 400 से अधिक लोग सवार थे। यह ऑपरेशन लगभग 12 घंटे तक चला।
गज्ज़ा पहुंचने से पहले 'समूद फ्लोटिला' के 450 सदस्यों को इजरायली जेल में कैद किया
इजरायली अधिकारियों ने गाजा के लिए रवाना दुनिया के सबसे बड़े बेड़े "समूद" के 450 स्वयंसेवकों को जबरन गिरफ्तार करके अपनी कुख्यात कत्ज़ियोट जेल में पहुंचा दिया है। यह जेल नेगेव रेगिस्तान में मिस्र की सीमा के पास स्थित है और सालों से वहां हिंसा, दुर्व्यवहार और अमानवीय परिस्थितियों की शिकायतें सामने आती रही हैं।
बुधवार रात अंतरराष्ट्रीय समुद्र में कार्रवाई के दौरान इजरायली सेना ने 532 लोगों वाले इस बेड़े से 450 स्वयंसेवकों को जबरदस्ती गिरफ्तार किया। पत्रकारों की रिपोर्टों के मुताबिक इन गिरफ्तार लोगों को कत्ज़ियोट जेल में पहुंचाने की योजना बनाई गई है, जहां फिलिस्तीनी कैदियों के साथ संगठित हिंसा और अमानवीय व्यवहार के सबूत पहले भी सामने आते रहे हैं।
सोशल मीडिया पर प्रकाशित जानकारी के अनुसार इजरायली अधिकारियों ने यह शर्त रखी है कि जो स्वयंसेवक अपने देश वापस जाने के कागजात पर दस्तखत कर देंगे, उन्हें रिहा कर वापस भेजा जा सकता है। हालांकि, बड़ी संख्या में लोगों को जेल में पहुंचाए जाने की खबरें भी मौजूद हैं।
इससे पहले इजरायली विदेश मंत्रालय ने घोषणा की थी कि बेड़े स्मड की कोई भी नाव गाजा के तट तक नहीं पहुंच सकी। मंत्रालय के मुताबिक इन नावों के सभी यात्रियों को फिलिस्तीन के कब्जे वाले इलाके में ले जाया जा रहा है और इसके बाद उन्हें यूरोपीय देशों को वापस भेज दिया जाएगा।
इजरायली स्रोतों ने यह भी बताया कि सैकड़ों स्वयंसेवकों को अशदोद बंदरगाह ले जाया गया ताकि उन्हें या तो सहमति से या अदालती आदेश के जरिए इजरायली इलाके से निकाला जा सके।
यह अभियान इसलिए असाधारण महत्व रखता है क्योंकि पहली बार 50 से अधिक नावों वाला एक बेड़ा, जिसमें दुनिया के 45 देशों के 532 नागरिक शामिल थे, गाजा की नाकाबंदी को तोड़ने के लिए रवाना हुआ था।
इसका मकसद अठारह साल से जारी नाकाबंदी का अंत और गाजा की जनता तक राहत सामग्री पहुंचाना था, लेकिन यह काफिला गाजा के तट तक नहीं पहुंच सका।
ईरान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों का टेलीफोनिक संपर्क / क्षेत्र की स्थिति पर विचार-विमर्श
ईरान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों ने राजनयिक सहयोग को और मजबूत करने और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए संयुक्त प्रयासों पर सहमति जताई।
ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराकची और पाकिस्तान के विदेश मंत्री सीनेटर मोहम्मद इस्हाक डार ने गुरुवार को टेलीफोन पर बातचीत की। इसमें द्विपक्षीय संबंधों, क्षेत्र की मौजूदा स्थिति और शांति व सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए जारी राजनयिक प्रयासों पर विचार-विमर्श किया गया।
रिपोर्ट के अनुसार दोनों विदेश मंत्रियों ने आपसी भाईचारे और राजनीतिक आर्थिक व सांस्कृतिक सहयोग को और बढ़ावा देने पर सहमति जताई और क्षेत्रीय तनाव और अस्थिर स्थिति में सुधार लाने के लिए संयुक्त सहयोग को मजबूत करने के संकल्प का इज़हार किया।
विदेश मंत्रियों ने कहा,ईरान और पाकिस्तान दोनों मिलकर कई वैश्विक व क्षेत्रीय मंचों पर भी बेहतर सहयोग करेंगे ताकि शांति, सुरक्षा और समृद्धि के लक्ष्य हासिल किए जा सकें।













